सबको परख चुकी है कर्नाटक की जनता, तभी इस बार त्रिशंकु के आसार

may be no one got majority in karnataka elections
कमलेश पांडे । May 10 2018 11:00AM

आगामी 12 मई को होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजर गड़ी हुई है, क्योंकि देश की राजनीति को दिशा देने वाली दो पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी का राजनैतिक भविष्य ही यहां दांव पर लगा हुआ है।

आगामी 12 मई को होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजर गड़ी हुई है, क्योंकि देश की राजनीति को दिशा देने वाली दो पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी का राजनैतिक भविष्य ही यहां दांव पर लगा हुआ है। ऐसा इसलिए कि राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस और केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के अलावा तीसरे मोर्चे का जनता दल सेक्युलर जिस तेजी से यहां अपना जनाधार बढ़ा रहा है, उससे कांग्रेस और बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिलने की संभावनाएं लगभग क्षीण हो चुकी हैं। इससे दोनों दलों का चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि उनके गठबंधन सहयोगियों का मनोबल बढ़ेगा और वो अपनी-अपनी आंखें तरेरने से भी बाज नहीं आएंगे।

यही वजह है कि चुनाव प्रचार के अंतिम दौर में भी चुनावी फिजां को मनमाफिक बदलने के लिए तीनों दलों ने अपने-अपने सभी आजमाए दांव भी चल दिए हैं जिससे यहां का चुनावी मुकाबला रोचक हो चुका है। इसलिए सत्ता का ऊंट अब किस करवट बैठेगा- यह कहना तो जल्दबाजी होगी, लेकिन बीजेपी-जेडीएस के बीच जिस तरह की नई समझदारी विकसित होने के संकेत मिल रहे हैं, यदि उसका रंग मतदाताओं के दिलोदिमाग पर चढ़ गया तो निःसन्देह कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग भी चारों खाने चित्त हो सकती है।

दरअसल, कर्नाटक के कुल 30 जिलों में फैले 224 विधान सभा क्षेत्रों के लगभग 56 हजार पोलिंग बूथ से जुड़े इलाकों से जो सरजमीनी खबरें मिल रही हैं, उससे स्पष्ट हो चुका है कि इस बार 113 सीटों के जादुई आंकड़े को अपने दम पर हासिल कर पाना किसी भी एक दल के बूते की बात नहीं है। ऐसा इसलिए भी कि कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस को यहां की जनता बारी-बारी से आजमा चुकी है और सबकी नीतिगत तंगहाली से वह सुपरिचित होकर लगभग निराश हो चुकी है।

कहने को तो राज्य की 224 सीटों वाली विधानसभा में से लगभग 100 सीटें लिंगायत समुदाय की गोलबन्दी से प्रभावित होती हैं, जबकि अन्य सीटों में लगभग 70 सीटों पर बोकालिंग्गा समुदाय अपना विशेष असर डालता है। शेष सीटों की दशा-दिशा सियासी हवा के झोंकों से तय होता है।

जहां तक जातीय आंकड़ों का सवाल है तो यहां दलितों की आबादी लगभग 19 फीसदी, अनुसूचित जनजाति की 5 फीसदी, लिंगायत की 17 फीसदी, वोक्कालिंग्गा की 11 फीसदी, कुरुबा की 7 फीसदी, ओबीसी की 16 फीसदी, ब्राह्मण की 3 फीसदी और मुसलमानों की 16 फीसदी है। इनमें से लिंगायत को बीजेपी, वोक्कालिंग्गा को जेडीएस और कोरबा को कांग्रेस का समर्थक करार दिया जाता है। अन्य समुदायों की भी अपनी-अपनी रणनीति होती है जो वक्त और जरूरत के हिसाब से बदलती रहती है। मिशन 2019 के लिए भी कर्नाटक विस चुनाव का महत्व बढ़ गया है, क्योंकि यहां 28 लोकसभा सीटों में से 17 बीजेपी, 9 सीटें कांग्रेस और 2 सीटें जेडीएस के पास हैं।

यही वजह है कि उत्तरी कर्नाटक के 12 जिलों की कुल 80 विधानसभा सीटों पर जहां बीजेपी अपनी पुरानी पकड़ बनाना चाहती है, वहीं कांग्रेस अपनी पिछली उपलब्धि को बरकरार रखने को अपना पूरा जोर लगाए हुए है। कांग्रेस के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपनी पुरानी सीट चामुंडेश्वरी (दक्षिणी) के अलावा उत्तर कर्नाटक की बादामी विधानसभा सीट से भी चुनाव लड़ रहे हैं, ताकि विभिन्न निकटवर्ती जिलों, जैसे- बागलकोट, बीजापुर, हावेरी, बेलगावी, धारवाड़, बेलगाम, हुबली और गदग जिले की विभिन्न विधानसभा सीटों पर भी कांग्रेस की हवा बनी रहे।

दरअसल, उत्तर कर्नाटक को प्रायः भाजपा का गढ़ माना जाता है जिसमें कांग्रेस ने बड़ी मुश्किल से अपनी सम्मानजनक जगह बना पाई है। इसलिए कांग्रेस इस बात को नहीं भूली है कि बीजेपी के दो कद्दावर नेता जगदीश शेट्टर और प्रह्लाद जोशी इसी क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। आंकड़े भी इसी बात की चुगली कर रहे हैं कि वर्ष 1985 में भाजपा ने भले ही पहली बार पूरे कर्नाटक में जो 18 सीटें जीती थीं, उनमें से 11 सीट सिर्फ उत्तर कर्नाटक से ही थीं। उसके बाद से ही बीजेपी की नजर उत्तरी कर्नाटक पर भी रही जिससे उसने 1994 में 11 सीट, 1999 में 15 सीट, 2004 में 41 सीट और 2008 में 80 में से 56 सीटें जीती थीं। लेकिन बीजेपी की आंतरिक कलह से परेशान उसके दिग्गज नेता और पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने पार्टी छोड़ दी तो वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा औंधे मुंह गिरी और 56 से सीधे 19 सीटों पर सिमट गई। लेकिन विगत पांच सालों में बीजेपी में बहुत बदलाव आए हैं जिससे वह कांग्रेस को नाकोदम कर रही है। इस बार बीजेपी ने येदियुरप्पा की घर-वापसी करवाकर उन्हें ही भावी मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किया हुआ है जो कि एक मजबूत और सुलझे हुए लिंगायत नेता हैं।

