चीनी सेना के मुकाबले भारतीय सेना की तैयारियां ज्यादा

Indian army prepared more than Chinese army
राहुल लाल । Jul 11 2017 12:13PM

सिक्किम में चल रहे विवाद के बाद भारत-चीन युद्ध की आशंका जतायी जाने लगी है लेकिन चीनी सेना ने वियतनाम युद्ध के बाद किसी युद्ध में भाग नहीं लिया है। जबकि भारतीय सेना सदैव पाक सीमा पर अघोषित युद्ध से संघर्षरत ही रहती है।

वर्तमान वैश्विक संदर्भ में भारत-चीन सीमा विवाद मूलत: भारत के बढ़ते वैश्विक आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक व सैन्य शक्ति को ही प्रतिबिंबित करता है। दरअसल चीन भारत की इन्हीं शक्तियों में लगातार वृद्धि से भड़क गया है। वर्तमान विश्व जहाँ नई करवटें ले रहा है, उसमें चीन वैश्विक महाशक्ति बनने की महत्वाकांक्षा में दक्षिण एशिया में भारत द्वारा बनाए जा रहे शक्ति संतुलन को ध्वस्त करने का विफल प्रयास कर रहा है। भारत को चुनौती देने के लिए बीजिंग ने "मास्को-बीजिंग-इस्लामाबाद" का गठबंधन बनाने का प्रयास किया, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले माह रूस यात्रा के दौरान काफी हद तक तोड़ दिया।

चीन के विरोध के बावजूद "एस-400" देने के लिए रूस भारत को तैयार हो गया है। चीन ने इस बार आक्रामक विस्तारवादी नीति के माध्यम से वर्चस्व स्थापित करने के लिए रणणीतिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण माने जाने वाले डोकलाम पठार को चुना, जो भूटान का हिस्सा है और उस स्थान से दक्षिण में लगभग 40 किमी की दूरी पर सिलिगुड़ी कॉरीडोर स्थित है, इस सिलिगुड़ी कॉरीडोर को ही चिकेन नेक भी कहा जाता है। इस चिकेन नेक के द्वारा ही भारत पूर्वोत्तर भारत से संबद्ध है। अगर इस क्षेत्र में चीनी वर्चस्व कायम होगा तो संपूर्ण पूर्वोत्तर भारत पर सुरक्षा संकट के बादल गहरा जाएंगे। इस तरह चीनी साजिश की गंभीरता को समझा जा सकता है। ऐसे में अब प्रश्न उठता है कि क्या जी-20 की जर्मनी में संपन्न बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के हाथ मिलाने से यह संकट टल गया है? क्या भारत-चीन युद्ध होने की संभावना है? यदि युद्ध होता है, तो किसका पलड़ा भारी है? इन सभी प्रश्नों का उत्तर इस आलेख में आगे विस्तार से समझेंगे।

क्या भारतीय प्रधानमंत्री एवं चीनी राष्ट्रपति की अनौपचारिक मुलाकात से संकट टल गया है?

चीन के लगातार झूठे एवं भड़काऊ बयान के बाद जी-20 में प्रधानमंत्री मोदी एवं चीनी राष्ट्रपति ने हाथ मिलाया। चीनी राष्ट्रपति ने आतंकवाद के विरुद्ध भारतीय मुहिम तथा पिछले वर्ष गोवा में संपन्न ब्रिक्स सम्मेलन के लिए भारत की प्रशंसा की, जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने इस वर्ष चीन में हो रहे ब्रिक्स सम्मेलन के लिए चीन को शुभकामनाएँ दीं। चीन ने सीमा विवाद को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने की बात की। अब प्रश्न उठता है कि क्या जर्मनी की उपरोक्त मुलाकात के बाद भारत-चीन तनाव समाप्त हो गया है?

