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गांवों की उपेक्षा कर अनियोजित तरीके से बसाए जा रहे शहर पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा
- ललित गर्ग
- दिसंबर 4, 2020 11:43
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पर्यावरण एवं प्रकृति को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी है। लोगों ने दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं।
कोरोना की उत्तरकालीन व्यवस्थाओं पर चिन्तन करते हुए बढ़ते पर्यावरण एवं प्रकृति विनाश को नियंत्रित करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, इसके लिये बढ़ते शहरीकरण को रोकना एवं गांव आधारित जीवनशैली पर बल देना होगा। भले ही शहरीकरण को आर्थिक और सामाजिक वृद्धि का सूचक माना जाता है। लेकिन अनियंत्रित शहरीकरण बड़ी समस्या बन रहा है। भारत में तो शहरीकरण ने अनेक समस्याएं खड़ी कर दी हैं, आम जनजीवन न केवल स्वास्थ्य बल्कि जीवनमूल्यों की दृष्टि से जटिल होता जा रहा है। आर्थिक विकास भी इसी कारण असंतुलित हो रहा है। ऐसे में जब कोरोना जैसे अभूतपूर्व संकट के दौरान बेतरतीब जीवनशैली से भरे शहर अचानक डराने लगें तब हमारे गांवों ने ही शहरी लोगों को पनाह दी। इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसी योजनाएं बनाई जाएं जिससे गांवों में शहरों जैसी सुविधाएं उपलब्ध हो सकें ताकि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहरों को होने वाले पलायन की रफ्तार कुछ थम सके।
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पर्यावरण एवं प्रकृति को हो रहे नुकसान का मूल कारण अनियोजित शहरीकरण है। बीते दो दशकों के दौरान यह प्रवृत्ति पूरे देश में बढ़ी है। लोगों ने दिल्ली एवं ऐसे ही महानगरों की सीमा से सटे खेतों पर अवैध कालोनियां काट लीं। इसके बाद जहां कहीं सड़क बनी, उसके आसपास के खेत, जंगल, तालाब को वैध या अवैध तरीके से कंक्रीट के जंगल में बदल दिया गया। देश के अधिकांश उभरते शहर अब सड़कों के दोनों ओर बेतरतीब बढ़ते जा रहे हैं। दरअसल स्वतन्त्र भारत के विकास के लिए हमने जिन नक्शे कदम पर चलना शुरू किया उसके तहत बड़े-बड़े शहर पूंजी केन्द्रित होते चले गये और रोजगार के स्रोत भी ये शहर ही बने। शहरों में सतत एवं तीव्र विकास और धन का केन्द्रीकरण होने की वजह से इनका बेतरतीब विकास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार हुआ कि यह राजनीतिक दलों के अस्तित्व और प्रभाव से जुड़ता चला गया, लेकिन पर्यावरण एवं प्रकृति से कटता गया। इसी कारण गांव आधारित अर्थ-व्यवस्थाएं लडखड़ाने लगी हैं।
बढ़ते शहरीकरण के बावजूद एक बड़ा सच यह भी है कि आज भी देश में सत्तर फीसद आबादी गांवों में बसती है। यानी अगर शहरीकरण को विकास का पैमाना मान भी लिया जाए तो हम दुनिया के ज्यादातर देशों से अभी बहुत पीछे हैं। बहरहाल, कितने भी पीछे हों, लेकिन जितना और जैसा समस्याबहुल शहरीकरण हो रहा है उसने गंभीर सोच-विचार के लिए हमें मजबूर कर दिया है। खासकर तब, जब शहरीकरण की मौजूदा चाहत के चलते अनुमान लगाया गया है कि 2050 तक देश की शहरी आबादी गांवों की आबादी से ज्यादा हो जाएगी।
केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने हाल ही में कहा कि उम्मीद के मुताबिक भारत की 40 प्रतिशत आबादी 2030 तक शहरी क्षेत्रों में रहेगी और हमें इसके लिए छह से आठ सौ मिलियन वर्ग मीटर का अर्बन स्पेस बनाना होगा। पुरी के अनुसार 100 स्मार्ट सिटी में 1,66,000 करोड़ रुपये की लगभग 4,700 परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जो प्रस्तावित कुल परियोजनाओं का लगभग 81 प्रतिशत है। सरकार के सामने एक बड़ी चुनौती है बढ़ते शहरीकरण को नियोजित करने की। शहरों में अधिक आबादी रहने का मतलब है कि उनका आधारभूत ढांचा संवारने का काम युद्ध स्तर पर किया जाए ताकि वे बढ़ी हुई आबादी का बोझ सहने में समर्थ रहें और साथ ही रहने लायक भी बने रहें। लेकिन हकीकत इससे बहुत अलग है। हमारे जिन भी नीति नियंताओं और विभागों पर भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखकर शहरी ढांचे का निर्माण करने की जिम्मेदारी होती है, वे शहरों के नियोजन के नाम पर कामचलाऊ ढंग से काम करते हैं। नया शहरीकरण अनियोजित और मनमाना होता है, जहां पर सिर्फ कंक्रीट के जंगल होते हैं तो पुराने इलाके में पूरा ढांचा ही जर्जर और गंदगी से भरा होता है। इसका नतीजा यह होता है कि हमारे देश में शहरों की परिभाषा तरह-तरह के प्रदूषणों, गंदगी, वायु दूषित होने, अतिक्रमण, अपराध, ट्रैफिक जाम, जलभराव, झुग्गी बस्तियों, अनियंत्रित निर्माण और कूड़े के पहाड़ के बगैर पूरी ही नहीं होती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने पहले ही कार्यकाल में स्मार्ट सिटी की अवधारणा लेकर आए थे। लेकिन यह योजना भी भ्रष्टाचार, पैसे की तंगी और अनियमितता की भेंट चढ़ गई। यह योजना केंद्र सरकार और राज्यों के बीच टकराव का कारण भी बन गई। इसके साथ ही एक समस्या यह भी है कि सिर्फ फ्लाईओवर, मेट्रो आदि का निर्माण करके हमारे नीति नियंता शहरीकरण के नाम पर अपनी पीठ थपथपा लेते हैं लेकिन क्या इससे शहरों में रहने लायक स्थिति बन जाती है ? क्या बढ़ता शहरीकरण पर्यावरण एवं प्रकृति के लिये गंभीर खतरा नहीं बन रहा है ?
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भारत की अर्थ-व्यवस्था आज भी गांव, कृषि, पशुपालन आधारित है। असली भारत आज भी गांवों में ही बसता है जिसमें देश की करीब 70 फीसद आबादी रहती है। दरअसल वास्तविकता यह है कि हमने आजादी के बाद से लेकर अब तक गांवों एवं गांव आधारित स्वस्थ, उन्नत एवं आत्मनिर्भर जीवन को नकारा है। गांवों की उन्नति एवं उन्हें बेहतर बनाने की बजाए हमने उनकी उपेक्षा की है, जिससे वहां से पलायन बढ़ा है। हमारी सरकारें शहरीकरण के नाम पर हजारों करोड़ रुपया खर्च करने के लिए तैयार हैं लेकिन गांवों में मूलभूत सुविधाओं के नाम पर भी पैसा देने से उन्हें तकलीफ होने लगती है। गांवों को लेकर सरकार की नीतियां विसंगतिपूर्ण रही हैं। खेती को घाटे का सौदा बता दिया गया और कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को निराश करने वाली व्यवस्था में बदल दिया गया। खेती को मुनाफे का सौदा बनाने और गांवों की अर्थव्यवस्था में निवेश करने की बजाय पूरा ध्यान गांवों की जनसंख्या को शहरों में खींच लेने पर रहा।
गांवों के प्रति उपेक्षा से जुड़ी हकीकत यह है कि बड़ी आबादी वहां रहने के बावजूद पेयजल की सप्लाई नहीं है, चिकित्सा-सुविधाएं नगण्य हैं। प्रति व्यक्ति बिजली की खपत देखी जाए तो गांव काफी पीछे हैं लेकिन इसके बावजूद बिजली कटौती की सबसे ज्यादा मार ग्रामीण इलाकों पर ही पड़ती है। गांवों में शिक्षा का ढांचा आज भी जर्जर है। बीते सात दशकों में रोजगार सृजन को लेकर गांवों की अनदेखी की गई है। गांवों की परिवहन समस्याओं के प्रति भी हमारी सरकारें उदासीन रही हैं।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और जीवन का विकास नदियों के किनारे एवं गांवों में ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव जीवन फलता-फूलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वह बस गई। और यही कारण कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या लगभग 350 हो गई है जबकि 1971 में ऐसे शहर मात्र 151 थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का है।
