कानून सख्त से सख्त बनते गये, पर बाल दुष्कर्म के मामले भी बढ़ते चले गये

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ललित गर्ग । Jul 15 2019 3:54PM

उन कारणों की तह तक जाने की सख्त जरूरत है जिनके चलते निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाए जाने के वांछित नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं। इन कारणों की तह तक जाने का काम खुद सुप्रीम कोर्ट को भी करना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने सक्रियता दिखाते हुए बाल दुष्कर्म एवं नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को कुचलने की बढ़ती घटनाओं का संज्ञान लेकर बिल्कुल सही किया, लेकिन उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि देश को लज्जित करने वाली इन त्रासद घटनाओं के प्रति शासन-प्रशासन के साथ समाज में भी जागरूकता आए। इसमें संदेह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को कुछ आदेश-निर्देश देने मात्र से ऐसे किसी माहौल का निर्माण हो सकेगा जो बाल एवं नारी दुष्कर्मों की घटनाओं को कम करने में प्रभावी सिद्ध हो सके।

चौंका देने वाला किन्तु कटु सत्य तथ्य है कि एक अमानवीय कृत्य जो पूरे राष्ट्र को बार-बार झकझोर रहा है। बाल दुष्कर्म और ऐसी ही अनेक शक्लों में नारी अस्मिता एवं अस्तित्व को धुंधलाने की घटनाएं- जिनमें मासूम बालिकाओं से दुष्कर्म, नारी का दुरुपयोग, उसके साथ अश्लील हरकतें, उसका शोषण, उसकी इज्जत लूटना और हत्या कर देना- मानो आम बात हो गई हो। छोटी बालिकाओं एवं महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सूची रोज बन सकती है। न मालूम कितनी अबोध बालिकाएं एवं महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहेंगी। कब तक अपनी मजबूरी का फायदा उठाने देती रहेंगी। दिन-प्रतिदिन देश के चेहरे पर लगती इस कालिख को कौन पोछेगा? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं, अबोध बाल मन एवं नारी को अपमानित करते हैं।

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सच्चाई तो यही है कि दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाने से कोई लाभ नहीं हुआ है। क्योंकि यह पत्तों को सींचने जैसा है, जब तक जड़ों को नहीं सींचा जायेगा, प्रयास निरर्थक है। उन कारणों की तह तक जाने की सख्त जरूरत है जिनके चलते निर्भया कांड के बाद दुष्कर्म रोधी कानूनों को कठोर बनाए जाने के वांछित नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं। इन कारणों की तह तक जाने का काम खुद सुप्रीम कोर्ट को भी करना होगा, क्योंकि निर्भया कांड के दोषियों को सुनाई गई सजा पर अब तक अमल नहीं हो सका है। कोई नहीं जानता कि देश को दहलाने वाले इस जघन्य कांड के गुनहगारों को फांसी की सजा कब मिलेगी? आखिर जब सुप्रीम कोर्ट ने दो वर्ष पहले फांसी की इस सजा पर मुहर लगा दी थी तो फिर उसे यह देखना चाहिए कि देरी क्यों हो रही है? अगर इस मामले के दोषियों को समय रहते कठोर दंड दे दिया गया होता तो शायद दुष्कर्मियों के मन में भय का संचार होता और आज स्थिति कुछ दूसरी होती। कानूनों को कठोर करने का लाभ तभी है जब उन पर अमल भी किया जाए। अन्यथा कोरे कानून बनाने का क्या लाभ है? सम्पूर्ण मानवीय सोच बदलाव चाहती है और बदलाव का प्रयास निरंतर चलता है। चलता रहेगा। समाज में जो सोच है और जो पनप रही है, वह न्याय के घेरे से बाहर है। सब चाहते हैं, उपदेश देते हैं कि बालिकाओं एवं महिलाओं के साथ अन्याय न हो, शोषण न हो, अत्याचार न हो, उनकी अस्मिता को न नोंचा जाये। अगर इस तरह के अन्याय को बढ़ावा नहीं मिले और उसका प्रतिकार होता रहे तो निश्चित ही एक सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ होगी। लेकिन इसके लिये प्रयास करने होंगे, वातावरण बनाना होगा।

पिछले कुछ दिनों में देश ने कुछ और ऐसे मौके दिए जब अहसास हुआ कि भ्रूण में किसी तरह अस्तित्व बच भी जाए तो दुनिया के पास उसके साथ और भी बहुत कुछ है बुरा करने के लिए। वहशी एवं दरिन्दे लोग ही बाल दुष्कर्म नहीं करते, बालिकाओं को नहीं नोचते, समाज के तथाकथित ठेकेदार कहे जाने वाले लोग और पंचायतें भी नारी की स्वतंत्रता एवं अस्मिता को कुचलने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही हैं, स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज बन रहा है, जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक, अमानवीय एवं त्रासदीपूर्ण घटनाएं बार-बार हम सबको शर्मसार कर रही हैं। बालिकाओं एवं नारी के साथ नाइंसाफी देश के किसी भी हिस्से में क्यों न हुई हो- यह वक्त इन स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है, उस अहं के शोधन करने का है जिसमें श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेल कर अपना अस्तित्व स्थापित करना चाहता है।

