सरकार का निर्माण (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Dec 27 2021 6:03PM

ऐसी सरकारों में ऐसे लोग खूब शामिल होते हैं जिनपर बलात्कार, अपहरण व हत्या जैसे संगीन मामले लटक रहे होते हैं। सख्त कानून के अनेक पेंच खुले रखे जाते हैं तभी तो गिरफ्त इनसे दूर भागती है। ये कुछ लोग करोड़ों लोगों को अपनी पसंद के निर्णयों की जेल में रखते हैं।

जनाब को चुनाव में मज़ा नहीं आया, उन्होंने अपने गिने चुने शुभचिंतकों की बैठक में दिए भाषण में हाथ जोर जोर से लहरा लहरा कर कहा, यह बहुत नाइंसाफ़ी है कि विधानसभा की कुल सीटों की आधी से एक सीट भी ज़्यादा आ जाए तो भव्य सरकार निर्माण के लिए ईंट, सीमेंट रेत और लोहा इक्कठा हो जाता है। बाकी बंदों ने चाहे जितनी आर्थिक, शारीरिक या दिमागी जान मारी हो बेचारों को मुंह देखते रहना पड़ता है। उनकी ज़िंदगी का स्वाद कड़वा हो जाता है। निर्दलीय या स्वतंत्र लड़कर, जीतकर आने वाले निढाल हो जाते हैं। हमारे देश में टू पार्टी सिस्टम लागू होना चाहिए। यहां नहीं मिल रहा तो अमेरिका से मंगा लो फिर देखो तमाशा। मज़ा तब आए जब एक पार्टी को अस्सी प्रतिशत सीटें मिलें। बहुमत हो तो ऐसा। यहां तो अच्छे कालेज में नब्बे प्रतिशत पर सीट नहीं मिलती सिर्फ एक डिग्री के लिए, वह डिग्री जिससे नौकरी मिलने की गारंटी नहीं मिलती । इनके सौ में से इक्यावन प्रतिशत आ जाएं तो पूरी सरकार अपनी। मंत्री अपने, ठेकेदार अपने, अफसर अपने। सब कुछ अपना ही अपना, दूसरों के लिए सपना, बहुत बेइनसाफ़ी है।

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ऐसी सरकारों में ऐसे लोग खूब शामिल होते हैं जिनपर बलात्कार, अपहरण व हत्या जैसे संगीन मामले लटक रहे होते हैं। सख्त कानून के अनेक पेंच खुले रखे जाते हैं तभी तो गिरफ्त इनसे दूर भागती है। ये कुछ लोग करोड़ों लोगों को अपनी पसंद के निर्णयों की जेल में रखते हैं। ये लोग आम तौर पर जाति, संप्रदाय, धर्म, बल, धन व मीठी बातों के दम पर जीतते हैं। उधर लाखों का कर्ज़ लेकर डिग्री हासिल करने वाले अधिकतर को नौकरी भी बहुत मुश्किल से मिलती है। इनकी तनख्वाह भी इतनी और ऊपर से पेंशन पर आयकर भी नहीं लगता। दूसरे लाखों पेंशनर्स की कमाई एक नंबर की होती है तो भी कर वसूला जाता है। ताक़त का रास्ता हमेशा निरंकुशता की ओर ही जाता है। हर एक के लिए मतदान अनिवार्य हो तब सरकार बने, जाति खत्म कर हम सिर्फ भारतीय रह जाएं, एक क्रमांक के आधार पर पहचाने जाने लगें, तब सरकार बने। आरक्षण खत्म कर दिया जाए तो समानता और एकता आ जाए।

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उनका भाषण खत्म हुए ज़्यादा देर नहीं हुई थी, खबर मिली उनके गिने चुने समर्थकों ने ही उन्हें सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर पहुंचा दिया। उनकी टूटी हुई टांग व फटे हुए सिर पर तीन दर्जन पट्टियाँ बांधनी पड़ी। डाक्टर उनका ईलाज करते हुए घबराए हुए लग रहे थे। उनकी बीमार पत्नी पास बैठी हुए उन्हें लगातार बुरा भला कह रही थी। बेहद प्रशंसनीय और सकारात्मक बात यह रही कि उन्होंने अभी सिर्फ अभ्यास करने के लिए कुछ लोगों के सामने पहली बार मुंह खोला था। उनका चुनाव में खड़ा होना और या सरकार में शामिल होना चार सौ बीस मील दूर था।

इतना लंबा सपना उनके शरीर से सहा नहीं गया, हड़बड़ाकर उठ गए और सोचने लगे कि दिमाग़ क्या क्या गलत बातें सोच रहा था। कैसे कैसे ख़्वाब दिखा रहा था। सरकार भी कहीं ऐसे बनती है। अभी उनकी पत्नी आराम से खर्राटे ले रही थी। उन्हें याद आया आज से नया सप्ताह शुरू हो रहा है, सुबह की चाय बनाने की ड्यूटी उनकी है। उनकी घरेलू सरकार सुबह सुबह गिरने से बच जाए इसलिए उन्होंने उठने में देर नहीं की, अपना चेहरा धोकर, चाय बनाने की तैयारी में जुट गए।

संतोष उत्सुक

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