बुर्का विवाद पर वोट बैंक खिसकने से डर से खिसक लिए राजनीतिक दल

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हिन्दू समाज का एक बड़ा तबका आज भी घूंघट प्रथा का समर्थन करता है। विशेष कर गांवों में यह प्रथा जातिगत विभेद के बावजूद सदियों से जारी है। यदि बुर्के पर उंगली उठती तो इस पर भी उठना लाजिमी है। चुनावी मौसम में ऐसे विवादों से राजनीतिक दलों को नुकसान हो सकता था।

कल्पना कीजिए यदि लोकसभा चुनाव नहीं चल रहे होते तो राजनीतिक दल बुर्का विवाद पर क्या−क्या गुल खिलाते। सभी राजनीतिक दलों ने बुर्का पर पाबंदी के विरोध में स्वर बुलंद किए। ऐसा बहुत कम होता है जब सारे राजनीतिक दल किसी एक मुद्दे पर एक जैसी बात कहें। राजनीतिक दलों का मिजाज चुनाव के अनुकूल बदलता रहता है। यदि वोट बैंक नजर आए तो पैतरा भी बदल लिया जाता है। बुर्का पर प्रतिबंध के मामले में भी यही हुआ है। सभी राजनीतिक दलों को अल्पसंख्यकों के वोट चाहिए। भाजपा और शिव सेना जैसे दलों को वोट नहीं भी चाहिए तो, चुनाव के मौके पर ऐसे बयान छवि बिगाड़ने का काम करते हैं, क्योंकि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। मामला सिर्फ बुर्के तक सीमित नहीं रहेगा। बात भारतीय हिन्दू संस्कृति तक जाएगी। 

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हिन्दू समाज का एक बड़ा तबका आज भी घूंघट प्रथा का समर्थन करता है। विशेष कर गांवों में यह प्रथा जातिगत विभेद के बावजूद सदियों से जारी है। यदि बुर्के पर उंगली उठती तो इस पर भी उठना लाजिमी है। चुनावी मौसम में ऐसे विवादों से राजनीतिक दलों को नुकसान हो सकता था। इसलिए सभी दलों ने इससे बचना ही उचित समझा। इसमें दलों को बुर्के से ना तो राष्ट्रीय सुरक्षा की चिन्ता और ना ही कोई खतरा नजर आता है। बुर्का विवाद भारत में श्रीलंका से आया। श्रीलंका ने आतंकियों के आत्मघाती हमले के बाद सुरक्षा की दृष्टि से एहतियात बरतते हुए बुर्का पर पाबंदी लगा दी। सरकार का यह कदम बुर्का की आड़ में आतंकी वारदात को अंजाम देने से रोकने का रहा। हमले के बाद श्रीलंका सरकार की हालत दूध का जला छाछ भी फूंक−फूंक कर पीने जैसे हो गई।

यह खबर जब भारत पहुंची तो, जाहिर था कि राजनीतिक दल क्रिया−प्रतिक्रिया दिए बगैर नहीं रहेंगे। इसकी शुरूआत शिववसेना के मुखपत्र सामना के सम्पादकीय से हुई। जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनजर बुर्के पर पाबंदी की बात कही गई। इस पर तत्काल प्रतिक्रिया अवश्यंभावी थी। भोपाल से भाजपा प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा ने इसका समर्थन किया। अब बारी अन्य राजनीतिक दलों की थी। इस प्रकरण का जब राजनीतिक नुकसान फायदे की दृष्टि से गुणा−भाग किया गया तो पता चला कि इससे फायदा कम नुकसान होने की संभावना अधिक है। मुद्दा बुर्के तक सीमित नहीं रहेगा। सुरक्षा को लेकर सवाल घूंघट प्रथा पर भी उठेंगे। इससे हिन्दू वोट बैंक प्रभावित होगा।

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इस कदम को हिन्दू संस्कृति विरोधी माना जाएगा, इसका अनुमान लगाते हुए राजनीतिक दलों ने बुर्का प्रकरण से दूरियां बनाने में ही भलाई समझी। भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा के बयान से पल्ला झाड़ लिया। षिव सेना जैसी पार्टी जो अपनी छवि के अनुकूल ऐसा कोई मौका नहीं छोड़ती, तत्काल पलटी मार गई। शिव सेना की ओर से कहा गया कि सम्पादकीय में विचार सम्पादक के निजी हैं। पार्टी में इस पर कोई चर्चा नहीं हुई। पार्टी इसका समर्थन नहीं करती। शिवसेना की तरह भाजपा ने भी आश्चर्यजनक तरीके से बचाव किया। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर आसमान सिर पर उठाने वाली भाजपा सुरक्षा से सीधे जुड़े इस मुद्दे पर कन्नी काट गई। 

