बनारसी बुनकरी की विशेषताओं और समस्याओं पर गहराई से प्रकाश डालती है फिल्म ''बुनकर''

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फिल्म ''बुनकर- द लास्ट ऑफ द वाराणसी वीवर्स'' बड़ी बारीकी से मुद्दों का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ती है और सवाल सरकार पर ही नहीं समाज के लिए भी खड़ा करती है कि क्यों हम एक पारम्परिक कला को मरते हुए देख रहे हैं।

भारतीय बुनकरी की विशेषताओं, इतिहास और बुनकरों की समस्याओं पर केंद्रित फिल्म 'बुनकर- द लास्ट ऑफ द वाराणसी वीवर्स' बड़ी बारीकी से मुद्दों का विश्लेषण करते हुए आगे बढ़ती है और सवाल सरकार पर ही नहीं समाज के लिए भी खड़ा करती है कि क्यों हम एक पारम्परिक कला को मरते हुए देख रहे हैं। सत्य प्रकाश उपाध्याय द्वारा निर्देशित फिल्म में दिखाया गया है कि क्यों सरकारों के बड़े-बड़े राहत पैकेजों के बावजूद हथकरघा उद्योग अपनी आखिरी साँसें गिन रहा है। मशीनों ने कैसे हाथ के कारीगर को आर्थिक मजबूरी में पारम्परिक पेशे से अलग कर दिया है यह भी फिल्म में विस्तार से दिखाया गया है।

फिल्म में दिखाया गया है कि दरअसल, भारतीय कला और संस्कृति के विभिन्न आयामों को हम कायम रखने की सिर्फ बातें ही करते हैं जबकि हकीकत कुछ और ही है। आज भी दुनिया में भारतीय हस्तशिल्प का बोलबाला है लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि हथकरघा उद्योग का मशीनीकरण हो जाने के चलते पारम्परिक बुनकर बेरोजगार हो चले हैं, जिन परिवारों में पीढ़ियों से बुनकरी खानदानी पेशे के रूप में चली आ रही थी, वहां नयी पीढ़ी इस परम्परा को आगे ले जाने में हिचक रही है। बनारसी साड़ियां अपनी गुणवत्ता, खूबसूरती और बेहतरीन कारीगरी के लिए विश्व विख्यात हैं। शादी के समय दुलहन को लहँगे पहनने का चलन तो बॉलीवुड फिल्मों ने शुरू किया वरना कुछ समय तक हर लड़की की यही चाहत होती थी कि फेरों के समय वह बनारसी साड़ी ही पहने। लेकिन अब समय बदला है और कभी खुशहाल रहा यह उद्योग आज दम तोड़ता नजर आ रहा है।

इस फिल्म का ट्रैलर इस वर्ष 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस पर जारी किया गया था। फिल्म में बुनकरों और कारीगरों के साक्षात्कारों की बड़ी श्रृंखला है जिससे दर्शकों को यह समझने में बेहद आसानी होती है कि कैसे उद्योग से जुड़े लोग अपने भविष्य के प्रति अनिश्चित हैं। ना तो इस उद्योग से जुड़े बुनकरों को ठीकठाक दैनिक मजदूरी मिलती है और ना ही इनके उत्पादों के लिए बाजार तक सीधी पहुँच का कोई साधन उपलब्ध है।

 

फिल्म प्राचीन नगरी वाराणसी में हथकरघा उद्योग के इतिहास पर भी प्रकाश डालती है। इसमें दिखाया गया है कि यह कला है क्या और कैसे कारीगर इस कला को लेकर गौरवान्वित हैं और बदलते समय में वह क्या सोचते हैं। हथकरघा उद्योग के बारीकी से होते काम, खूबसूरत बनावट और इसकी विश्व भर में लोकप्रियता आदि मुद्दों पर भी विस्तृत रूप से फिल्म में प्रकाश डाला गया है। निर्देशक उपाध्याय ने इस फिल्म को बनाने में लगभग डेढ़ वर्ष का समय लगाया क्योंकि इस मुद्दे को सिर्फ पर्दे पर दिखाना ही उद्देश्य नहीं था बल्कि समस्या की गहराई को प्रस्तुत करते हुए सरकारों पर इसके समाधान के लिए दबाव बनाने का लक्ष्य भी था। निर्देशक बताते हैं कि इस कला के प्रति नयी पीढ़ी को जागरूक करना होगा और कारीगरों की बाजार तक सीधी पहुँच बना कर भी इस मरती हुई कला को जीवनदान दिया जा सकता है।

फिल्म की शुरुआत वाराणसी में गंगा के तट से होती है और बताया जाता है कि कैसे करघा उद्योग कहाँ से कहाँ पहुँच गया। फिल्म की सिनेमेटोग्राफी और बैकग्राउंड म्यूजिक इसकी जान है। यदि आप लीक से हटकर फिल्म देखने के शौकीन हैं और भारतीय कलाओं में रुचि रखते हैं तो निश्चित रूप से आपको लगभग एक घंटे की यह फिल्म पसंद आयेगी। फिल्म के निर्माताओं की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने व्यावसायिक हितों की परवाह नहीं करते हुए एक सामयिक विषय पर फिल्म बनाने का साहस दिखाया। निर्देशक ने कहानी को पटरी से उतरने नहीं दिया है और फिल्म में चालू मसाला डालने से परहेज कर इसे मुख्य मुद्दे पर ही केंद्रित रखा है।

निर्माता- सपना शर्मा, निर्देशक- सत्य प्रकाश उपाध्याय, सिनेमेटोग्राफी- विजय मिश्रा, संगीत- अंकित शाह, एनिमेशन- अमोल खानविलकर।

-नीरज कुमार दुबे

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