विपक्ष की नकारात्मक राजनीति और राष्ट्र-विरोधी विमर्श पर राष्ट्रवाद की जीत ने कई संदेश दिये

विपक्ष ने दावा किया था कि उसके सभी 315 सांसद मतदान में उपस्थित रहे और पूरा खेमे ने एकजुटता दिखायी। लेकिन नतीजे में विपक्ष 15 वोट पीछे रह गया और उतने ही वोट अमान्य घोषित हुए। इसका सीधा अर्थ यह है कि विपक्षी खेमे में या तो क्रॉस वोटिंग हुई या जानबूझकर अमान्य मत डाले गये।
उपराष्ट्रपति चुनाव के परिणाम ने भारतीय राजनीति में कई नये संकेत दिए हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एनडीए के उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन ने विपक्षी खेमे के साझा प्रत्याशी और पूर्व न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी को मात देकर देश के 15वें उपराष्ट्रपति पद पर विजय हासिल की। यह विजय कई मायनों में खास है क्योंकि 452 बनाम 300 वोट का अंतर केवल एक चुनावी आँकड़ा नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की नयी दिशा की ओर इशारा करता है।
विपक्षी एकता तार-तार
विपक्ष ने दावा किया था कि उसके सभी 315 सांसद मतदान में उपस्थित रहे और पूरा खेमे ने एकजुटता दिखायी। लेकिन नतीजे में विपक्ष 15 वोट पीछे रह गया और उतने ही वोट अमान्य घोषित हुए। इसका सीधा अर्थ यह है कि विपक्षी खेमे में या तो क्रॉस वोटिंग हुई या जानबूझकर अमान्य मत डाले गये। यही घटना विपक्षी गठबंधन की एकता पर गहरे सवाल खड़े करती है। दरअसल, इस परिणाम ने विपक्षी दलों की आंतरिक असहमति और पारस्परिक अविश्वास को उजागर कर दिया है।
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राष्ट्रवादियों की जीत के मायने
उधर, राधाकृष्णन ने अपनी जीत को “राष्ट्रवादियों की जीत” बताया है। इसका सकारात्मक अर्थ यह है कि एनडीए की राजनीति केवल चुनावी अंकगणित तक सीमित नहीं है, बल्कि वह राष्ट्रवादी विचारधारा को जनता और सांसदों के बीच एक व्यापक स्वीकृति दिलाने में सफल रहा है। देखा जाये तो हाल के वर्षों में विपक्ष ने अपनी राजनीति का केन्द्र सत्ता विरोध तक सीमित कर दिया है। स्वस्थ लोकतांत्रिक विमर्श की जगह आरोप-प्रत्यारोप, नकारात्मक प्रचार और देश की संवैधानिक संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करने की परंपरा बनती जा रही है। संसद से लेकर न्यायपालिका और चुनाव आयोग तक, विपक्ष की ओर से लगातार यह प्रयास देखा गया है कि जनता के मन में इन संस्थानों के प्रति अविश्वास पैदा किया जाए। यही कारण है कि उपराष्ट्रपति चुनाव केवल एक पद के लिए मतदान नहीं था, बल्कि यह उस नकारात्मक राजनीति और राष्ट्र-विरोधी विमर्श के खिलाफ एक जनादेश की तरह सामने आया।
सी.पी. राधाकृष्णन की ऐतिहासिक जीत ने स्पष्ट कर दिया है कि देश की राजनीति में राष्ट्रवाद की विचारधारा ही जनता के विश्वास की धुरी है। विपक्ष भले ही इसे “संख्या का खेल” बताने का प्रयास करे, लेकिन तथ्य यह है कि क्रॉस वोटिंग और विपक्षी खेमे में बिखराव ने उनकी एकता की पोल खोल दी। यह संदेश दूर तक गया है कि जब बात राष्ट्रहित और स्थिरता की आती है तो विपक्षी दलों के भीतर भी कई लोग एनडीए के साथ खड़े होना पसंद करते हैं।
यह जीत विपक्ष द्वारा रची जा रही उस नकारात्मक छवि को भी ध्वस्त करती है जिसमें संवैधानिक पदों को मात्र राजनीतिक उपकरण के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। राधाकृष्णन ने इसे राष्ट्रवाद की जीत कहा है और इसमें गहरा संदेश छिपा है। दरअसल, यह जीत उन लोगों के लिए आश्वस्ति है जो मानते हैं कि लोकतंत्र में विरोध ज़रूरी है लेकिन विरोध की आड़ में देश की संस्थाओं को कमजोर करना आत्मघाती है। देखा जाये तो उपराष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रवादियों की जीत विपक्ष की नकारात्मक राजनीति पर करारा जवाब है।
तमिलनाडु की राजनीति पर क्या असर होगा?
