दल बदलने वालों का नया ठिकाना बन रही है 'समाजवादी पार्टी', अखिलेश यादव का 'जोश हाई'

Akhilesh Yadav
अजय कुमार । Nov 17 2021 9:36AM

एक दल के ज्यादातर बड़े चेहरों का बागी हो जाना पार्टी के जनाधार के लिए भारी नुकसान है। कभी यूपी में सबसे ज्यादा सुरक्षित वोट बैंक वाली पार्टी बसपा कही जाती थी, लेकिन 2016 से बसपा में जो भगदड़ मची है, वो थमने का नाम नहीं ले रही है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां शुरू हो चुकी हैं। हर पार्टी जीत का दावा कर रही है। सभी राजनीतिक दलों के नेता और कार्यकर्ता सड़कों पर अपने-अपने समर्थकों के साथ माहौल बनाने में जुटे हैं। हवा का रूख भांप कर कुछ नेता पाला भी बदल रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी ‘मार’ बहुजन समाज पार्टी (बसपा) पर देखने को मिल रही है। एक-एक कर बसपा के दिग्गज नेता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं, लेकिन इसमें से अधिकांश नेताओं का नया ठौर-ठिकाना समाजवादी पार्टी ही बन रही है। इससे अखिलेश यादव एवं उनके कार्यकर्ताओं का जोश हाई है, वहीं बसपा सुप्रीमों मायावती बिफरी हुई हैं। वह समाजवादी नेताओं को अपने हिसाब से आईना दिखाते हुए यह समझाने में लगी हैं कि सपा उन बसपा नेताओं को गले लगा रही है जिनको उन्होंने उनकी हरकतों के चलते हाशिये पर डाल दिया था। कुछ नेताओं को तो पार्टी से बाहर का रास्ता तक दिखाया दिया गया था। जिस तरह से बसपा नेता पार्टी से किनारा कर रहे हैं, उससे बसपा के वोटर और दलित चिंतक भी हैरान-परेशान हैं। इनको लगता है कि ऐसा ही माहौल रहा तो बसपा के कोर वोटर समझे जाने वाला मतदाता भी नेताओं की तरह दूसरे दलों का दामन थाम सकते हैं। यह बात हवा में नहीं कही जा रही है, बल्कि भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी ने दलित वोटरों को लुभाने के लिए रणनीति बनाकर उसको अमली जामा पहनाना भी शुरू कर दिया है।

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देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में सत्ताधारी भाजपा अपनी लंबित योजनाओं के शिलान्यास और घोषणाओं के जरिए लोगों तक पहुंचने में तो जुटी ही है। इसके अलावा उसके द्वारा दलित वोटरों को भी लुभाने के लिए दलित समाज के महापुरुषों का महिमामंडन करने के साथ उनके नाम पर सड़क और परियोजानाओं के नाम भी रखे जा रहे हैं। वहीं सपा, बसपा, कांग्रेस सहित अन्य दल जनसभाओं, प्रदर्शनों के साथ दलितों के बीच अपनी ताकत बढ़ाने में लगे हैं। इसीलिए दलित उत्पीड़न की छोटी से छोटी घटना को बढ़ा-चढ़ाकर हाय-तौबा मचाई जा रही है।

खैर, सियासत में दल बदल करना नई बात नहीं है, लेकिन एक दल के ज्यादातर बड़े चेहरों का बागी हो जाना पार्टी के जनाधार के लिए भारी नुकसान है। कभी यूपी में सबसे ज्यादा सुरक्षित वोट बैंक वाली पार्टी बसपा कही जाती थी, लेकिन 2016 से बसपा में जो भगदड़ मची है, वो थमने का नाम नहीं ले रही है। बसपा से टूट के बाद बड़े नेताओं ने भाजपा, सपा, कांग्रेस में अपनी जगह बनाई है। बीते विधानसभा चुनाव में कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हुए। बसपा में कई नेता पार्टी से अलग हुए हालांकि दलित वोट बैंक पर मायावती की पकड़ इतनी मजबूत रही कि पार्टी सब चेहरों से हमेशा भारी रही। अब ऐसा नहीं है, बसपा से पहली कतार के सभी नेताओं ने बगावत कर अपना रास्ता बना लिया। बहुजन समाज पार्टी से अलग होने वाले दिग्गज नेताओं के नामों की फेहरिस्त लंबी है। बीते सात सालों में ऐसे पार्टी नेताओं ने मायावती का साथ छोड़ा जिनके जाने से पार्टी का एक धड़ा पूरी तरह से टूट गया। कभी पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दकी, पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, पूर्व मंत्री इंद्र जीत सरोज, पूर्व मंत्री केके गौतम, पूर्व मंत्री आरके चौधरी, पूर्व विधायक गुरु प्रसाद मौर्या, पूर्व विधायक प्रवीन पटेल, पूर्व विधायक दीपक पटेल, पूर्व मंत्री रामअचल राजभर, पूर्व मंत्री लालजी वर्मा, पूर्व सांसद कपिल मुनि करवरिया, पूर्व मंत्री राकेश धर त्रिपाठी, पूर्व मंत्री शिवाकांत ओझा ऐसे सैंकड़ों नाम हैं, जो पार्टी छोड़ गए। बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष आरएस कुशवाहा ने बीते दिनों हाथी की सवारी छोड़कर साइकिल पर चलना मुफीद समझा। उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया है। मुजफ्फरनगर से बहुजन समाज पार्टी के पूर्व सांसद कादिर राणा भी समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवार हो लिए हैं। इन नेताओं ने पार्टी छोड़ते हुए बसपा पर अपने मूल सिद्धांतों से समझौते का आरोप लगाया है। हालांकि बहुत दिनों बाद पार्टी से अलग होने वाले नेताओं ने मायावती पर पैसे की वसूली का आरोप नहीं लगाया। आरएस कुशवाहा बसपा ही नहीं, अपनी बिरादरी के बड़े चेहरे माने जाते थे। 30 साल तक बहुजन समाज पार्टी में काम करने के बाद उन्होंने समाजवादी पार्टी का दामन थाम लिया है। आज की तारीख में बसपा में सतीश चन्द्र मिश्रा को छोड़कर पूरा मंच खाली है। बसपा से अलग हुए ओबीसी और दलित वोटों पर भाजपा और सपा बराबर नजर लगाए हैं।