चीनी दबाव की रणनीति

उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में यही कहा जा सकता है कि जर्मनी में दोनों राष्ट्र प्रमुख की मुलाकात से भारत-चीन तनाव में कमी हो सकती है, लेकिन यह खत्म नहीं हो सकता है। भारत को अतीत के उदाहरणों से सजग रहने की आवश्यकता है। जब 2014 में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत यात्रा के दौरान झूले पर झूलने का आनंद ले रहे थे, तब भी लद्दाख में चीनी सैनिक 30 किमी अंदर आ गए थे। उस समय भी भारत-चीन के सैनिक आमने सामने थे। अभी जब शंघाई सहयोग संगठन की अस्ताना बैठक में चीनी राष्ट्रपति और भारतीय प्रधानमंत्री आपस में हाथ मिला रहे थे, तभी चीनी सैनिक सिक्किम में बंकरों को तोड़ रहे थे। इस तरह स्पष्ट है कि जी-20 बैठक में दोनों नेताओं की अनौपचारिक भेंट के बावजूद भारत को सीमा पर चौकन्ना एवं तैयार रहने की आवश्यकता है। यही कारण है कि डोकलाम मुद्दे पर गतिरोध के बीच चीन ने शनिवार को अपने नागरिकों को एडवाइजरी में भारत में सुरक्षा के प्रति सतर्क रहने को कहा। इसे भारत पर दबाव बनाने के एक और चीनी प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।

चीन अपने विशिष्ट दबाव की रणनीति के अंतर्गत अपने विस्तारवादी वर्चस्व को आगे बढ़ाता रहता है। इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण के रूप में दक्षिण चीन सागर को देखा जा सकता है। पिछले 3 वर्षों में चीन ने बिना एक भी गोली चलाए, दक्षिण चीन सागर के लगभग 2 तिहाई भाग पर कब्जा कर लिया है। इसी तरह चीन ने भारत पर दबाव डालने के लिए इस बार डोकलाम में हस्तक्षेप की नीति अपनाई है। इस स्थान पर चीनी प्रभुत्व स्थापित होने पर संपूर्ण पूर्वोत्तर भारत के लिए थल संपर्क स्थापित करने वाले सिलीगुड़ी गलियारा पर चीन के प्रभाव में वृद्धि हो सकती है। ऐसे में भारत इस स्थान पर अगर दबाव में आता है, तो सामरिक सुरक्षा पर गंभीर संकट उत्पन्न होंगे। यही कारण है कि 1962 के बाद यह प्रथम बार है कि सिक्किम से लगी सीमा पर भारत-चीन गतिरोध इतना लंबा चल गया है। यह भारत पर चीन द्वारा मनोवैज्ञानिक दबाव डालने का अब तक का सबसे बड़ा प्रयास है, लेकिन चीन इसमें भी असफल रहा है। चीन ने भूटानी सेना की चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए डोकलाम में सड़क निर्माण कार्य करने का प्रयास किया, इस पर भूटान के सहयोग के लिए भारतीय सेना ने मोर्चा संभाला। इसी बीच जून में चीनी सेना द्वारा भारतीय सेना के बंकर तोड़ने से तनाव में और भी वृद्धि हुई। अभी भारत ने 7 हजार से ज्यादा सैनिकों की तैनाती इस क्षेत्र में नॉन-कॉम्बैटिव मॉड में की है। इस बीच चीन ने अन्य क्षेत्रों में घुसपैठ में वृद्धि की। भारत इस तथ्य से अवगत है कि अगर किसी क्षेत्र पर चीन अपना प्रभाव बनाता है तो फिर उससे उस क्षेत्र को वापस लेना कठिन है। फलत: अब भारतीय नीति को भी रक्षात्मक के स्थान पर आक्रामक बनाया गया है।

क्या युद्ध की संभावना है?

भारत से 5 अरब डॉलर का कारोबार करने वाला चीन इतने बड़े बाजार को जोखिम में डालेगा, इसकी संभावना काफी कम है। भले ही चीनी विदेश मंत्रालय ने अपने कंपनियों को भारत में निवेश न करने की सलाह दी हो, परंतु वास्तविक स्थिति बिल्कुल भिन्न है। चीन ने पिछले 16 वर्षों में जितना निवेश किया है, उसका 77% मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ है। सरकार इस तरह की नीतियां बना रही है, जिससे चीन भारत में निवेश बढ़ाने के लिए मजबूर हो रहा है। चीन ने अपने कुल निवेश का करीब 59% मोटर वाहन उद्योग में, 11% धातु उद्योग में, 7% सर्विस सेक्टर इत्यादि में निवेश किया है। सरकार ने मेक इन इंडिया को सफल बनाने के लिए आयात को महंगा किया है। इसलिए सरकार ने मोबाइल कंपोनेंट पर 30% और तैयार मोबाइल पर 10 फीसदी आयात शुल्क लगा दिया है। इससे आयात महंगा होने के कारण कई चीनी कंपनियाँ भारत में यूनिट लगाने पर मजबूर हो रही हैं। इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा कई क्षेत्रों में निवेश की सीमा बढ़ाई गई है। कई में 100% निवेश करने की इजाजत दे दी गई है। 99% क्षेत्रों में निवेश के लिए कोई रोक-टोक नहीं है। इसके अतिरिक्त चीन के अंदर अब उत्पादन लागत में वृद्धि हो रही है। इसलिए भी चीनी लोग भारत में निवेश कर रहे हैं।

