चुनावों के समय ही महिलाओं को दिखाया जाता है 33 प्रतिशत आरक्षण का सपना

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महिलाओं के सशक्तिकरण की दलीलें देना और हकीकत में उनको राजनीतिक तौर पर मजबूती देने में कितना फर्क है, यह भाजपा−कांग्रेस की कलई खोलने के लिए काफी है। दोनों ही दल गाहे−बगाहे महिला हितों की पैरवी करते नजर आते हैं।

बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 33 प्रतिशत सीटें देने की घोषणा की पहल करके भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को आईना दिखा दिया। इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने महिलाओं को स्वघोषित आरक्षण देकर न सिर्फ महिलाओं के प्रबल पक्षधर होने का दावा मजबूत कर लिया बल्कि दूसरे दलों को भी ऐसा करने के लिए दबाव बढ़ा दिया। हालांकि दूसरे दलों के लिए ऐसी पहल करना आसान नहीं है।

महिलाओं के सशक्तिकरण की दलीलें देना और हकीकत में उनको राजनीतिक तौर पर मजबूती देने में कितना फर्क है, यह भाजपा−कांग्रेस की कलई खोलने के लिए काफी है। दोनों ही दल गाहे−बगाहे महिला हितों की पैरवी करते नजर आते हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनाव में महिलाओं को आरक्षण देने के मुद्दे पर दोनों ही एक जैसी भाषा बोलते रहे हैं। दोनों दल इसकी विफलता के लिए एक−दूसरे को जिम्मेदार ठहराते रहे हैं। महिलाओं के आरक्षण का मसला पिछले करीब दल साल से अधरझूल में है।

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महिलाओं को आरक्षण देने के लिए संविधान के अनुच्छेद 108 में संशोधन करने के लिए वर्ष 2008 में संसद में यह बिल रखा गया। राज्य सभा में यह बिल 9 मार्च 2010 को पारित हो गया। लोकसभा में इस पर बहस तो खूब हुई पर निहित स्वार्थों के वशीभूत राजनीतिक दलों की इस मुद्दे पर एकराय कायम नहीं हो सकी। पन्द्रहवीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह महिला आरक्षण बिल दफन हो गया। इस बिल में रोड़े अटकाने के लिए राजनीतिक दल एक−दूसरे पर ठीकरा फोड़ते रहे हैं। बहुजन समाजवादी पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने जातिगत हित ढूंढ लिए। महिला आरक्षण में भी दलित और पिछड़ी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण देने की मांग की। इससे महिला आरक्षण के मंसूबों पर पानी फिर गया।

दरअसल इस बिल को कानून बनाने में पुरूषवादी अहम् आड़े आ गया। आरक्षण लागू होने का मतलब था कि 33 प्रतिशत पुरूष नेताओं का राजनीति से बिस्तर गोल हो जाना। हालांकि आरक्षण की स्थिति में भी सीटों पर ऐसे नेताओं के परिवारों के ही कब्जे होने की संभावना रहती। इसके बावजूद फायदा महिलाओं का ही होता। बेशक वे राजनीतिक परिवारों से ही क्यों न हों। उनके आने से भी महिलाओं की आवाज को बल मिलता। महिलाएं जितने बेहतर तरीके से महिलाओं के लिए काम कर सकती हैं, भावना के उस स्तर से पुरूष नहीं कर सकते। सतही तौर पर सभी दल आरक्षण के समर्थन में दिखाई दिए किन्तु हकीकत में महिलाओं के हक में यह त्याग करने के लिए तैयार नहीं हुए।

सत्ता को बपौती समझने वाले नेता इसमें आधी आबादी की भागीदारी के लिए सहमत नहीं हो सके। ऐसा भी नहीं है कि राजनीति करना महिलाओं के बस में नहीं हो। जब भी मौका मिला, महिलाओं ने अन्य क्षेत्रों के साथ इसमें भी परचम फहराया है। आश्चर्य की बात यह है कि इस बिल में रोड़े अटकाने का काम ऐसे राजनीतिक दलों ने किया है कि जिनकी मुखिया महिलाएं हैं। बिल के दफन होने के दौरान सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहीं, जबकि मायावती अभी भी बसपा की अध्यक्ष हैं। इससे पहले इंदिरा गांधी लंबे अर्से तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। इसके बावजूद कांग्रेस महिलाओं को आरक्षण देने में कतराती रही है।