    

यूपी में ओबीसी और दलित वोट बैंक पर अपनी नजर जमाए भाजपा और संघ भी इस मुहिम में जुटे हैं कि कैसे दलित वोट अपने खेमे में किया जाए। सूत्रों की मानें तो संघ के पिछड़े चेहरों को मैदान में उतार दिया गया है जो गोष्ठियों और जनसंपर्क कर सरकार की योजनाएं समझा रहे हैं। प्रदेश में दलित वोट बैंक लगभग 20 से 22 फीसदी है, जिसको साधने में भाजपा सफल हुई तो आने वाले चुनाव में एक बार फिर उसके लिए सत्ता आसान होगी। भाजपा का दावा रहा है की बीते चुनाव में ओबीसी और दलित वोट बड़े पैमाने में उनके खेमे में गए थे।

बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो वह भी बसपा के कोर वोटबैंक पर निगाह लगाए हुए है। प्रयास यही है कि दलित वोटरों को किसी न किसी तरह अपने पाले में कर लिया जाए। इसके लिए सपा द्वारा नए सिरे से रणनीति बनाई गई है। इसकी शुरुआत सुरक्षित 85 सीटों से की गई है। इन सीटों पर बाबा साहब के सपनों को पूरा करने का संकल्प दिलाया जा रहा है। इसकी जिम्मेदारी कभी कांशीराम के नजदीकी रहे और वर्तमान में सपा में आए पूर्व कैबिनेट मंत्री केके गौतम को सौंपी गई है।

   

सपा की ओर से विभिन्न जातियों पर फोकस करते हुए यात्राएं निकाली जा चुकी हैं। सपा के रणनीतिकार दलित जातियों में बसपा का कोर वोट बैंक रहे जाटव बिरादरी को अपनी विजय यात्रा के लिए जरूरी मानते हैं क्योंकि दलित जातियों में पासी, सोनकर, धोबी आदि जातियां सपा और भाजपा दोनों के साथ रही हैं, लेकिन बसपा के लिए यह अच्छी खबर है कि करीब 12 फीसदी भागीदारी वाली जाटव बिरादरी अभी भी पूरी मजबूती से मायावती के साथ डटी है।

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उधर, समाजवादी पार्टी इसी वोट बैंक में सेंधमारी में फिराक में है। सपा चाहती है कि इस वोट बैंक के अपने पाले में आने से उसकी गठरी भारी होगी। इसी रणनीति के तहत जाटव बिरादरी के नेताओं को जिम्मेदारी सौंपी जा रही है। पहले चरण में प्रदेश की 85 सुरक्षित सीटों पर फोकस किया गया है। इन सीटों की जिम्मेदारी पूर्व कैबिनेट मंत्री केके गौतम को सौंपी गई है। पूर्व मंत्री गौतम कभी बसपा के कैडर प्रशिक्षक रहे हैं। कांशीराम से लेकर मायावती के जमाने में भी उनकी संगठनात्मक हनक रही है। अब वह सपा के साथ हैं। उनके आने से पार्टी को दोहरा फायदा हो रहा है। एक तो वह जाटव बिरादरी से हैं। दूसरी तरफ वह बसपा के काडर रहे हैं। ऐसे में वह दलितों की नब्ज को भी अच्छे से समझते हैं। वह बिना मायावती पर निशाना साधे बाबा साहब भीमराव आंबेडकर के सपने को साकार करने का संकल्प दिला रहे हैं। वह यह भी समझाते हैं कि बदली परिस्थितियों में समाजवादी पार्टी को सत्ता में लाना क्यों जरूरी है? वह सीतापुर जिले के मिश्रिख, फर्रुखाबाद के कायमगंज, कन्नौज, हरदोई के सांडी, रायबरेली के बछरावां, प्रयागराज के कोराव, सोरांव, फतेहपुर के खागा आदि सुरक्षित सीटों पर सम्मेलन कर चुके हैं। हर क्षेत्र में सम्मेलन के बाद वह अपनी टीम के साथ जाटव बिरादरी के कार्यकर्ताओं के घर जाकर चौपाल लगा रहे हैं। इस चौपाल में भी सपा के लिए जाटव बिरादरी का साथ मांगा जा रहा है। फिलहाल यह कसरत कितनी कारगर होगी, यह तो समय बताएगा।

- अजय कुमार

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