ऐसे हालात में चीन द्वारा भारत से युद्ध कपोल कल्पना ही है। चीन अभी दक्षिण चीन सागर में अमेरिका से उलझा हुआ है। 14 पड़ोसी देशों में ज्यादातर के साथ सीमा विवाद में भी उलझा चीन भारत के साथ युद्ध की हालत में अपनी पूरी सैन्य क्षमता नहीं झोंक सकता। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पिछले कुछ वर्षों से अपने छवि को चमकाने में लगे हैं। चीन जिस प्रकार की धमकी दे रहा है, उसको अगर क्रियान्वित करता है, तो पूरे विश्व में उसकी छवि धूमिल होगी। ऐसा होने पर एशिया और अफ्रीका के तमाम छोटे देशों में आर्थिक साझेदारी को लेकर चीन द्वारा विश्वास जगा पाना मुश्किल हो जाएगा।

एशिया में चीन के प्रभुत्व को स्थापित करने की कोशिशों को प्राय: भारत से चुनौती मिलती है। इसका ताजा उदाहरण रिजनल कॉप्रिहेंसिव इकनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) है। आसियान के 10 सदस्य देशों और आस्ट्रेलिया, चीन, भारत, दक्षिण कोरिया और न्यूजीलैंड के बीच मुक्त व्यापार का प्रस्ताव रखा गया है। चीन के लिए भी यह काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके दायरे में विश्व व्यापार का करीब 40% आ जाएगा। इस पर आखिरी समझौता इस वर्ष के अंत तक हो सकता है, लेकिन काफी संभावना है कि यह चीन के मन मुताबिक न होकर, भारत के अनुसार हो।

विश्व व्यापार में सबसे बड़े खिलाड़ी के तौर पर उभरने की चीन की महत्वाकांक्षा की राह में भारत आड़े आता है, खासतौर पर बात जब एशिया क्षेत्र की हो तथा भारतीय संप्रभुता से संबद्ध हो। भारत ने ओआरओबी का बहिष्कार कर दिया, यह इसका ज्वलंत उदाहरण है। भारत के साथ सैन्य संघर्ष एशिया में चीन की प्रभुत्वशाली भूमिका का निश्चित तौर पर अंत कर देगा। चीन अपने महत्वाकांक्षी सपने को सिर्फ तभी हासिल कर सकता है, जब वह भारत के साथ सकारात्मक तरीके से पेश आए। ऐसे में भारत-चीन में युद्ध की कोई संभावना नहीं है।


युद्ध होने पर भारत का ही पलड़ा भारी

तुलनात्मक तौर पर भारत चीन के समक्ष भले ही कमजोर लगता है, परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है। चीनी सेना ने वियतनाम युद्ध के बाद किसी युद्ध में भाग नहीं लिया है। जबकि भारतीय सेना सदैव पाकिस्तान सीमा पर अघोषित युद्ध से संघर्षरत ही रहती है। विशेष कर हिमालयी सरहदों में चीन की इतनी काबिलियत नहीं है कि वह भारत का मुकाबला कर सके। भारत और चीन बॉर्डर की भौगोलिक स्थिति भारत के पक्ष में है। जंग होने पर चीनी विमानों को तिब्बत के ऊँचे पठार से उड़ान भरनी होगी। ऐसे में न तो चीनी विमानों में ज्यादा विस्फोटक लादे जा सकते हैं और न ही ज्यादा ईंधन भरा जा सकता है। चीनी वायुसेना विमानों में हवा में ईंधन भरने में भी उतनी सक्षम नहीं है। युद्ध की स्थिति में चीन के जे-11 और जे-10 विमान चोंग डू सैन्य क्षेत्र से उड़ान भरेंगे। वहीं भारत ने असम के तेजपुर में सुखोई 30 का ठोस बेस बनाया है। युद्ध की स्थिति में विमान यहाँ से तेजी से उड़ान भर सकेंगे। चीन के पास भारत से ज्यादा लड़ाकू विमान हैं लेकिन भारतीय लड़ाकू विमान सुखोई 30एमआई का उसके पास कोई तोड़ नहीं है। यह चीन के सुखोई 30 एमकेएम से काफी ताकतवर है। भारतीय सुखोई 30 एमआई एक साथ 30 निशाने साध सकता है, जबकि चीनी सुखोई एक साथ केवल दो निशाने साध सकता है।