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ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने लोकसभा में 33 प्रतिशत महिलाओं को टिकट देने की घोषणा करके भाजपा−कांग्रेस जैसे दलों को बगलें झांकने पर विवश कर दिया है। इन दोनों की दलों की असलियत मतदाताओं और खासकर महिला मतदाताओं के सामने उजागर कर दी। इससे यह भी साबित हो गया कि इन दोनों प्रमुख दलों की कथनी−करनी में कितना अंतर है। भाजपा और कांग्रेस के सुप्रीमो ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि महिलाओं के मामले में क्षेत्रीय दलों के सामने मात खानी पड़ेगी।

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चुनाव सिर पर होने के कारण इस मुद्दे पर भाजपा और कांग्रेस की हालत सांप छछूंदर जैसी हो गई है, जिसे ना तो निगलते बन पा रहा है और ना ही उगलते। यह निश्चित है कि बीजू जनता दल और तृणमूल कांग्रेस इसे चुनावी मुद्दा बनाए बगैर नहीं रहेंगे। कम से कम इन दोनों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के पास इनकी काट खोजने को कोई इलाज नहीं रहेगा। ओडिशा और पश्चिम बंगाल में लोकसभा में पार्टी स्तर पर दिया गया आरक्षण महिला मतदाताओं को प्रभावित किए बगैर नहीं रहेगा। विडम्बना यह है कि हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 40 प्रतिशत महिलाओं को सत्ता में भागीदारी देने की पैरवी की थी। अब राहुल गांधी केंद्र में सत्ता आने पर महिला आरक्षण लागू करने की पेशकश कर रहे हैं। लेकिन लोकसभा में उनकी इतनी ही दावेदारी के मुद्दे से कन्नी काट रहे हैं। इससे जाहिर है कि लोकसभा में कांग्रेस की महिलाओं को आरक्षण देने की मंशा नहीं है। दूसरी ओर, राहुल गांधी ने अब सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की बात भी कही है।

भाजपा अभी तक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। देश में वर्ष 1967 से 2014 तक के लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं की संख्या 7 से 12 प्रतिशत तक बढ़ी है। देश में महिला मतदाताओं की संख्या के मामले में ओडिशा और बिहार शीर्ष पर हैं। सवाल यह भी जब देश में महिला मतदाताओं की संख्या लगभग पुरूषों के बराबर है तब चुनाव में उन्हें आरक्षण का फायदा क्यों नहीं दिया जा सकता है। यह भी निश्चित है कि जब तक महिलाओं को आरक्षण नहीं मिलेगा तब तक सत्ता में भागीदारी की तस्वीर एकतरफा ही रहेगी। उनकी सूरत ए हाल नहीं बदलेगी। अभी तक केवल चुनिंदा परिवारों की महिलाएं ही राजनीति की नुमाइंदगी करती रही हैं। इसमें आम महिलाओं को मौका तभी मिल सकेगा, जब आरक्षण लागू होगा। महिला मतदाताओं के एकजुट नहीं होने का फायदा ही राजनीतिक दल उठाते रहे हैं। उन्हें आरक्षण का झुन्झुना दिखाते रहे हैं। जातिगत आरक्षण का फायदा लेने के लिए जिस तरह जातियों ने लामबंद होकर केंद्र और राज्य सरकारों के घुटने टिकवा दिए, इसी तरह यदि महिलाएं एकजुट होकर एक स्वर में मांग करें तो किसी दल की इतनी हिमाकत नहीं कि उनकी उपेक्षा कर सके। राजनीतिक दलों की नींव बहुत कमजोर होती है। दस−बीस हजार महिलाएं ही यदि मांग कर दें तो दलों की जमीन खिसकते हुए देर नहीं लगेगी। जरूरत महिलाओं को एकजुट होकर अपने हक की लड़ाई लड़ने की है। 

योगेन्द्र योगी

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