महानगर केवल पर्यावरण प्रदूषण ही नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक प्रदूषण की भी गंभीर समस्या उपजा रहे हैं। लोग अपनों से, मानवीय संवेदनाओं से, अपनी लोक परंपराओं व मान्यताओं से कट रहे हैं। जिसके कारण परम्परा एवं संस्कृति में व्याप्त पर्यावरण एवं प्रकृति संरक्षण के जीवन सूत्रों से हम दूर होते जा रहे हैं, ऐसे कारणों का लगातार बढ़ना, नगरों- महानगरों का बढ़ना, जनसंख्या बहुल क्षेत्रों का सुरसा सतत विस्तार पाना और उसकी चपेट में प्रकृति और उसकी नैसर्गिकता का आना गंभीर स्थितियां हैं। इंसान की क्षमता, जरूरत और योग्यता के अनुरूप उसे अपने मूल स्थान पर यानी गांवों में अपने सामाजिक सरोकारों के साथ जीवन-यापन का हक मिले, विकास का अवसर मिले। यदि विकास के प्रतिमान ऐसे होंगे तो शहर की ओर लोगों का पलायन रूकेगा। इससे हमारी धरती को कुछ राहत अवश्य मिलेगी। प्रकृति एवं पर्यावरण पर मंडरा रहे खतरों में भी तभी कमी आयेगी।
-ललित गर्ग
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- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
- जनवरी 19, 2021 13:12
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इन संस्थाओं के चुनावों में निष्पक्ष चुनावों की या यों कहें कि निष्पक्ष मतदान की बात की जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं है। साफ हो जाता है कि कुछ ठेकेदार बोली लगाकर सरपंच बनवा देते हैं और आम मतदाता देखता ही रह जाता है।
भले ही महाराष्ट्र के राज्य चुनाव आयोग द्वारा उमरेन और खोड़ामाली गांव के सरपंच के चुनावों पर रोक लगा दी गयी हो पर यह स्थानीय स्वशासन चुनाव व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। यह तो सरपंच पद के लिए लगाई जा रही बोली का वीडियो वायरल हो गया इसलिए मजबूरी में चुनावों पर रोक लगाने का निर्णय करना पड़ा। अन्यथा जब इस तरह से महाराष्ट्र की प्याज मण्डी में उमरेन के सरपंच पद के लिए एक करोड़ 10 लाख से चलते चलते दो करोड़ पर बोली रुकी, उससे साफ हो जाता है कि लोकतंत्र की सबसे निचली सीढ़ी के सरपंच पद को बोली लगाकर किस तरह से शर्मशार किया जा रहा है। यह कोई उमरेन की ही बात नहीं है अपितु यही स्थिति खोड़ामली की भी रही वहां की सरपंची शायद कम मलाईदार होगी इसलिए बोली 42 लाख पर अटक गई। इससे यह तो साफ हो जाता है कि जो स्वप्न स्थानीय स्वशासन का देखा गया था उसकी कल्पना करना ही बेकार है। यह भी सच्चाई से आंख चुराना ही होगा कि केवल इस तरह की घटना उमरेन या खोड़ामाली की ही होगी और अन्य स्थानों पर सरपंच के चुनाव पूरी ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता से हो रहे होंगे। लोकतंत्र के सबसे निचले पायदान जिसकी सबसे अधिक निष्पक्षता और पारदर्शिता से चुनाव की आशा की जाती है उसके चुनावों की यह तस्वीर बेहद निराशाजनक और चुनावों पर भ्रष्टाचारियों की पकड़ को उजागर करती है। हालांकि देश की पंचायतीराज संस्थाओं के चुनावों को लेकर सबसे अधिक सशंकित और आतंकित इन चुनावों में लगे कार्मिक होते हैं क्योंकि स्थानीय स्तर की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता इस कदर बढ़ जाती है कि कब एक दूसरे से मारपीट या चुनाव कार्य में लगे कार्मिकों के साथ अनहोनी हो जाए इसका कोई पता नहीं रहता।
