प्रवासियों अमृतसर में तुम्हारी मौत पर वो खुश होंगे जो ''बाहरियों'' से परेशान हैं

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तुम्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती, न ही तुम्हारे मजदूर दिमाग में समाती है कि तुम भारत के नागरिक होने से पहले... बाहरी हो। याने तुम कभी भी, किसी भी राज्य से खदेड़े जा सकते हो, मारे जा सकते हो और दुरदुराए जा सकते हो।

तुम्हें इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती, न ही तुम्हारे मजदूर दिमाग में समाती है कि तुम भारत के नागरिक होने से पहले... बाहरी हो। याने तुम कभी भी, किसी भी राज्य से खदेड़े जा सकते हो, मारे जा सकते हो और दुरदुराए जा सकते हो। तुम्हें महाराष्ट्र से, असम से, पंजाब से, गुजरात से और कहा−कहां से नहीं भगाया गया। लेकिन तुम हो कि थेथर की तरह राज्य दर राज्य भटकते रहते हो। कहीं रिक्शा खींचते हो, रेड़ी लगाते हो, कारखाने में खटते हो आदि। उस पर तुर्रा यह सुनते हो कि स्याले ...बाहरी हमारे पेट पर लात मारने चले आते हैं। हमारे राज्य में नौकरी हथिया लेते हैं। स्यालों को उनके राज्य खदेड़ो। लेकिन तुम्हें इतनी सी बात भी क्यों समझ नहीं आती। अमृतसर रेल हादसों में मरने वालों में तुम्हारी ही संख्या ज्यादा है। दूसरा राज्य उसी के लोगों का है। खबरों की मानें तो मालूम होगा कि इस ट्रेन से कटने वालों में उत्तर प्रदेश और बिहार से आए प्रवासी मजदूर ज़्यादा थे जो पास की फैक्ट्री में काम किया करते थे। इन्हीं फैक्ट्रियों में रोटी कमाने वाले मजदूर इस रावण दहन देखने आए थे और सदा सदा के लिए सो गए। तुम अपने राज्य गांव देहात भी नहीं लौटे। अब लौटेंगी खबर तुम्हारे गांव। इस बरस दिवाली में न दीया जलेंगे और न ही छठ होगा। सब के सब त्योहार सूने और बच्चों की आंखों में बाप के घर न लौटने की टीस हमेशा के लिए बनी रहेगी।

  

पंजाब में रेल हादसों में मरने वालों की संख्या पर नजर डालें तो पाएंगे कि प्रवासी बिहारी और उत्तर प्रदेश के लोग थे। वे वो लोग थे जिनके पास खाने कमाने का और कोई जरिया नहीं था। दूसरे राज्यों में लानत मलानत सह कर अपने घर परिवार को पालने वाले इन लोगों पर तोहमत भी लगाने से हम बाज नहीं आते कि इन्हीं की वजहों से फलां राज्य में उन राज्यों के लोगों को नौकरियां नहीं मिल पा रही हैं। जबकि हमारा संविधान देश के समस्त नागरिक को किसी भी राज्य में, देश के किसी भी कोने में जीने, खाने कमाने और रहने की मौलिक अधिकार प्रदान करता है। फिर वो कौन लोग हैं जो रातों रात फरमान जारी करते हैं कि उनका शहर, उनका राज्य खाली कर अपने अपने देस, गांव लौट जाएं।

अफसोसनाक बात तो तब है कि प्रशासन और राज्य की सरकार ऐसे मसलों पर मौन साध लेती है। गृह राज्य में यदि रोजगार के अवसर मुहैया करा दिए जाएं तो कौन ऐसा होगा जो अपना गांव घर छोड़कर हजार, दो हजार किलोमीटर दूर देस में मजदूरी करेगा। शायद कुछ चुनिंदे राज्यों से महज इसलिए लोग खासकर मजदूरी करने वाले लोग पलायन करते हैं, क्योंकि उनके राज्य, गांव में उन्हें काम नहीं मिल रहे हैं। यदि इसी घटना को 360 डिग्री कोण पर उलट कर समझें तो किसी भी राज्य, देश से बौद्धिक मजदूर, कामगार लोग इसलिए पलायन करते हैं, क्योंकि उनके लिए उस राज्य, देश आदि में उनके लिए माकूल काम और श्रम की कीमत नहीं है। 

वरना क्या वजह है कि भारत के विभिन्न राज्यों से लेकर दिल्ली के तमाम मंत्रालयों में पासपोर्ट और वीजा की लाइन लंबी होती है। बस एक बार बाहर का रास्ता मिल जाए और कुछ भी काम बाहर कर लेंगे। जब बाद में मौका भी मिलेगा तो वापस नहीं आएंगे...वहीं के होकर रहेंगे। आएंगे जब भी तुम्हें फिर हिकारत की नजर से देखेंगे। क्योंकि तुम न बदले, तुम्हारी सोच न बदली और न रहन सहन का सहूर बदला। सिर्फ हज़ारों फ्लाईओवर बना लेने और छह से आठ लेन की सड़क बना लेने से तमीज़ नहीं आती। उस पर यदि किसी राज्य की बुनियादी बुनावट और ढांचे को देख लें तो मालूम चलेगा कि वहां अभी भी सुविधाएं पुराने ढर्रे पर ही उपलब्ध हैं, लेकिन दंभ भरने में हम पीछे नहीं हैं।

हाल ही में गुजरात के वडोदरा में एक घटना की प्रतिक्रियास्वरूप बिहारियों को राज्य छोड़कर अपने प्रांत लौटने पर मजबूर किया गया। ट्रेनें, बसों में भर भर कर स्वराज्य लौटे लोगों से मत पूछिए सवाल। पूछना ही है तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि लोकतंत्र में जहां सांवैधानिक अधिकार हासिल है कि यहां का नागरिक कहीं भी बिना रोक टोक और मनाही के भ्रमण करने, रोजगार करने, घर बनाने, शादी करने आदि के मौलिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। फिर वो कौन लोग थे जिन्होंने संविधान को भी अंगूठा दिखाया और लोकतंत्र के स्तम्भ ख़ामोश रहे। इतना ही नहीं बल्कि खबर तो यह भी है कि लुंगी पहन कर बैठे बिहारियों को भी निशाना बनाया गया। यह कैसे स्वीकार हो सकता है कि जहां की सांस्कृतिक धरोहर बहुसांस्कृतिक और बहुभाषी समाज की वकालत करती हो लेकिन वहां के रहने वाले इस बहुसांस्कृतिक थाती को तार तार कर रहे हों। क्या स्थानीय निकायों और सिविल सोसायटी के समाज की जवाबदेही नहीं बनती कि ऐसे बरताव के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें। इस प्रकार की दोयम दर्जें के बरताव बिहारियों और अन्य राज्यों के लोगों के साथ अब आम बात हो चुकी है। इस प्रकार की घटनाएं कहीं न कहीं गहरे विमर्श की ओर हमें धकेलती तो हैं लेकिन हम तुरत फुरत में निर्णय लेने और राय बनान में लग जाते हैं। जबकि हम ऐसे मसलों पर ठहर कर परिचर्चा करने और बेहतर समाधान करने निकालने की आवश्यकता है। 

-कौशलेंद्र प्रपन्न

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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