वार्ता से अयोध्या मुद्दे का हल संभव, एक और प्रयास करें तो सही
अयोध्या मुद्दे पर आपसी सहमति की जो राह अदालत ने एक बार फिर खोली है देखना होगा उस पर कितने लोग चलने को तैयार होते हैं या फिर यह मुद्दा फिर ''राजनीति'' का शिकार होकर अदालत की चौखट पर वापस पहुंचता है।
देश के ज्वलंत मुद्दों में से एक 'अयोध्या मुद्दा' वैसे तो चुनावों के समय गर्माया जाता रहा है लेकिन यह पहली बार है कि इस बार यह विषय चुनावों के बाद सुर्खियों में आया है। दरअसल उच्चतम न्यायालय ने राम मंदिर मामले में अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि दोनों पक्ष इस मामले को बाहर सुलझाएं क्योंकि यह धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है। उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह एक संवेदनशील और भावनात्मक मुद्दा है और यह बेहतर होगा कि इस मुद्दे को मैत्रीपूर्ण ढंग से सुलझाया जाए। न्यायालय भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी की उस याचिका पर सुनवाई कर रहा था जिसमें स्वामी ने अयोध्या विवाद पर तत्काल सुनवाई की मांग की है। प्रधान न्यायाधीश जेएस खेहर ने यहां तक कहा है कि यदि संबंधित पक्ष उनकी मध्यस्थता चाहते हैं तो वह इस काम के लिए तैयार हैं। न्यायालय ने स्वामी से संबंधित पक्षों से सलाह करने और इस संदर्भ में लिए गए फैसले के बारे में न्यायालय को 31 मार्च को सूचित करने को कहा है जब मामले की अगली सुनवाई होगी।
अब होगा क्या?
बातचीत करने को दोनों पक्ष राजी बताये जा रहे हैं लेकिन पूर्व के अनुभवों को देखते हुए इसका कोई लाभ नहीं होने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ केंद्र सरकार भी चाह रही है कि यह मसला जल्द से जल्द वार्ता से हल हो जाये तो अच्छा है क्योंकि अगले वर्ष जब राज्यसभा में भी भाजपा के पास बहुमत होगा तो राम मंदिर मुद्दे पर आगे बढ़ने का उस पर 'दबाव' होगा। भाजपा के पास पांव पीछे खींचने का कोई बहाना नहीं होगा क्योंकि संसद के दोनों सदनों में उसके पास बहुमत होगा और उत्तर प्रदेश में भी तीन चौथाई बहुमत वाली उसकी सरकार आ गयी है। पहले भाजपा राज्यसभा में बहुमत नहीं होने और उत्तर प्रदेश में अपनी पार्टी की सरकार नहीं होने की दुहाई देते हुए अपनी मजबूरी जताती रही है। भाजपा को पता है कि यदि संसद से कानून बनाकर राम मंदिर बनाया जायेगा तो देश में दो संप्रदायों के बीच मतभेद बढ़ सकता है और हालात खराब हो सकते हैं इसलिए अंदरखाने उसका भी प्रयास है कि राम मंदिर मुद्दा वार्ता से शीघ्र से शीघ्र हल हो जाये। यदि न्यायालय के 'वार्ता' के सुझाव से कोई हल नहीं निकलता है तो इस मामले में रोजाना सुनवाई करने का अदालत से आग्रह किया जा सकता है ताकि जल्द से जल्द हल निकल सके।
दोनों पक्षों को उग्र तेवर कम करने होंगे
इस मुद्दे पर बातचीत करने वाले लोगों के तेवर नरम हों सकें इसके लिए भी सरकार के स्तर पर प्रयास होने चाहिएं। बातचीत से मुद्दा सुलझने की संभावनाओं पर गौर करने से पहले जरा अदालत के सुझाव के बाद आई प्रतिक्रियाओं पर गौर करें- अदालत के इस रुख का जहां भाजपा ने स्वागत किया है वहीं बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने कहा है कि प्रधान न्यायाधीश की मध्यस्थता में वह संवाद करने को तैयार हैं, लेकिन पूर्व के अनुभवों को देखते हुए इस मामले का हल आपसी बातचीत से होना मुमकिन नहीं है। कमेटी ने कहा है कि प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि वह भी इस बातचीत के दौरान मौजूद रहेंगे, यह बहुत अच्छी बात है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अयोध्या मुद्दे का समाधान बातचीत के जरिये करने के उच्चतम न्यायालय के सुझाव का स्वागत किया और कहा है कि वह धर्मसंसद की ओर से किये गए किसी भी निर्णय का समर्थन करेगा जिसने रामजन्मभूमि आंदोलन का नेतृत्व किया और वह अदालत जाने वाले पक्ष भी हैं। दूसरी ओर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने इस मुद्दे पर संयमित रुख अपनाते हुए कहा है कि यदि वार्ता से मसले का हल निकलता है तो खुशी की बात होगी।
