विपक्षी गठबंधन का हवाई किला इतनी जल्दी ढहने की उम्मीद किसी को नहीं थी

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भारतीय राजनीति का इतिहास खंगालें तो पिछले 75 वर्षों में न जाने कितने गठबंधन बने और बिखरे, और पुन: बने। चूंकि विपक्ष की नियति टूटने की है, लिहाजा बार-बार गठबंधन करना पड़ता है। यह नियति हम जनता पार्टी के दौर से देखते आ रहे हैं।

इंडी गठबंधन के बारे में राजनीति की समझ रखने वाले अधिकतर व्यक्तियों के अनुमान सही साबित हुए। गठबंधन की पहली बैठक के बाद से ही उसके भविष्य के बारे में जो कुछ कहा जा रहा था, वो शब्दशः धरती पर उतरता दिख रहा है। वास्तव में, इंडी नामक विपक्षी गठबंधन में चूंकि वैचारिक साम्यता नहीं है इसीलिए इसकी एकजुटता प्रारंभ से ही संदिग्ध रही है। उससे जुड़े दल मोदी विरोध पर तो एकमत हैं किंतु आपसी विश्वास नजर नहीं आने से एक कदम आगे, दो कदम पीछे वाली स्थिति बनी हुई है। एक तरफ तो भाजपा अपनी व्यूह रचना मजबूत करती जा रही है वहीं विपक्षी दलों में सीटों के बंटवारे की गुत्थी उलझती जा रही है। सीट के बंटवारे की वेला समीप आते ही, गठबंधन तिनकों की तरह बिखरता जा रहा है।  

भारतीय राजनीति का इतिहास खंगालें तो पिछले 75 वर्षों में न जाने कितने गठबंधन बने और बिखरे, और पुन: बने। चूंकि विपक्ष की नियति टूटने की है, लिहाजा बार-बार गठबंधन करना पड़ता है। यह नियति हम जनता पार्टी के दौर से देखते आ रहे हैं। 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के गठन के बाद से हर बीतते वर्ष के साथ विपक्ष की राजनीति की कांति लगातार प्रभावहीन हो रही है। मोदी सरकार के नौ वर्षों के कामकाज के बाद विपक्ष ने बड़ा साहस और शक्ति जुटाकर इंडिया गठबंधन का गठन किया था। गठबंधन के बाद विपक्ष ने मीडिया और प्रचार तंत्र के माध्यमों से ऐसा वातावरण और संदेश देने का काम किया था कि इस गठबंधन के सामने भाजपानीत एनडीए गठबंधन टिक नहीं पाएगा। लेकिन गठबंधन की पहली बैठक के समय से ही जिस तरह की चालाकी और व्यवहार गठबंधन में शामिल घटक दलों के नेता एक दूसरे के साथ कर रहे थे, उससे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इस गठबंधन की आयु दीर्घ नहीं होगी। लेकिन इतनी छोटी होगी कि वो चुनाव से पहले ही बिखर जाएगा, इसकी उम्मीद तो किसी को भी नहीं थी।

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विपक्षी गठबंधन अपने अस्तित्व के लगभग सात माह के दौरान चाय-नाश्ते पर बैठकें तो कर सका, लेकिन सीटों के बंटवारे, सचिवालय, संयोजक, साझा न्यूनतम कार्यक्रम, साझा नारा, ध्वज आदि पर आज तक सहमत नहीं हो सका है। अब तो अलगाव की नौबत भी आ गई है। बंगाल के अलावा, पंजाब की घोषणा भी अलगाववादी है। बिहार से भी जो समाचार आ रहे हैं, उनके मुताबिक नीतीश कुमार इंडिया गठबंधन का साथ छोड़कर एनडीए का हिस्सा बन सकते हैं। विपक्ष के सामने चुनौती है कि कैसे भाजपा को लगातार तीसरी बार चुनाव जीतने से रोका जाए और तमाम सर्वे कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। ऐसी स्थिति में मोदी का मुकाबला कैसे होगा ये अहम प्रश्न है?