इसके अलावा, उपराष्ट्रपति पद पर सीपी राधाकृष्णन की जीत का गहरा असर तमिलनाडु की राजनीति पर भी पड़ने वाला है। तमिलनाडु लंबे समय से द्रविड़ राजनीति का गढ़ रहा है, जहां भाजपा अब तक सीमित प्रभाव ही बना पाई है। लेकिन राधाकृष्णन जैसे वरिष्ठ और लोकप्रिय नेता का इस संवैधानिक पद तक पहुँचना भाजपा और एनडीए के लिए एक मनोबलवर्धक उपलब्धि है। सबसे पहले, यह जीत भाजपा को तमिलनाडु में राजनीतिक स्वीकार्यता दिलाती है। अब भाजपा केवल “बाहरी ताकत” नहीं, बल्कि तमिलनाडु से जुड़ा चेहरा रखने वाली राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उभरेगी। राधाकृष्णन की साफ-सुथरी छवि और जमीनी पकड़ भाजपा को उन मतदाताओं के बीच पहुँचाने में मदद करेगी जो अब तक द्रविड़ पार्टियों के बीच उलझे रहे। जब तमिलनाडु के मतदाता देखेंगे कि उनके ही राज्य से आया एक नेता राष्ट्रीय राजनीति में इतना बड़ा पद हासिल कर रहा है, तो उन्हें भाजपा की प्रासंगिकता का अहसास होगा। यह विजय यह भी संदेश देती है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं है। दक्षिण भारत में भी भाजपा का राजनीतिक विस्तार संभव है। राधाकृष्णन की जीत से एनडीए को स्थानीय सहयोगी दलों के साथ तालमेल मजबूत करने में मदद मिलेगी और आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा का वोट शेयर बढ़ाने का आधार बनेगा।
देखा जाये तो तमिलनाडु में भाजपा की सबसे बड़ी चुनौती डीएमके और एआईएडीएमके जैसी स्थापित द्रविड़ पार्टियां रही हैं। लेकिन उपराष्ट्रपति चुनाव ने दिखा दिया कि भाजपा अब “किनारे की खिलाड़ी” नहीं रही, बल्कि उसकी जड़ें मजबूत हो रही हैं। यह जीत भाजपा-एनडीए कार्यकर्ताओं को जोश से भर देगी और जनता के बीच यह संदेश जाएगा कि अगर राष्ट्रीय स्तर पर तमिलनाडु का नेता इतना बड़ा पद हासिल कर सकता है तो राज्य की राजनीति में भी भाजपा का भविष्य सुरक्षित है। राधाकृष्णन की जीत भाजपा और एनडीए के लिए तमिलनाडु विधानसभा चुनावों का मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक पूंजी बनकर सामने आएगी, जो दक्षिण में पार्टी के विस्तार की दिशा में निर्णायक कदम साबित हो सकती है।
क्षेत्रीय दलों ने क्या संदेश दिया?
इसके अलावा, इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों का रुख भी महत्वपूर्ण रहा। आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने एनडीए उम्मीदवार का समर्थन किया, ओडिशा की बीजेडी और तेलंगाना की बीआरएस ने मतदान से अनुपस्थित रहकर अप्रत्यक्ष रूप से एनडीए की मदद की। यह स्थिति साफ़ दिखाती है कि राष्ट्रीय राजनीति में एनडीए की पकड़ मज़बूत हो रही है और कई क्षेत्रीय दल अवसरवादी राजनीति की बजाय केंद्र की स्थिरता और शक्ति संतुलन के साथ खड़े होने का संकेत दे रहे हैं। यह संदेश विपक्षी खेमे के लिए और भी चुनौतीपूर्ण है।
बिहार चुनाव पर क्या असर होगा?
यही नहीं, उपराष्ट्रपति चुनाव में एनडीए की इस बड़ी जीत के राजनीतिक निहितार्थ बिहार तक भी पहुँचते हैं, जहाँ निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। एनडीए की यह जीत विपक्षी गठबंधन की कमजोरियों को उजागर करती है और बिहार में भाजपा-जदयू की साख को और मज़बूत करती है। यह परिणाम बताता है कि केंद्र से लेकर राज्य तक एनडीए अपनी पकड़ बनाये हुए है और विपक्षी दलों का ‘एकजुट मोर्चा’ केवल घोषणाओं तक ही सीमित है।
बहरहाल, सी.पी. राधाकृष्णन की जीत केवल एक व्यक्ति की सफलता नहीं है, बल्कि यह भारतीय राजनीति में एनडीए की बढ़ती धमक, विपक्षी खेमे में बिखराव और राष्ट्रवादी विचारधारा की स्वीकृति का प्रतीक है। दक्षिण में भाजपा के लिए नए अवसर खुल रहे हैं, क्षेत्रीय दल एनडीए के प्रति झुकाव दिखा रहे हैं और विपक्षी एकता का दावा खोखला साबित हुआ है। यह सब मिलकर राष्ट्रीय राजनीति में एनडीए को एक और मज़बूत स्थिति में खड़ा कर देता है।
-नीरज कुमार दुबे
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