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उमरेन की सरपंचाई की बोली इतनी अधिक लगने का कारण वहां प्याज की मण्डी होना है। इससे साफ हो जाता है कि लोकतंत्र का सबसे निचला पायदान भी भ्रष्टाचार से आकंठ डूबा हुआ है। यदि कोई यह दावा करता हो कि इस तरह की बोली से चुनाव कार्य से जुड़े लोग अंजान होंगे तो यह सच्चाई पर परदा डालना होगा क्योंकि इतनी बड़ी घटना किसी एक दो स्थान पर नहीं अपितु इसकी जड़ें कहीं गहरे तक जमी हुई हैं, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दुर्भाग्य की बात है कि जिस लोकतंत्र की हम दुहाई देते हैं और जिस स्थानीय स्वशासन यानी कि गांव के विकास की गाथा गांव के लोगों द्वारा चुने हुए लोगों के हाथ में हो, उसकी उमरेन जैसी तस्वीर सामने आती है तो यह बहुत ही दुखदायी व गंभीर है। यह साफ है कि दो करोड़ या यों कहें कि बोली लगाकर जीत के आने वाले सरपंच से ईमानदारी से काम करने की आशा की जाए तो यह बेमानी ही होगा। जो स्वयं भ्रष्ट आचरण से सत्ता पा रहा है उससे ईमानदार विकास की बात की जाए तो यह सोचना अपने आप में निरर्थक हो जाता है। ऐसे में विचारणीय यह भी हो जाता है कि हमारा ग्राम स्तर का लोकतंत्र किस स्तर तक गिर चुका है। इससे यह भी साफ हो जाता है कि इन संस्थाओं के चुनावों में निष्पक्ष चुनावों की या यों कहें कि निष्पक्ष मतदान की बात की जाए तो उसका कोई मतलब ही नहीं है। साफ हो जाता है कि कुछ ठेकेदार बोली लगाकर सरपंच बनवा देते हैं और आम मतदाता देखता ही रह जाता है।
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दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का हम दावा करते हैं और वह सही भी है। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले अमेरिका की स्थिति हम इन दिनों देख ही रहे हैं। इसके अलावा हमारी चुनाव व्यवस्था की सारी दुनिया कायल है। हमारी चुनाव व्यवस्था पर हमें गर्व भी है और होना भी चाहिए। पर जिस तरह की उमरेन या इस तरह के स्थानों पर घटनाएं हो रही हैं निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए यह दुःखद घटना है। अब यहां चुनाव पर रोक लगाने से ही काम नहीं चलने वाला है अपितु महाराष्ट्र के चुनाव आयोग, सरकार भ्रष्टाचार निरोधक संस्थाओं, न्यायालयों आदि को स्वप्रेरणा से आगे आकर बोली लगाने वालों और इस तरह की प्रक्रिया से जुड़े लोगों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करनी चाहिए ताकि स्थानीय लोकतंत्र अपनी मर्यादा को तार-तार होने से बच सके। यह हमारी समूची प्रक्रिया पर ही प्रश्न उठाती घटना है और चाहे इस तरह की घटना को एक दो स्थान पर या पहली बार ही बताया जाए पर इसकी पुनरावृत्ति देश के किसी भी कोने में ना हो इसके लिए आगे आना होगा। जानकारी में आते ही सख्त कदम और इस तरह की भ्रष्टाचारी घटनाओं के खिलाफ आवाज बुलंद की जाती है तो यह लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। गैर सरकारी संगठनों और जो देश के चुनाव आयोग की सुव्यवस्थित इलेक्ट्रोनिक मतदान व्यवस्था यानि ईवीएम के खिलाफ आवाज उठाते हैं उन्हें अब मुंह छिपाए बैठने के स्थान पर मुखरता से आगे आना होगा तभी उनकी विश्वसनीयता तय होगी। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था इस तरह की घटनाओं से शर्मशार होती है इसे हमें समझना होगा नहीं तो लोकतांत्रिक व्यवस्था की पवित्रता कलुषित होगी।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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- डॉ. रमेश ठाकुर