एक अति महत्वपूर्ण बात यह भी है कि चीन की जीडीपी एवं डिफेंस में जितनी चीजें गिनी जाती हैं, हमारे यहां के डिफेंस सेक्टर में नहीं गिनी जाती हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय सुरक्षा हित में ही काम करती हैं। जैसे, हमारे जितने भी अर्धसैनिक बल हैं, उन सबको जोड़ लें, तो वे सेना के बराबर हैं। इस तरह हमारी आधी सेना तो गृह मंत्रालय के ही अधीन है। भारत-चीन सीमा पर तैनात भारत-तिब्बत सीमा पुलिस भी अर्धसैनिक बल ही है।

भारत ने रूस के साथ मिलकर ब्रह्मोस बनाया है। 952 मीटर/सेकेण्ड की रफ्तार से चलने वाली ब्रह्मोस चीन के रडारों को मात देकर सटीक निशाना लगाने में पूर्णत: सक्षम है। ब्रह्मोस का उत्पादन भारत में ही होने के कारण युद्ध में इसके सप्लाई बनी रहेगी। वहीं चीन के पास मौजूद बैलेस्टिक मिसाइल DF-11, DF-15, DF-21 का भारत के पास कोई तोड़ नहीं है। इसके माध्यम से चीन भारत के उत्तर भारतीय शहरों को तबाह कर सकता है। हालांकि इसके जवाब में भारत के पास भी बीजिंग तक मारक क्षमता रखने वाली अग्नि मिसाइलें हैं। ऐसे में चीन युद्ध की शुरुआत में ही इसे मिसाइल युद्ध बनाने से बचेगा।

इसके अतिरिक्त भारत की स्थिति हिंद महासागर में काफी मजबूत है। भारतीय नौसेना बड़ी आसानी से यूरोप, मध्यपूर्व और अफ्रीका के साथ चीन के रास्ते की नाकेबंदी कर सकती है। चीन 87% कच्चा तेल इसी रास्ते आयात करता है। आईएनएस विक्रमादित्य की अगुवाई में भारतीय नौसेना इस नाकाबंदी को और मजबूत कर सकती है। भारत के पास स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएसएफ) नाम का लड़ाकू दस्ता है। यह तिब्बत में घुसकर नुकसान करने की स्थिति में होगा। तिब्बती शरणार्थियों के इस गोपनीय दस्ते के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। यह सीधे भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ के अधीन है। स्षष्ट है कि आँकड़ों में कमजोर दिखने के बावजूद भारत की स्थिति मजबूत है। वैसे भी युद्ध सिर्फ हथियारों से नहीं जीता जाता है, बल्कि बुलंद हौसलों के साथ किसी भी जंग को भारतीय सेना जीतने में सक्षम है।

चीन ने इस संपूर्ण प्रकरण में न केवल भारत पर दबाव बनाने का प्रयत्न किया, अपितु भूटान जैसे छोटे देश के आत्मनिर्णय के हनन के भी बेबुनियाद आरोप लगाए। चीन ने स्वयं 1988 और 1998 के समझौते में डोकलाम को भूटान का हिस्सा माना था। भूटान ने भी चीन के इन आरोपों को खारिज कर दिया। भारत-भूटान के बीच राष्ट्रीय सुरक्षा कायम रखने की संधि है। भारत-भूटान में 2007 में संधि हुई थी कि एक दूसरे की मदद करेंगे। इसी के तहत भारतीय सेना भूटान की मदद कर रही है।

