अंदर-बाहर अलग-अलग (व्यंग्य)

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Prabhasakshi

नेता जी ने कहा, "हमारी सरकार ने इतना काम किया है कि अब जनता को हमें वोट देना ही चाहिए।" जब उस परिचित ने पूछा कि आखिर जनता को क्यों वोट देना चाहिए, तो नेता जी ने तपाक से कहा, "क्योंकि हमने इतना काम किया है।"

आजकल के जमाने में सच्चाई की परिभाषा ही बदल गई है। अब सच्चा आदमी वह है जो फेसबुक पर अपनी निजी जिंदगी के हर पहलू को साझा करता है, सिवाय उन चीजों के जो वास्तव में निजी हैं। लोग अपने खाने-पीने की तस्वीरें पोस्ट करते हैं, लेकिन अपने असली विचार नहीं। यह एक नए तरह का त्याग है - व्यक्तिगतता का त्याग।

एक मित्र ने बताया कि एक व्यक्ति विशेष अपने व्हाट्सएप्प स्टेटस पर रोज नई-नई भविष्यवाणियाँ और प्रेरणादायक संदेश पोस्ट करता है। जब उससे पूछा गया कि वह खुद इन पर अमल करता है या नहीं, तो उसने बड़ी मासूमियत से कहा, "भाई, यह तो मेरे पब्लिक रिलेशन के लिए है।" लगता है अब पब्लिक रिलेशन का मतलब लोगों को बोर करना और खुद को महान दिखाना हो गया है।

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एक अन्य परिचित ने बताया कि उसने एक बड़े नेता जी का भाषण सुना। नेता जी ने कहा, "हमारी सरकार ने इतना काम किया है कि अब जनता को हमें वोट देना ही चाहिए।" जब उस परिचित ने पूछा कि आखिर जनता को क्यों वोट देना चाहिए, तो नेता जी ने तपाक से कहा, "क्योंकि हमने इतना काम किया है।" यह तर्क कुछ वैसा ही है जैसे कोई कहे कि आप मुझे खाना परोसो क्योंकि मैंने भूखा रहकर दिन गुजारा है।

एक सज्जन ने मुझसे कहा कि फलां आदमी बहुत अच्छा है, वह हमेशा दूसरों की मदद करता है। मैंने पूछा, "कैसे?" तो उन्होंने बताया कि वह फेसबुक पर जरूरतमंद लोगों की पोस्ट शेयर करता है और बड़े उदारता से कमेंट करता है, "भगवान आपकी मदद करे।" लगता है अब 'सेवा' का अर्थ सोशल मीडिया पर सहानुभूति जताना हो गया है। असलियत में कोई कुछ करता नहीं, बस ऑनलाइन फोटो खिंचवाकर लाइक और शेयर बटोरता है।

आजकल लोग इतने ज्यादा 'सेवा-मूलक' हो गए हैं कि अगर किसी को सड़क पर चलते हुए बुखार आता दिखे, तो तुरंत उसकी फोटो खींचकर फेसबुक पर डाल देते हैं, "आज फिर मानवता की सेवा का अवसर मिला।" बेचारा मरीज तड़पता रहता है, और लोग लाइक और शेयर में लगे रहते हैं।

एक परिचित ने बताया कि एक संत ने कहा है कि प्रभु की भक्ति में ध्यान लगाना चाहिए। जब उनसे पूछा गया कि वह खुद कितना ध्यान लगाते हैं, तो उन्होंने कहा, "ध्यान तो भक्त लगाते हैं, संत तो सिर्फ प्रवचन देते हैं।" लगता है अब अध्यात्म भी एक व्यवसाय हो गया है, जहाँ मुनाफा आत्मिक शांति नहीं, बल्कि दान और दक्षिणा है।

आजकल के संतों की व्यावसायिकता देखिए। एक संत ने अपने प्रवचन में कहा कि प्रभु की कृपा से उनका आश्रम दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। किसी ने पूछा कि प्रभु की कृपा क्या केवल आश्रम तक ही सीमित है, तो संत ने कहा, "नहीं, प्रभु की कृपा तो सर्वत्र है, लेकिन मार्केटिंग के लिए आश्रम का नाम ज़रूरी है।"

अब तो लगता है कि सच्चाई भी एक सोशल मीडिया पोस्ट है- दिखावटी, क्षणिक और लाइक-शेयर की मोहताज। और हाँ, अगर कोई इस सच्चाई पर सवाल उठाए, तो तुरंत उसे ब्लॉक कर दिया जाता है, क्योंकि सच्चाई तो वही है जो हमने पोस्ट की है। बाकी सब झूठ।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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