- जनवरी 18, 2021 13:49
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भारतीय संविधान के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और कानून की व्याख्या करने की शक्ति है। संविधान न्यायालयों को किसी कानून के निर्धारण का निर्देश देने की या रद्द करने की शक्ति नहीं देता है।
किसानों का आंदोलन केंद्र सरकार के लिए चुनौती बन गया है। रोकने के लिए सरकार हर तरीके की कोशिशें कर चुकी है। लेकिन किसान टस से मस नहीं हो रहे। किसान-सरकार के बीच बढ़ते गतिरोध को देखते हुए अब सुप्रीम कोर्ट की भी एंट्री हो चुकी है। कोर्ट ने फिलहाल सरकार के बनाए तीनों कृषि कानूनों पर रोक लगा दी है। आगे क्या कोर्ट के माध्यम से कोई हल निकल सकेगा? या फिर आंदोलन यूं ही चलता रहेगा। इन्हीं तमाम सवालों का पिटारा लेकर डॉ. रमेश ठाकुर ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी दुबे से कानूनी पहलूओं पर विस्तृत बातचीत की। पेश बातचीत के मुख्य हिस्से।
सवालः सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी से कुछ हल निकलेगा?
केंद्र और किसानों के बीच गतिरोध के लिए सौहार्दपूर्ण समाधान खोजने के लिए शीर्ष अदालत का हस्तक्षेप दोनों पक्षों के हित में है। सुप्रीम कोर्ट की समिति के चार सदस्य कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी और प्रमोद कुमार जोशी हैं, साथ ही शेतकरी संगठन के अनिल घनवत और भारतीय किसान यूनियन के एक गुट के नेता भूपिंदर सिंह मान हैं जिन्होंने खुद को अलग कर लिया है। समिति के सभी सदस्य विशेषज्ञ हैं और बुद्धिजीवी हैं। वह किसानों की भलाई के लिए भी काम करते आए हैं और मुझे लगता है इस मामले में भी वह निष्पक्ष जांच करेंगे, ताकि वह स्पष्ट रूप से दोनों पक्षों की चीजों को स्पष्ट कर पाएं और दोनों पक्षों से तथ्यों पर विचार करके रिपोर्ट बनाएंगे ताकि अदालत एक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंच सके।
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सवालः कानूनों के हिसाब से क्या केंद्र सरकार के बनाए कानून को न्यायालय निरस्त कर सकता है?
उत्तर- न्यायालयों के पास संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है जब तक कि उसके प्रावधान असंवैधानिक न हों। कोर्ट भारत में कानून बनाने वाली संस्था नहीं है। कानून बनाना संसद और राज्य विधानसभाओं का काम है। बहुत प्रसिद्ध निर्णय गेंदा राम बनाम एमसीडी में कहा गया है, यह शक्तियों के पृथक्करण के मूल सिद्धांत का उल्लंघन करने के लिए कहा जा सकता है जो बताता है कि कार्यकारी, विधायिका और न्यायपालिका को एक-दूसरे से स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिए। भारतीय संविधान के तहत, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों की रक्षा करने और कानून की व्याख्या करने की शक्ति है। संविधान न्यायालयों को किसी कानून के निर्धारण का निर्देश देने की या रद्द करने की शक्ति नहीं देता है।
सवालः तीनों कृषि कानूनों पर लगाई सुप्रीम कोर्ट की लगाई रोक को कैसे देखते हैं आप?