चीन को एक तरह से भारत ने उसी की रणनीति से मात दे दी है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री ने चीन को घेरने के लिए वियतनाम से लेकर अमेरिका और इजराइल तक का दौरा किया। इसके लिए प्रधानमंत्री मंगोलिया भी गए। जी-20 समूह बैठक के दौरान पीएम नरेन्द्र मोदी ने एशिया के तीन ऐसे देशों के प्रमुखों से मुलाकात की है, जो चीन के साम्राज्यवादी नीतियों से पीड़ित हैं। इसमें जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-ईन और वियतनाम के प्रधानमंत्री उयेन शुआन फुक से प्रधानमंत्री मोदी ने मुलाकात की है। चीन के भारत पर भड़कने की वजह यह भी है कि जो कदम उसने भारत को घेरने के लिए उठाए, वही कदम अब भारत ने भी उठाए हैं। भारत, चीन के दुश्मन देशों के साथ जिस तरह समझौता कर रहा है, वह उसके (चीन) लिए और भी ज्यादा घातक साबित हो सकते हैं।

इस बीच म्यांमार के आर्मी चीफ सीनियर जनरल मिन ओंग ह्वाइंग भारत की 8 दिवसीय यात्रा पर हैं। 14 जुलाई को उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री मोदी और रक्षा मंत्री अरुण जेटली से होगी। भारत चीन की चुनौती से निपटने के लिए म्यांमार को सैन्य आपूर्ति जारी रखेगा। सोमवार से गुरुवार तक वियतनाम के उप प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री फाम बिन मिन भारत आये थे। भारत चीन के विरोधी वियतनाम को अब तक सैन्य प्रशिक्षण दे रहा है, लेकिन अब ब्रह्मोस और आकाश मिसाइल भी देने जा रहा है। भारत-वियतनाम संबंध के नवीन आयाम का ही प्रतिफल है कि चीन की तमाम आपत्तियों के बावजूद वियतनाम ने दक्षिण चीन सागर में भारतीय कंपनी ओएनजीसी को दिए गए तेल ब्लॉक की अवधि बढ़ा दी है।

चीन के साथ सीमा पर बढ़ रहे तनाव के बीच भारत, जापान और अमेरिका हिंद महासागर में सबसे बड़ा नौ सैनिक अभ्यास 10 जुलाई से शुरू कर रहे हैं। नौसेना के "मालाबार युद्धाभ्यास" में भारत का विमानवाहक पोत आईएनएस विक्रमादित्य, जापान का सबसे बड़ा जंगी जहाज जेएस इजुमो और अमेरिका का सुपर कैरियर निमित्ज हिस्सा लेगा। इसके अतिरिक्त वियतनाम, इंडोनेशिया और थाइलैंड के साथ भी भारत के नए सैन्य अभ्यास की तैयारी जोर-शोर से चल रही है।

प्रधानमंत्री मोदी जी ने अमेरिका एवं इजराइल की सफल यात्रा के बाद "अमेरिका-इजराइल-भारत" के नए गठजोड़ को जन्म दिया, जिससे चीन और पाकिस्तान को गहरा झटका लगा है। वहीं दूसरी ओर अपनी रूस यात्रा के दौरान उन्होंने चीन के "रूस-चीन-पाकिस्तान" गठजोड़ में सेंध लगा दी है। इसके अतिरिक्त भारत चीन को घेरने के लिए लिए लुक ईस्ट नीति को नई धार भी दे रहा है। आसियान के भारत से संबंधों के 25 वर्ष पूरा होने के अवसर पर विदेश मंत्रालय आसियान के सभी 10 देशों के राष्ट्रप्रमुखों को 26 जनवरी 2018 के गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित कर रहा है। अगर ऐसा हुआ तो यह पहली बार होगा कि गणतंत्र दिवस के मौके पर एक साथ इतने सारे मुख्य अतिथि के रूप में मेहमान होंगे। गणतंत्र दिवस की परेड राजपथ पर भारत की सैन्य क्षमता को भी प्रदर्शित करती है। सरकार का कहना है कि जापान पर जोर देते हुए आसियान देशों को एक्ट ईस्ट नीति का आधार स्तंभ बनाया जा सकता है। उत्तर कोरिया और दक्षिण चीन सागर विवाद में चीन काफी घिरा था, ऐसे में भारत-चीन सीमा विवाद में चीन वास्तव में अपने ही चक्रव्यूह में बुरी तरह फँस चुका है।

राहुल लाल

(लेखक कूटनीतिक मामलों के विश्लेषक हैं।)

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