बाबरी एक्शन कमेटी के नेता जफरयाब जिलानी ने कहा है कि मध्यस्थता से इस मामले का हल नहीं निकलेगा और बातचीत से इस मुद्दे को सुलझाने के प्रयास पहले भी बहुत हुए हैं और वह विफल रहे हैं। जिलानी का कहना है कि मुस्लिम इस मामले में अदालत का फैसला ही मानेंगे। केंद्र सरकार का कहना है कि यह स्वागतयोग्य है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश इस संवेदनशील मुद्दे पर मध्यस्थता के लिए पहल कर रहे हैं। इस मामले में जदयू सांसद अली अनवर ने सबसे सकारात्मक बात यह कही कि कानून या अदालत के फैसले से दो समुदायों को जोड़ना कठिन है लेकिन यदि बातचीत से दोनों समुदाय कोई हल निकाल लें तो इससे अच्छी बात क्या होगी। कुछ मुस्लिम धर्मगुरुओं का इस मामले में कहना है कि विवाद का हल मौलवियों और पुजारियों की बैठक में निकल सकता है यदि दोनों ओर के राजनीतिज्ञ इससे दूर रहें।
राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले के पैरोकार रहे मोहम्मद हाशिम अंसारी के पुत्र इकबाल अंसारी का भी कहना है कि बातचीत से मुद्दे का हल संभव है और यदि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश मध्यस्थ बनते हैं तो सहमति बनने की संभावना भी ज्यादा रहेगी और फैसले पर उंगलियां भी संभवतः कम ही उठेंगी। अयोध्या में पैदा हुए अंसारी ने ही सबसे पहले 1949 में इस मामले को लेकर अदालत में मुकदमा दायर किया था। वह सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड द्वारा फैजाबाद दीवानी अदालत में दायर ‘अयोध्या मामले के मुकदमे’ में 1961 में कुछ अन्य लोगों के साथ प्रमुख वादी बने थे। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने साल 2010 में इस मुकदमे में बहुमत से फैसला सुनाया था। अदालत ने अयोध्या में विवादित स्थल का एक तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़े को आवंटित कर दिया था। बाकी का दो तिहाई हिस्सा वक्फ बोर्ड और रामलला का प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष के बीच बराबर बांट दिया गया था।
हल के प्रयास हुए हैं पहले भी
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के तुरंत बाद अंसारी ने विवाद को दफन करने और ‘‘नई शुरूआत’’ करने की अपील की थी। अयोध्या विवाद का हल अदालत से बाहर निकालने के अपने प्रयास के तहत अंसारी ने कहा था कि मामले के शांतिपूर्ण समाधान के लिए वह अल्पसंख्यक समुदाय के प्रमुख लोगों को साथ लेंगे। अंसारी ने विवाद के समाधान के लिए नये प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए अखाड़ा परिषद के प्रमुख महंत ज्ञान दास से मुलाकात भी की थी। अदालत के बाहर समाधान का जो फार्मूला पेश किया गया था उसमें विवादित परिसर के 70 एकड़ में मंदिर और मस्जिद दोनों बनाने तथा फिर दोनों धार्मिक स्थलों के बीच 100 फुट ऊंची दीवार खड़ी करने की बात की गई थी।