उत्तर- सुप्रीम कोर्ट संविधान का संरक्षक है। मैं शीर्ष अदालत के फैसले का पूरी तरह से सम्मान करता हूं, भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े ने कहा कि शीर्ष अदालत भी तीन कृषि कानूनों की स्पष्ट तस्वीर प्राप्त करने के लिए एक समिति का गठन कर रही है। तीन कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता के बारे में याचिकाओं का जत्था दाखिल किया गया है। अब समिति मौके पर जाएगी और किसान, प्रदर्शनकारियों के विचार प्राप्त करने की कोशिश करेगी और दोनों पक्षों की समीक्षा करेगी और उचित अनुसंधान और निष्कर्षों के बाद समिति अदालत को रिपोर्ट सौंपेगी, फिर अदालत उचित कदम उठाएगी।
सवालः कमेटी में शामिल सदस्यों के नाम पर किसान नेताओं का विरोध भी हो रहा है?
उत्तर- हां, विरोध करने वाले भ्रमित हैं, यहां तक कि समिति के सभी सदस्य बुद्धिजीवी हैं, जो सामाजिक हैं। कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, लंबे समय से कृषि सुधारों के पैरोकार रहे हैं, इससे किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा। बलबीर सिंह राजेवाल, जो पंजाब में भारतीय किसान यूनियन के अपने गुट के प्रमुख हैं, वह किसानों की वास्तविक समस्या को समझेंगे क्योंकि वह किसानों और उपभोक्ताओं के कल्याण के लिए लगातार काम कर रहे हैं, अन्य सदस्य भी अच्छी तरह से योग्य और अनुभवी हैं और उनकी नियुक्ति मुख्य नयायाधीश और भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सभी परिदृश्यों के बारे में अच्छी तरह से वाकिफ होने के बाद की गयी है, इसलिए समिति जो भी रिपोर्ट बनाएगी बिना पक्षपात और बिना किसी गतिरोध के सभी पहलुओं की निष्पक्षता से जांच करके बनाएगी।
सवालः आप क्या सोचते हैं केंद्र का निर्णय कृषि हित में है?
उत्तर- देखिये, ये मामला अब सुप्रीम कोर्ट में जा चुका है। न्यायालय का फैसला सर्वोच्च होगा। तीनों कानून के कुछ फायदे ये हैं कि किसान एक स्वतंत्र और अधिक लचीली प्रणाली की ओर बढ़ेंगे। मंडियों के भौतिक क्षेत्र के बाहर उपज बेचना किसानों के लिए एक अतिरिक्त विस्तृत चैनल होगा। नए बिल में कोई बड़ा कठोर बदलाव नहीं लाया गया है, केवल मौजूदा सिस्टम के साथ काम करने वाला एक समानांतर सिस्टम है। इन बिलों से पहले, किसान अपनी उपज पूरी दुनिया को बेच सकते हैं, लेकिन ई-एनएएम प्रणाली के माध्यम से। आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन, जो विरोध के तहत तीन बिलों में से एक है, किसानों के डर को दूर करता है कि किसानों से खरीदने वाले व्यापारियों को ऐसे स्टॉक रखने के लिए दंडित किया जाएगा जो अधिक समझा जाता है और किसानों के लिए नुकसान पहुंचाता है।
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सवालः कानून अच्छे हैं, तो फिर सरकार किसानों को समझाने में विफल क्यों हुई?
