मजबूत बनने की चाह में और कमजोर हो गये पायलट, वाकई गहलोत से मुकाबले के लायक नहीं

sachin pilot ashok gehlot
ललित गर्ग । Aug 13 2020 1:17PM

राजस्थान के इस संकट की जड़ में केवल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री पद से हटाए गए सचिन पायलट के बीच के मतभेद ही सामने नहीं आए हैं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व की निर्णयहीनता एवं नेतृत्व की अपरिपक्वता भी सामने आयी है।

राजस्थान में कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार के संकट के बादल अब छंटते हुए दिखाई दे रहे हैं। अशोक गहलोत एवं सचिन पायलट के आपसी मतभेद एवं मनभेद से उपजे राजनीतिक द्वंद्व ने कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की निर्णयहीनता के साथ-साथ उसकी अचिन्तन एवं अपरिपक्व सोच से जुड़े अनेक प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिये हैं। राहुल गांधी से मुलाकात एवं प्रियंका गांधी की सूझबूझ से भले ही बागी कांग्रेसी नेता सचिन पायलट की घर वापसी हो जाये, लेकिन इससे सचिन के राजनीतिक कौशल एवं भविष्य पर भी धुंधलके छाये हैं। ऐसा भी नहीं था कि सचिन के पास और कोई रास्ता ही नहीं बचा था लेकिन उन्होंने दूरगामी सोच एवं होश से काम नहीं लिया था, यदि वे ऐसा करते तो भविष्य की राजनीति में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका बनती। इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम का एक बड़ा सच यही सामने आया है कि पायलट अभी राजनीति में कच्चे खिलाड़ी हैं। वह उसी पेड़ की डाल को काटने चले थे जिस पर खुद बैठे थे। यहां एक बार फिर कद्दावर नेता के रूप में गहलोत उभरे हैं। गहलोत समय के अनुसार राजनीतिक पांसा फेंकने के सिद्धहस्त कलाकार साबित हुए और विपरीत परिस्थितियों में भी उनके कदम नहीं डगमगाये। आखिर गहलोत जैसे नेता को क्यों नहीं कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की कमान सौंपी जाती?

राजस्थान के इस संकट की जड़ में केवल मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री पद से हटाए गए सचिन पायलट के बीच के मतभेद ही सामने नहीं आए हैं, बल्कि कांग्रेस नेतृत्व की निर्णयहीनता एवं नेतृत्व की अपरिपक्वता भी सामने आयी है। हर बार की तरह इस बार भी पार्टी का नेतृत्व परिस्थितियों एवं हालातों को दोषी ठहरा कर इस सबका ठीकरा भाजपा के सिर पर फोड़ता नजर आया। सोचनीय प्रश्न है कि आखिर पार्टी प्रतिकूलताओं से लड़ने के लिये ईमानदार प्रयत्न कब करेगी? कब वह निर्णय लेने की पात्रता को विकसित करेंगी? इसी निर्णयहीनता के चलते दोनों नेताओं के मतभेद इस हद तक बढ़े और गतिरोध जरूरत से ज्यादा लंबा खिंचा। कांग्रेस नेतृत्व किस कदर निर्णयहीनता से ग्रस्त है, इसका प्रमाण राजस्थान में इतने लम्बे समय तक अनिर्णय की स्थिति का बना रहना है।

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इससे भी बड़ा निर्णयहीनता का उदाहरण यह है कि एक सौ चालीस साल पुराना राजनीतिक दल अपना अध्यक्ष तक नहीं चुन पा रहा है। सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बने एक वर्ष हो गया है और फिर भी इसका फैसला नहीं हो पाया है कि अगला अध्यक्ष कौन बनेगा और कब? एक साल बाद भी कांग्रेस के अगले अध्यक्ष के बारे में कोई फैसला न हो पाना यही बताता है कि पार्टी में निर्णयहीनता किस कदर हावी है। वास्तव में, कांग्रेस में संकट केवल निर्णयहीनता का ही नहीं है, बल्कि नेतृत्व का भी है। पार्टी के लगातार कमजोर होते जाने में कांग्रेस नेतृत्व की खोटी नीयत, अपरिपक्व सोच, पारिवारिक मोह, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय नीतियों एवं मुद्दों का नितांत अभाव आदि प्रमुख कारण है। यदि किसी दल में नेतृत्व का टोटा हो, नीयत में कपट हो, नेतृत्व क्षमता क्षीण हो, निर्णायक क्षमता पर ग्रहण लगा हो एवं नीतियों में भारी घालमेल हो तो स्वाभाविक रूप से राजस्थान जैसे संकटों के उभरने का सिलसिला बना ही रहेगा। एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि एक लोकतांत्रिक राष्ट्र की जनता कब तक एक प्रमुख राजनीतिक दल के पारिवारिक परिवेश को मान्यता देती रहेगी? कांग्रेस में नेतृत्व का मापदंड केवल नेहरू-गांधी परिवार की क्षमता तक कब तक सीमित रहेगा? किसी प्रतिभावान, क्षमतावान एवं योग्य नेता में पार्टी नेतृत्व की प्रचंड संभावना दिखती है तो उसे क्यों कमजोर कर दिया जाता है? क्यों उसके पर कतर दिये जाते हैं? क्यों उसके सामने पार्टी छोड़कर जाने की स्थितियां खड़ी कर दी जाती हैं? इन त्रासद एवं विकट स्थितियों में पार्टी कब और कैसे मजबूत होगी? कांग्रेस को लोगों के विश्वास का उपभोक्ता नहीं अपितु संरक्षक बनना चाहिए।