भाजपा ने ही तीन तलाक का मुद्दा उठाया था। शिवसेना भी इस मुद्दे पर भाजपा का साथ देने में पीछे नहीं रही। बुर्के का मामला भी सीधे मुसलमानों से जुड़ा हुआ है। किन्तु इस मुद्दे पर वोटों के ध्रुवीकरण के खतरे अन्तर्निहित हैं। एक तीर से दो शिकार की प्रबल संभावना के बाद भी भाजपा ने सोची−समझी रणनीति के तहत इससे दूरी बनाए रखी। दरअसल शिव सेना की तरह भाजपा को भी अंदाजा हो गया कि इस मामले में राजनीतिक रोटी सेकना आसान नहीं हैं। इस मुद्दे की आग से उठी लपटों की तपिश हिन्दू समाज तक जाएगी। इससे विवाद खड़ा होगा। बचाव के लिए शिव सेना और भाजपा के पास ज्यादा कुछ नहीं होगा। 

भाजपा किस आधार पर घूंघट की खिलाफत कर सकेगी। ऐन चुनाव के मौके पर वोट बैंक खिसकने की संभावना रहेगी। यही वजह है कि भाजपा ने बगैर देर किए इस मुद्दे से कदम पीछे खींच लिए। जबकि आतंरिक सुरक्षा से जुड़ा होने के कारण बुर्के पर कई देश पहले ही प्रतिबंध लगा चुके हैं। विश्व में 14 देश अब तक बुर्का पर पाबंदी लगा चुके हैं। इनमें आस्टि्रया फ्रांस, बेल्जियम, तजाकिस्तान इत्यादि शामिल हैं। इन देशों में आतंकवाद का दंश झेला है, जोकि भारत भी लगातार झेल रहा है। इन देशों ने धार्मिक या सांस्कृतिक भावनाओं से इतर जाकर सुरक्षा के मामले में किसी तरह के समझौते से इंकार कर दिया। हालांकि विरोध के स्वर इन देशों में भी उठे। इस्लामिक देशों ने भी इसका तीखा विरोध किया, इसके बावजूद इन देशों ने बुर्के पर पाबंदी बरकरार रखी। 

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भाजपा ने चुनाव में राष्ट्रीय सुरक्षा को को प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाया है। इसके बावजूद यदि भाजपा इससे अलग हो गई तो साफ जाहिर है कि मुद्दा बेशक राष्ट्रीय सुरक्षा से क्यों न जुड़ा हो, यदि वोट बैंक पर असर डालता है तो उसे दरकिनार किया जा सकता है। कांग्रेस से तो ऐसे मुद्दों पर समर्थन दिए जाने की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। कांग्रेस की हालत ऐसे मुद्दों पर सांप−छछूंदर की रही है, जिसे न तो उगलते बन पड़ता है और न ही निगलते। मुद्दा चाहे तीन तलाक का हो, जम्मू−कश्मीर में धारा 370 को हटाने का हो या फिर सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का। कांग्रेस ऐसे मुद्दों पर बगले झांकती रही है। 

कांग्रेस को ऐसे मामलों में हमेश अल्पसंख्यक वोट के खिसकने का खतरा नजर आता है। कमोबेश यही हालत सपा−बसपा और तृणमूल जैसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भी रही है। इन सबका एकमात्र उद्देश्य अल्पंसख्यक वोट बैंक को अक्ष्क्षुण रखना है। ऐसी कोई भी बात या मुद्दा जिससे वोट बैंक इधर से उधर हो सकता हो, राजनीतिक दल हाथ डालने से कतराते रहे हैं। यह निश्चित है कि जब तक सत्ता के लिए वोट बैंक की राजनीतिक हावी रहेगी, तब तक व्यापक संदर्भों में देषहित से जुड़े मुद्दो पर समझौता किया जाता रहेगा।

- योगेन्द्र योगी

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