उत्तर- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 सितंबर को एक ट्वीट किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि एमएसपी की व्यवस्था बनी रहेगी और सरकारी खरीद जारी रहेगी। वहीं कृषि मंत्री ने कहा था कि पिछली सरकारों ने वास्तव में एमएसपी के लिए एक कानून लाना अनिवार्य नहीं समझा। मौजूदा एपीएमसी प्रणाली में, किसानों को एक व्यापारी (मंडियों के माध्यम से) के लिए जाना अनिवार्य है ताकि उपभोक्ताओं और कंपनियों को अपनी उपज बेच सकें और उन्हें अपनी उपज के लिए न्यूनतम विक्रय मूल्य प्राप्त हो। यह बहुत ही पुरानी प्रणाली थी जिसने व्यापारियों और असुविधाजनक बाजारों के नेतृत्व में एक कार्टेल के उदय को प्रभावित किया है जिसके कारण किसानों को उनकी उपज के लिए एमएसपी (बहुत कम कीमत) का भुगतान किया जाता है। बावजूद इसके मुझे लगता है सरकार किसानों को कानून के फायदों के संबंध में ठीक से बता नहीं पाई। कुछ भी हो आंदोलन का हल अब निकलना चाहिए।
-जैसा डॉ. रमेश ठाकुर से सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी दुबे ने कहा।
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- डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
- जनवरी 16, 2021 12:52
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केसर की खेती बड़ी मेहनत का काम है। कश्मीरी केसर को कश्मीरी मोगरा के नाम से जाना जाता है और सामान्यतः 80 फीसदी फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है। केसर के नीले-बैंगनी रंग के कीपनुमा फूल आते हैं और इनमें दो से तीन नारंगी रंग के तंतु होते हैं।
आतंकवादी गतिविधियों और अशांति का प्रतीक बनी कश्मीर की वादियों की केसर की महक अब देश-दुनिया के देशों में महकेगी। पिछले दिनों यूएई भारत खाद्य सुरक्षा शिखर सम्मेलन में कश्मीरी केसर को प्रस्तुत किया गया है और यूएई में जिस तरह से कश्मीरी केसर को रेस्पांस मिला है उससे आने वाले दिनों में पश्चिम एशिया सहित दुनिया के देशों में कश्मीरी केसर की अच्छी मांग देखने को मिलेगी। कश्मीरी केसर का दो हजार साल का लंबा इतिहास है और इसे जाफरान के नाम से भी जाना जाता है और खास बात यह है कि केसर को दूध में मिलाकर पीने के साथ ही दूध से बनी मिठाइयों में उपयोग और औषधीय गुण होने के कारण इसकी बहुत अधिक मांग है। जानकारों का कहना है कि केसर में 150 से भी अधिक औषधीय तत्व पाए जाते हैं जो कैंसर, आर्थराइट्स, अनिद्रा, सिरदर्द, पेट के रोग, प्रोस्टेट, कामशक्ति बढ़ाने जैसे अनेक रोगों में दवा के रूप में उपयोग किया जाता है। प्रेगनेंट महिलाओं को गोरा बच्चा हो इसके लिए केसर का दूध पीने की सलाह भी परंपरागत रूप से दी जाती रही है। यों भी कहा जा सकता है कि मसालों की दुनिया में केसर सबसे महंगे मसाले के रूप में भी उपयोग होता है।
कश्मीर में केसर की खेती को पटरी पर लाने के प्रयासों में तेजी लाई गई है। पिछली जुलाई में ही कश्मीर की केसर को जीआई टैग यानी भौगोलिक पहचान की मान्यता मिल गई है। दरअसल आतंकवादी गतिविधियों के चलते कश्मीर के केसर उत्पादक किसानों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा है। कश्मीर के केसर की दुनिया में अलग ही पहचान रही है। पर आंतकवाद के कारण केसर के बाग उजड़ने लगे तो दुनिया के देशों में कश्मीर के नाम पर अमेरिकन व अन्य देशों की केसर बिकने लगी। कश्मीर की केसर को सबसे अच्छी और गुणवत्ता वाली माना जाता है। हालांकि ईरान दुनिया का सबसे अधिक केसर उत्पादक देश है। वहीं स्पेन, स्वीडन, इटली, फ्रांस व ग्रीस में भी केसर की खेती होती है। पर जो कश्मीर के केसर की बात है वह अन्य देशों की केसर में नहीं है। केसर को जाफरान भी कहते हैं और खास बात यह है कि केसर का पौधा अत्यधिक सर्दी और यहां तक की बर्फबारी को भी सहन कर लेता है। यही कारण है कि कश्मीर में केसर की खेती परंपरागत रूप से होती रही है। पर आतंकवादी गतिविधियों और अशांति के कारण केसर की खेती भी प्रभावित हुई और केसर के खेत बर्बादी की राह पर चल पड़े।