कांग्रेस के सशक्त एवं कद्दावर नेता माने जाने वाले माधवराव सिंधिया एवं राजेश पायलट के साथ क्या हुआ, सर्वविदित है। दीवार पर लिखी इबारत की भांति पार्टी के कड़वे सत्य का प्रकटीकरण है कि पार्टी में जो भी नेहरू-गांधी परिवार के बाहर का व्यक्ति नेतृत्व के लिये सामने आयेगा, उसका हश्र यही होगा। लेकिन प्रश्न है कि इस तरह आम-जनता के बीच कैसे अपनी स्वीकार्यता कायम रखी जा सकती है? इससे तो पार्टी का दिन-ब-दिन क्षरण ही होगा। इन्हीं स्थितियों का परिणाम है कि पार्टी लगातार कमजोर ही नहीं हो रही है, अनेक अवसरों पर हास्यास्पद एवं बिखरावमूलक त्रासद स्थितियों का कारण भी बन रही है। ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस छोड़ना एवं सचिन पायलट की नाराजगी इसके उदाहरण हैं।

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राजस्थान में सचिन पायलट ने जिन ऊंचे सपनों के साथ अपने विद्रोह को प्रकट किया, उस तरह की राजनीतिक परिपक्वता एवं जिजीविषा का उनमें सर्वथा अभाव रहा। इससे ऐसा प्रतीत हुआ मानो बिना पूरी तैयारी एवं आकलन के गलत समय पर गलत निर्णय लेकर सचिन ने अपनी छवि को धुंधलाया है। जिनके खुद के पांव जमीन पर नहीं वे युद्ध की धमकी दे रहे हैं, वाली स्थिति ने सचिन को अपने लोगों के बीच भी कमजोर बना दिया है। यही कारण है कि कानून की विभिन्न धाराओं की तलवार जब सचिन पायलट के विद्रोही गुट पर लटकनी शुरू हुई तो इन्हें अपनी सदस्यता बरकरार रखने के लिए राहुल गांधी की शरण में जाने के अलावा अन्य कोई रास्ता नहीं सुझा। सचिन के साथ केवल 18 विधायक हैं जो मौजूदा कांग्रेस विधानमंडलीय दल की शक्ति के छठे भाग के बराबर हैं, साथ ही इतने विधायकों के साथ सचिन भाजपा के विधायकों के साथ मिल कर यदि मध्य प्रदेश जैसे घटनाक्रम को दोहराते तब भी गहलोत सरकार के स्थायित्व पर कोई असर नहीं पड़ता। इसलिए खुद को कमजोर एवं डांवाडोल स्थिति में पाकर उन्हें पुनः अपने घर में वापस जाने की सूझी, परन्तु पिछले डेढ़ महीने में सचिन ने जो करतब किये हैं उससे राज्य में सचिन की, प्रदेश कांग्रेस पार्टी एवं केन्द्रीय नेतृत्व की छवि को भारी धक्का भी लगा है। विशेषतः इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में सर्वाधिक नुकसान सचिन का हुआ है, उनकी छवि अर्श से फर्श पर आ गयी है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में होती हुई दिखाई नहीं देती। यह तो उनके लिये कांग्रेस में रहने भर का जुगाड़ है। इससे न तो सचिन और न ही कांग्रेस पार्टी की राजनीतिक जमीन राजस्थान में मजबूत हुई है। सचिन जैसे उभरते हुए युवा राजनीतिज्ञ व्यक्तित्व के लिये जरूरी है कि वे पद की श्रेष्ठता और दायित्व की ईमानदारी को व्यक्तिगत अहम् से ऊपर समझने की प्रवृत्ति को विकसित कर मर्यादित व्यवहार करना सीखें अन्यथा शतरंज की इस बिसात में यदि प्यादा वज़ीर को पीट ले तो आश्चर्य नहीं। बहुत से लोग काफी समय तक दवा के स्थान पर बीमारी ढोना पसन्द करते हैं पर क्या वे जीते जी नष्ट नहीं हो जाते? सचिन को ही सोचना था कि वे एक नये राजनीतिक मार्ग पर बढ़ें या लगातार दवा के नाम पर बीमारी ढोते रहें? भले ही वे राजस्थान में विपक्षी पार्टी भाजपा के लिए किसी काम के साबित नहीं हुए हों, लेकिन इन अंधेरों के बीच वे कोई नया विकल्प तलाशते तो संभव था देश में एक नया राजनीतिक नेतृत्व उभरता, युवा राजनीति को नया आकाश मिलता।

-ललित गर्ग

(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार) 

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