राजधानी दिल्ली बलात्कार की राजधानी बनती जा रही है, बलात्कार, छेड़खानी और भ्रूण हत्या, दहेज की धधकती आग में भस्म होती नारी के साथ-साथ अबोध एवं मासूम बालिकाएं भी इन क्रूर एवं अमानवीय घटनाओं की शिकार हो रही हैं। बीते कुछ सालों में विभिन्न राज्यों ने भी बच्चियों से दुष्कर्म के मामले में फांसी की सजा का प्रावधान बनाया है और कुछ मामलों में दोषियों को फांसी की सजा सुनाई भी गई है, लेकिन उस पर अमल के नाम पर सन्नाटा ही पसरा है। आखिर ऐसे कानून किस काम के जिन पर अमल ही न हो?

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देश में जितने अधिक एवं कठोर कानून बनते हैं, उतना ही उनका मखौल बनता है। आज यह कहना कठिन है कि दुष्कर्मी तत्वों के मन में कठोर सजा का कहीं कोई डर है। शायद इसी कारण दुष्कर्म के मामले थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। यह सही है कि इस बात को देखा जाना चाहिए कि कठोर कानूनों का दुरुपयोग न होने पाए, लेकिन इसका भी कोई मतलब नहीं कि उन पर अमल ही न हो। निःसंदेह इस पर भी ध्यान देना होगा कि कठोर कानून एक सीमा तक ही प्रभावी सिद्ध होते हैं। दुष्कर्म और खासकर बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म के बढ़ते मामले स्वस्थ समाज की निशानी नहीं। ऐसे मामले यही बताते हैं कि विकृति बढ़ती चली जा रही है। इस विकृति को कठोर कानूनों के जरिये भी रोकने की जरूरत है लेकिन इससे ज्यादा जरूरी है कि समाज में ऐसी जागृति लाई जाये कि लोगों का मन बदले। बेहतर समाज के निर्माण में घर-परिवार, शिक्षा संस्थानों के साथ ही समाज की भी अहम भूमिका होती है। इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्या इस भूमिका का निर्वाह सही तरह किया जा रहा है?

एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टर मान्यता वाले औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के अंतिम छोर पर लड़ाई हार जाती है। आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पृष्ठ चाहिए। पूरे पृष्ठ, जितने पुरुषों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पृष्ठों को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायतें’ घेरे बैठे हैं। हमें उन आदतों, वृत्तियों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़ कर हम उस ढलान में उतर गये जहां रफ्तार तेज है और विवेक का नियंत्रण खोते चले जा रहे हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध और अत्याचार। हमें जीने के प्रदूषित एवं विकृत हो चुके तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को जहर के घूंट पीने को विवश होना पड़ता है। यह शोचनीय है। अत्यंत शोचनीय है। खतरे की स्थिति तक शोचनीय है कि आज तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला होता जा रहा है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है। यह भयानक है।

समाज के किसी भी एक हिस्से में कहीं कुछ जीवन मूल्यों, सामाजिक परिवेश जीवन आदर्शों के विरुद्ध होता है तो हमें यह सोच कर चुप नहीं रहना चाहिए कि हमें क्या? गलत देखकर चुप रह जाना भी अपराध है। इसलिये बुराइयों से पलायन नहीं, उनका परिष्कार करना सीखें। चिनगारी को छोटी समझ कर दावानल की संभावना को नकार देने वाला जीवन कभी सुरक्षा नहीं पा सकता। बुराई कहीं भी हो, स्वयं में या समाज, परिवार अथवा देश में तत्काल हमें परिष्कार करना चाहिए। क्योंकि एक स्वस्थ्य समाज, स्वस्थ्य राष्ट्र स्वस्थ्य जीवन की पहचान बनता है। हमारे देश की सामाजिक एवं पारिवारिक सोच को समझना होगा कि नारी की असली सुरक्षा उसका आत्म-विश्वास है। जरूरत महिलाओं को बेड़ियों में जकड़ने की नहीं बल्कि उनकी निजी स्वतंत्रता का सम्मान रखने की है क्योंकि यह वही भूमि है जहां नारी के अपमान की घटना ने एक सम्पूर्ण महाभारत युद्ध की संरचना की और पूरे कौरव वंश का विनाश हुआ। 

-ललित गर्ग

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