माना जाता है कि 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) और बाबरी एक्शन कमेटी के बीच एक सौहार्दपूर्ण हल के लिए बातचीत का प्रयास किया था। लेकिन जब विहिप ने वहां मंदिर होने के सभी सबूत दिये तो बाबरी एक्शन कमेटी ने बैठक छोड़ दी। विहिप का दावा है कि जियोराडार और उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के तहत एएसआई द्वारा की गई खुदाई से यह पहले ही साबित हो गया है कि बाबरी ढांचे के स्थल पर एक भव्य मंदिर था। उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने स्वीकार किया कि बाबरी ढांचे के स्थल पर मंदिर होने के पर्याप्त सबूत हैं। कथित रूप से मुस्लिम भी इस पर सहमत थे कि विवादास्पद स्थल पर यदि मंदिर अस्तित्व में होगा तो वे अपना दावा वापस ले लेंगे।
यह भी माना जाता है कि वर्ष 1986 में कांची कामकोटि के शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष अली मियां के बीच बाबरी मस्जिद मामले पर बातचीत हुई थी, मगर वह नाकाम रही थी। बाद में 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, उस वक्त के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और भाजपा नेता भैरों सिंह शेखावत के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ लेकिन वह बेनतीजा रही। उसके बाद प्रधानमंत्री बने नरसिम्हा राव ने एक समिति बनायी और कांग्रेस नेता सुबोधकांत सहाय के जरिये बातचीत की शुरुआत की कोशिश की, लेकिन 1992 में मस्जिद ढहा दी गयी। बाद में प्रधानमंत्री बने अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने कार्यालय में अयोध्या सेल बनाया और मामले को सुलझाने की दिशा में प्रयास किये लेकिन प्रयास बेनतीजा रहे।
सुनहरा मौका हाथ से नहीं जाने दें
अब जब वार्ता का नया मौका सामने है तो सभी पक्षों को संयमित रुख दिखाना चाहिए। सुब्रह्मण्यम स्वामी जो इस मामले के जल्द हल के लिए अदालत गये वह पहले दिन तो संयमित रुख दर्शाते रहे लेकिन दूसरे दिन कह दिया कि यदि मुस्लिमों ने सरयू के पार मस्जिद बनाने का प्रस्ताव नहीं माना तो हम अगले वर्ष राज्यसभा में बहुमत होने के बाद संसद से कानून बनाकर राम मंदिर बनाएंगे। दूसरी ओर केंद्र सरकार के वरिष्ठ मंत्री जहां इस मामले पर संभल कर चल रहे हैं तो वहीं कुछ मंत्री अभी भी आवेश में ही हैं। एक ने अयोध्या मामले का हल सोमनाथ की तर्ज पर करने की मांग की है तो दूसरे ने पूछा है कि यदि भगवान राम का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा तो क्या पाकिस्तान में बनेगा।
दोनों समुदायों को चाहिए कि वह इस मौके को 'सुनहरे अवसर' के तौर पर देखें और देश पर लगे एक पुराने दाग को मिलकर धो दें। मंदिर-मस्जिद विवाद तो बहुत पहले से चल रहा है लेकिन 1992 से भारत बाबरी मसजिद के मुद्दे को भी ढोता आ रहा है। मस्जिद के 'एक ढांचे' को ढहाने से देश में कर्इ जगह दंगे हुए। माना जाता है कि 1993 में मुंबर्इ के विस्फोट दिसंबर 1992 में मसजिद ढहाने के खिलाफ बदला था। यदि आज यह मुद्दा सुलझ जाये तो यकीनन देश की एकता और अखण्डता और मजबूत होगी। दो वर्गों के बीच विवाद के इस विषय से आने वाली पीढ़ियों को नहीं जूझना पड़े यह सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी भी है।
बहरहाल, भाजपा अब इस मुद्दे को लेकर ज्यादा आश्वस्त नजर आ रही है क्योंकि केंद्र के बाद अब उत्तर प्रदेश में भी उसका शासन है। राम मंदिर निर्माण भाजपा के प्रमुख वादों में से एक है। भाजपा का कहना है कि या तो आम सहमति से या फिर अदालती फैसले या संसद से कानून बनाकर मंदिर का निर्माण किया जा सकता है। आपसी सहमति की जो राह देश की सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर खोली है देखना होगा उस पर कितने लोग चलने को तैयार होते हैं या फिर यह मुद्दा एक बार फिर 'राजनीति' का शिकार होकर अदालत की चौखट पर वापस पहुंचता है।
- नीरज कुमार दुबे
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