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यह तो सरकार ने जहां एक और कश्मीर में शांति बहाली के प्रयास तेज किए उसके साथ ही कश्मीर की केसर की खेती सहित परंपरागत खेती और उद्योगों को बढ़ावा देने के समग्र प्रयास शुरू किए। सरकार ने केसर के खेती को प्रोत्साहित करने और कश्मीर में 3715 हैक्टेयर क्षेत्र को पुनः खेती योग्य बनाने के लिए 411 करोड़ रु. की परियोजना स्वीकृत की जिसमें से अब तक 2500 हैक्टेयर क्षेत्र का कायाकल्प किया जा चुका है। माना जा रहा है कि इस साल कश्मीर में केसर की बंपर पैदावार हुई है। दरअसल कश्मीर की केसर के नाम पर अमेरिकन केसर बेची जाती रही है। कश्मीर में पुलवामा, पांपोई, बड़गांव, श्रीनगर आदि में केसर की खेती होती है। एक मोटे अनुमान के अनुसार 300 टन पैदावार की संभावना है तो कश्मीर की केसर बाजार में एक लाख साठ हजार से लेकर तीन हजार रुपए प्रतिकिलो तक के भाव मिलने से किसानों को इसकी खेती में बड़ा लाभ है।
हालांकि केसर की खेती बड़ी मेहनत का काम है। कश्मीरी केसर को कश्मीरी मोगरा के नाम से जाना जाता है और सामान्यतः 80 फीसदी फसल अक्टूबर-नवंबर में तैयार हो जाती है। केसर के नीले-बैंगनी रंग के कीपनुमा फूल आते हैं और इनमें दो से तीन नारंगी रंग के तंतु होते हैं। मेहनत को इसी से समझा जा सकता है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार करीब 75 हजार फूलों से 400 ग्राम केसर निकलती है। इसे छाया में सुखाया जाता है। सरकार ने हालिया दिनों में इसकी ग्रेडिंग, पैकेजिंग आदि की सुविधाओं के लिए पंपोर में अंतरराष्ट्रीय स्तर का पार्क विकसित किया है। इस पार्क में केसर को सुखाने और पैकिंग के साथ ही मार्केटिंग की सुविधा भी है जिससे केसर उत्पादक किसानों को सीधा लाभ मिलने लगा है।
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आतंक का पर्याय बने कश्मीर के लिए इसे शुभ संकेत ही माना जाएगा कि कश्मीर पटरी पर आने लगा है और कश्मीरी केसर को जीआई टैग मिलने से विशिष्ट पहचान मिल गई है। केसर के खेतों के कायाकल्प करने के कार्यक्रम को तेजी से क्रियान्वित किया जाता है और पंपोर के केसर पार्क को सही ढंग से संचालित किया जाता है तो कश्मीर की केसर का ना केवल उत्पादन बढ़ेगा बल्कि केसर उत्पादक किसानों को नई राह मिलेगी, उनकी आय बढ़ेगी और इस क्षेत्र के युवा भी प्रोत्साहित होंगे। पुलवामा जो आतंकवादी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र रहा है वहां के युवा देशविरोधी गतिविधियों से हटकर नई सोच के साथ विकास की धारा से जुड़ेंगे। अब साफ होने लगा है कि इसी तरह से समग्र प्रयास जारी रहे तो आने वाले दिनों में कश्मीर की वादियों की केसर की महक दुनिया के देशों में बिखरेगी और कश्मीर की केसर की मांग बढ़ेगी जिसका सीधा लाभ केसर उत्पादक किसानों को होगा तो कश्मीर की पहचान केसर के नाम पर होगी।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
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