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने तृणमूल कांग्रेस और पंजाब में भगवंत मान ने आम आदमी पार्टी  की ओर से घोषणाएं की हैं कि वे अकेले ही सभी सीटों पर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। कांग्रेस के साथ कोई गठबंधन नहीं होगा। अलबत्ता उन्होंने ‘इंडिया’ का हिस्सा बने रहने की भी घोषणाएं की हैं। अपने प्रभाव क्षेत्रों के बाहर गठबंधन के मायने क्या हैं? यदि ये घोषणाएं ‘अंतिम’ हैं, तो भाजपा की चुनावी संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ममता और भगवंत मान दोनों ही अपने-अपने राज्य के मुख्यमंत्री हैं। आश्चर्य यह है कि बंगाल में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, के प्रति अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते रहे हैं। वह छुटभैया नेता नहीं हैं, बल्कि लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता हैं। वह ममता बनर्जी को ‘अवसरवादी नेता’ करार देते रहे हैं और बार-बार बयान देते हैं कि ममता कांग्रेस की कृपा और मदद से ही पहली बार सत्ता में आई थीं। कांग्रेस अकेले ही चुनाव लड़ने में सक्षम है।

ममता ‘इंडिया’ की भीतरी राजनीति से क्षुब्ध थीं। उनके प्रत्येक प्रस्ताव को खारिज किया गया। गठबंधन में वाममोर्चे के नेताओं का प्रभाव ज्यादा है और वे हरेक बैठक को ‘तारपीडो’ करते रहे हैं। ममता का आरोप है कि राज्य में कांग्रेस की रैलियां की जा रही हैं। उनके खिलाफ ज़हर उगला जा रहा है। राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ की न तो उन्हें जानकारी दी गई और न ही कोई आमंत्रण मिला। बंगाल में ‘न्याय यात्रा’ और राहुल गांधी के जो पोस्टर लगाए गए थे, ममता की घोषणा के बाद उन्हें फाड़ना शुरू कर दिया गया। दोनों दलों के बीच विषैला अलगाव इस सीमा तक पहुंच चुका है। अंतत: ममता ने फैसला किया कि उनकी तृणमूल कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस के साथ, कोई गठबंधन नहीं करेगी और सभी 42 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी।

हालांकि कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने बयान देकर पार्टी का नरम रुख जताया कि ममता के बिना ‘इंडिया’ गठबंधन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। बहरहाल, तृणमूल कांग्रेस बंगाल की सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत है। 2019 के आम चुनाव में 43 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल कर उसके 22 सांसद जीते थे, जबकि कांग्रेस के 5.5 फीसदी वोट के साथ मात्र 2 सांसद ही संसद तक पहुंच पाए थे। वाममोर्चे को करीब 7.5 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन सांसद के तौर पर ‘शून्य’ ही नसीब हुआ। भाजपा को 40 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और उसके पहली बार 18 सांसद चुने गए।

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा है कि पंजाब के सीटों पर किसी से समझौता नहीं होगा। आम आदमी पार्टी ने पंजाब में 13 लोकसभा सीटों के लिए करीब 40 उम्मीदवार शार्ट लिस्ट किए हैं। आम आदमी पार्टी 13 लोकसभा सीटों के लिए उम्मीदवारों के लिए सर्वे करवा रही है। कांग्रेस ने साल 2019 में राज्य में आठ लोकसभा सीटें जीती थीं, जबकि आप ने केवल एक सीट जीती थी। वहीं 2022 के पंजाब विधानसभा चुनाव में आप ने पंजाब में 92 सीटें जीतीं, जबकी 2017 में उसके 20 उम्मीदवार जीते थे। उसका वोट शेयर बढ़कर 42.4 प्रतिशत हो गया था। इसी के साथ कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी। कांग्रेस को सिर्फ 18 सीटें मिली थीं।