इसी तरह दक्षिण कर्नाटक में जो सात जिले हैं, उनमें कुल 52 विधानसभा क्षेत्र आते हैं। सातों जिले के नाम हैं चामराज नगर, हासन, मांड्या, मैसूर, कोलार, तुमकुर और चिक्कबल्लपुर। सियासी अनुभव बताते हैं कि दक्षिण कर्नाटक में वोक्कालिंगा और दलित मतदाता ही किसी भी उम्मीदवार की जीत और हार तय करते हैं। लिहाजा, इस पूरे क्षेत्र में कांग्रेस और जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) के बीच कांटे की टक्कर होती है। कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री सिद्धारमैया अपनी पहली पसंदीदा सीट चामुंडेश्वरी से भी चुनाव लड़ रहे हैं, ताकि जेडीएस के किले में सियासी सेंधमारी कर सकें।

हालांकि जेडीएस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के लाड़ले और पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी भी अपने वंशानुगत राजनैतिक किले को महफूज रखने के लिए चामंडेश्वरी में हो डेरा जमाए हुए हैं, जिससे यहां का भी चुनावी मुकाबला दिलचस्प हो गया है। बता दें कि फिलवक्त मैसूर की 11 सीटों में से 8 पर कांग्रेस का कब्जा है, जबकि जेडीएस के पास मात्र तीन तथा भाजपा के पास सिर्फ एक सीट है। गौरतलब है कि जेडीएस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा दक्षिणी कर्नाटक के हासन जिले से ही आते हैं जिससे इस क्षेत्र के लोगों की उनसे विशेष सहानुभूति रहती है।

कर्नाटक की सांस्कृतिक घुलनशीलता और जनसंख्या बहुलता को भी अपने-अपने पक्ष में भुनाने से राजनेता बाज नहीं आ रहे। अपने इस नजरिए से भी उन लोगों ने पूरे प्रदेश को छह क्षेत्रों में बांट रखा है। यही वजह है कि कर्नाटक के ओल्ड मैसूर क्षेत्र की 60, बंगलुरु सिटी की 28, हैदराबाद कर्नाटक की 40, बॉम्बे कर्नाटक की 50, सेंट्रल कर्नाटक की 23 और करावली (‌कोस्टल एंड हील्स) की 23 विधान सभा सीटों पर सभी दलों की अलग अलग हैसियत है। कांग्रेस की उपस्थिति जहां सभी क्षेत्रों में कमोबेश बराबर है, वहीं बंगलुरू सिटी और बाम्बे कर्नाटक में बीजेपी की स्थिति अपने सियासी दुर्दिन काल में भी ठीक ठाक रही, जबकि जेडीएस का वर्चस्व ओल्ड मैसूर में बना रहा।

जिलेवार सीटों के विभाजन से भी पता चलता है कि कर्नाटक के दक्षिणी हिस्से यानी कि मैसूर और बंगलुरु के अलावा बाकी क्षेत्रों में जहां जेडीएस अपनी सियासी जमीन तलाश रही है, वहीं बीजेपी को कमोबेश सभी छह क्षेत्रों में कुछ ना कुछ सीटें मिलती रही हैं। हालांकि बीते चुनाव में हैदराबाद और बॉम्बे कर्नाटक के 11 जिले, जिनमें 81 सीटें हैं, में बीजेपी को महज 14 सीटें मिली थीं, जबकि कांग्रेस 50 सीटें जीत ले गई थी। इसीलिए इस बार बीजेपी सतर्क है। उसने इन क्षेत्रों में रेड्डी बंधुओं और श्रीरामलु आदि को ही मैदान में उतार दिया है, ताकि चुनावी पासा अपने हित में पलटा जा सके।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में तेलुगू एवं तमिल भाषा-भाषियों की तरह ही हिंदी भाषा-भाषी मतदाता भी कई सीटों पर जीत-हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यहां पर हिंदी भाषी मतदाताओं में पूर्वांचली लोगों के साथ-साथ मारवाड़ी समुदाय की भी अच्छी खासी आबादी है। खासकर देवनहलि, नेलमंगला, हसकोटा और दौद्धबल्लापुर सहित कई सीटों पर मारवाड़ी मतदाता निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। वहीं, बंगलुरु, मंगलौर, मैसूर तथा हुबली समेत सूबे के सभी बड़े शहरों में उत्तर भारतीय लोग भी रहते हैं जो कांग्रेस-भाजपा को वोट करते आए हैं।

यही वजह है कि कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव (सपा) और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव (राजद) को बतौर स्टार प्रचारक यहां बुलाया है। क्योंकि 'कन्नड अस्मिता' का जो कार्ड सिद्धारमैया ने खेला है, उससे हिंदी भाषा-भाषी लोगों में बहुत नाराजगी है। यही वजह है कि उत्तर भारतीय मतदाताओं की नाराजगी को दूर करने के लिए उत्तर भारतीय नेताओं को इन क्षेत्रों में प्रचार के लिए लगाया गया है। 

-कमलेश पांडे

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