देवशयनी एकादशी से चार मास तक शयन करते हैं भगवान विष्णु

Lord Vishnu sleeps after Devshayani Ekadashi
शुभा दुबे । Jul 4 2017 11:04AM

मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया था इसलिए उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं।

देवशयनी एकादशी आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। इसे 'पद्मनाभा' तथा 'हरिशयनी' एकादशी भी कहा जाता है। मान्यता है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए बलि के द्वार पर पाताल लोक में निवास करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को 'हरिशयनी एकादशी' तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को 'प्रबोधिनी एकादशी' कहते हैं। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। धार्मिक दृष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं। 

मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया था इसलिए उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर उसे पाताल लोक का अधिपति बना दिया और वर मांगने कहो कहा। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के इस वर से लक्ष्मी जी सोच में पड़ गयीं और उन्होंने बलि को भाई बना लिया और भगवान को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। कहा जाता है कि इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता 4-4 माह सुतल में निवास करते हैं। भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक, भगवान शिव महाशिवरात्रि तक और भगवान ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

इस दिन उपवास करके श्री हरि विष्णु की सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका षोडशोपचार सहित पूजन करके पीताम्बर आदि से विभूषित कर सफेद चादर से ढके गद्दे तकिये वाले पलंग पर उसे शयन कराना चाहिए। श्रद्धालुओं को चाहिए कि इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें। मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रु नाश आदि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें।

कथा

एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। राजा इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इससे चारों ओर त्राहि त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा व्रत आदि सबमें कमी हो गई।

दुःखी राजा सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसका दण्ड पूरी प्रजा को मिल रहा है। फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का उपाय खोजने के लिए राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहां वह ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें प्रणाम कर सारी बातें बताईं। उन्होंने ऋषिवर से समस्याओं के समाधान का तरीका पूछा तो ऋषि बोले− राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी भयंकर दण्ड मिलता है।

ऋषि अंगिरा ने कहा कि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का पूरी निष्ठा के साथ व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और अकाल दूर हुआ तथा राज्य में समृद्धि और शांति लौटी इसी के साथ ही धार्मिक कार्य भी पूर्व की भांति आरम्भ हो गये।

शुभा दुबे

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