बिहार में अटकलें तेज़ हैं कि मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड प्रमुख नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस के साथ महागठबंधन को छोड़कर एक बार फिर एनडीए में जा सकते हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने जेडीयू और लोकजनशक्ति पार्टी के साथ गठबंधन करके 54.40 प्रतिशत वोट हासिल कर बिहार की 39 लोकसभा सीट जीती थीं। इस दौरान एनडीए को मिले 54.40 प्रतिशत मत में 22.3 फीसदी वोट नीतीश की पार्टी जेडीयू का था। जबकि महागठबंधन का वोट शेयर 31.40 प्रतिशत था। जेडीयू को 2019 लोकसभा चुनाव में 17 में से 16 सीटों पर जीत मिली थी। सर्वे बता रहे हैं कि जेडीयू को इस बार ऐसे नतीजे नहीं मिलने वाले हैं। नीतीश को लगता है कि अगर उन्हें ज्यादा सीटें जीतनी हैं तो पाला बदलना पड़ेगा। वह इस बात को भलीभांति जानते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर खुलने, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और उनकी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं की वजह से बीजेपी को 2024 में जीत मिल सकती है।

उत्तर प्रदेश में अभी तक विपक्षी गठबंधन के साथियों में यह तय नहीं हो सका है कि किसे कितनी सीटें मिलेंगी। राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ने 20 सीटों की मांग की है लेकिन समाजवादी पार्टी को यह मांग जायज नहीं लग रही है। दोनों दलों के नेताओं के बीच सीट बंटवारे को लेकर बैठक हो चुकी है। इस बीच सपा ने राष्ट्रीय लोकदल के साथ सात सीटों को लेकर समझौता की घोषणा कर दी है। अभी सीटों के नाम सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। पिछली बार 2019 में हुए चुनाव में आंकड़ों पर गौर करें तो बीजेपी के खाते में कुल वोट का 49.56 प्रतिशत गया था। वहीं बसपा को 19.26, सपा को 17.96 और कांग्रेस को 6.31 प्रतिशत वोट हासिल हुआ था। हालांकि सपा और बसपा एक साथ मिलकर चुनाव मैदान में उतरे थे। लेकिन चुनाव के बाद फिर से दोनों दलों के बीच खटास आ गई थी।

ऐसा लगता है इंडी के बाकी घटक ये जान गए हैं कि कांग्रेस नीति और नेतृत्व की दृष्टि से खस्ताहाल में है। ऐसे में वे उसके साथ डूबने की बजाय खुद का बचाव करने की रणनीति पर आगे बढ़ रहे हैं। वहीं जो पार्टी अपने राज्य में मजबूत है वो वहां कांग्रेस को भाव देने के मूड में नहीं है। ये भी लगता है कि राहुल की न्याय यात्रा से भी गठबंधन के सदस्य नाराज हैं। उन्हें लगता है कि इस समय गठबंधन का सामूहिक शक्ति प्रदर्शन ज्यादा असरकारक साबित होता। लेकिन कांग्रेस ने बिना सहयोगियों को विश्वास में लिए ही राहुल की यात्रा शुरू कर दी। एक तरफ जहां भाजपा जनवरी के अंत तक 2019 में हारी हुई लोकसभा सीटों पर प्रत्याशी घोषित करने का संकेत दे रही है तब कांग्रेस की शक्ति और संसाधन इस यात्रा के प्रबंधन में खर्च कर रही है। होना तो ये चाहिए ऐसे समय बजाय यात्रा के राहुल गठबंधन के सदस्यों के बीच सामंजस्य बनाकर सीट बंटवारे का आधार तय करते हुए अपने नेतृत्व के प्रति उनमें भरोसा पैदा करते। लेकिन ऐसा लगता है न तो वे और न ही उनकी पार्टी दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ पा रही है।

- डॉ. आशीष वशिष्ठ

(लेखक स्वतंत्र व वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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