आजकल के विज्ञापनों में वह बात कहां

विज्ञापन ऐसी चीज है जो उत्पादन को बढ़ा देती है, उत्पादन की पहचान इससे होती है। चाहे उत्पाद कैसा भी हो। उत्पाद से जुड़ जाते हैं कलाकार, तो उनमें भी अक्स दिखने लगता है। लेकिन आजकल लगातार विज्ञापन की दुनिया में बदलाव आ रहे हैं। बाजार है, तो प्रोडक्ट है। प्रोडक्ट है तो विज्ञापन हैं। विज्ञापन हैं तो ग्राहक हैं। लेकिन अस्सी के दशक के विज्ञापनों वाली बात कहां।
जब मैं छोटा बच्चा था, बड़ी शरारत करता था, मेरी चोरी पकड़ी जाती, जब रौशन होता बजाज। इस तुकबंदी को पढ़कर आपके मुंह पर मुस्कान बिखरना अस्वाभाविक नहीं, क्योंकि लंबे समय तक बजाज का यह जिंगल लोगों के दिलो दिमाग पर छाया रहा है। बल्बों की दुनिया में असरानी सिलवानिया लक्ष्मण का विज्ञापन कुछ यूं था- अरे भाई, राम-लक्ष्मण बल्ब देना-एक नहीं, छह-सारे घर के बदल डालूंगा। इसी तरह लाइफबॉय है जहां तंदुरुस्ती है वहां।
दरअसल, उन दिनों यानी अस्सी के दशक में अपने इकलौते दूरदर्शन पर हमाम और टीना मुनीम अभिनीत रिया साबुन के विज्ञापनों की भी धूम थी। इस दौर में कैंपा कोला के साथ ही कोल्ड ड्रिंक थ्रिल का विज्ञापन भी चर्चित रहा। इसमें रति अग्निहोत्री नाचती-गाती हुई फरमाती थी- हम-तुम और थ्रिल, गाए मेरा दिल। लिम्का का लाइम एन लेमनी लिमका जिंगल सुनकर ही मुंह में पानी आ जाता था।
विज्ञापनों की इस दुनिया में हाजमेदार गोली स्वाद की प्रचार पंक्तियां थीं- चाहे जितना खाओ, स्वाद से पचाओ।
इसी तरह लिज्जत पापड़ की ये पंक्तियां सबके मुंह पर थीं- सात स्वाद और सात मजे हैं- कुर्रम-कुर्रम। सर्फ के विज्ञापन में ललिता जी छाई रहीं, तो निरमा का जिंगल भी होठों पर रहता था। असल में, यह वह दौर था, जब विज्ञापनों की अहमियत किसी फिल्मी गीत से कम नहीं थी। लेकिन आज बढ़ते टीवी चैनलों के बीच विज्ञापन जगत में भी घमासान मचा है। आज के किसी भी जिंगल में वह बात नहीं कि जुबान पर चढ़ जाए। रितिक, अमिताभ, शाहरुख, आमिर, करीना, सोनम, ऐश्वर्या, प्रियंका सहित तमाम कलाकार विज्ञापनों में भी नजर आते हैं। लेकिन हर विज्ञापन का असर कुछ दिनों तक ही रहता है और फिर लोग उन्हें भूल जाते हैं।
दरअसल, अब विज्ञापन के बोल या उनकी पंच लाइन में उतनी मेहनत नहीं की जाती। आज कंपनियां यह सोचती हैं कि उनके प्रॉडक्ट का विज्ञापन यदि अमिताभ, सचिन, विराट या धोनी में से कोई कर दे, तो उनकी गाड़ी चल निकलेगी। आज भी आप किसी से दशकों पुराने किसी विज्ञापन की चर्चा कर लीजिए, वह बाकायदा आपको उक्त विज्ञापन की जिंगल गाकर सुनाएगा। आज के विज्ञापन में जल्दी से जल्दी जुबान पर चढ़ाने की कोशिश होती है और वह सीधे तौर पर फिल्मों से जुड़ी होती है। जो जल्द ही सिनेमा के गानों की तरह तुरंत जुबान पर चढ़ कर उतर भी जाता है। इसके लिए विज्ञापन कंपनियां ही जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि डेड लाइन फिक्स होने के कारण ऐसा होता है। अगर इसमें समय दिया जाए तो आज भी वैसे ही विज्ञापन बनेंगे। सब जल्दी में हैं। आज एक-एक कलाकार के पास इतने एसाइनमेंट हैं कि वे किसी भी तरह उसे पूरा करना चाहते हैं जबकि इसी के चक्कर में पटकथा कमजोर होती जाती है और जुबान पर विज्ञापन चढ़ नहीं पाते।
- रचना शाही
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