बापू आ जाओ आपका जन्मदिन मनाना है (व्यंग्य)

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बापू आपको तो हम याद करते ही हैं आपके प्रतीकों को भी हमने काम पर लगा रखा है। आप जिस चश्मे से सबको समभाव से देखने के आदी थे उस चश्मे को हमने सफाई में लगा दिया है।

बापू हम आपकी 150वीं सालगिरह मना रहे हैं इस साल, पहले भी मनाते रहे हैं और आगे भी मनाते रहेंगे। मनाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दुनिया को दिखाने के लिए आपसे बड़ा कोई चेहरा फिलहाल हमारे पास नहीं है। अपनी बहुत-सी बातें छुपाने और दुनिया को दिखाने के लिए भी आपका जन्मदिन मनाना आवश्यक है सो पिछले सालों की तरह इस साल भी मना रहे हैं। आपका चेहरा सामने रख कर हम आसानी से दुनिया को अपने शांतिप्रिय होने का भरोसा दिलाने में सफल हो जाते हैं और अड़ोसियों-पड़ोसियों का सारा प्रपोगेण्डा स्वमेव ध्वस्त हो जाता है। आपके नाम की ताकत से हम भलीभाँति परिचित हैं।

बापू आप तो महान हैं आपको क्या फर्क पड़ता है इन बातों से, हम मन से मनाएँ या मजबूरी में। हम न भी मनाएँगे तो दुनिया तो आपको आपके कामों के लिए याद करती ही है और करती रहेगी। बस यही हमारी मजबूरी है बापू, हम आपके लिए भले ही न मनाएँ पर दुनिया में अपनी लाज रखने के लिए हम मनाएँगे। आप तो जानते ही हैं बापू हमारी मजबूरी को। आपके जाते ही हमने "मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी" नाम का मुहावरा रचकर अपनी भावनाएँ आप तक पहुँचा दी थीं तो हम इस डर से भी साल दर साल आपको याद करने की रस्म निभाते आ रहे हैं कि कहीं लोग हमें मजबूर समझ कर गाँधी न मान बैठें। गाँधी होने से अच्छा और सुविधाजनक बापू आपको याद करते रहना है, जो हम साल में दो बार बिना नागा करते हैं। आपके जन्मदिन और निर्वाण दिवस के आगे अथवा पीछे शनिवार और रविवार आ जाए तो कहना ही क्या, हममें से अधिकांश आपको याद करते हुए लाँग वीकएण्ड की पिकनिक पर निकल लेते हैं।

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बापू आपको तो हम याद करते ही हैं आपके प्रतीकों को भी हमने काम पर लगा रखा है। आप जिस चश्मे से सबको समभाव से देखने के आदी थे उस चश्मे को हमने सफाई में लगा दिया है। चरखा आजकल काम का रहा नहीं फिर भी हम उसे फिल्मी गीतों और कलेण्डर में गाहे-बगाहे स्थान देते रहते हैं। 'चप्पा-चप्पा चरखा चले' गीत आपने सुना ही होगा और यदि नहीं भी सुना है तो हमें बताइए हम विलुप्तप्राय किसी गाँधीवादी से अनुरोध कर उसे आप तक पहुँचाने का प्रयास करेंगे। आपकी लाठी भी हमने रक्षकों के हाथ में थमा दी है जो बिना भेदभाव इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं। आपके तीनों बंदर भी हमारे बहुत काम आ रहे हैं। हमने जनता को उन्हीं की तरह निरीह बना दिया है। जनता न सच देखने के काबिल रही न बोलने के। उसके सुनने का अधिकार हमने नहीं छीना है केवल उस बंदर के कान उमेठे हैं। अब हम जो सुनाना चाहते हैं वह उसे सुनती है। बड़े बुजुर्ग हमेशा से सीख देते रहे हैं कि अच्छा इंसान बनने के लिए अच्छा श्रोता होना जरूरी है सो अच्छा श्रोता हमने बना दिया है अब अच्छा इंसान बनने की जिम्मेदारी उसकी खुद की है।

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बापू केवल सत्य के प्रयोग हम नहीं कर पा रहे हैं और आपके अहिंसा के सिद्धांत हमें रास नहीं आ रहे हैं। दरअसल हमें लगता है, जो सत्य है उसका प्रयोग क्या करना, इसलिए हम झूठ को सच में बदलने का प्रयोग कर रहे हैं। सच और झूठ एक सिक्के के दो पहलू हैं। आपने एक पहलू को देखा, अब हम उसका दूसरा पहलू देख रहे हैं और सिक्के को पूर्णता दे रहे हैं। रही अहिंसा की बात, तो हम सदा अहिंसा की ही बात करते हैं, अशोक और बुद्ध को भी इस सिलसिले में याद करने लगे हैं। हमारा मानना है कि अहिंसा से मानवता की रक्षा हो सकती है पशुधन की नहीं। मानवता की रक्षा के लिए जिस तरह मानव या महामानव होना जरूरी है बापू, उसी तरह पशुधन की रक्षा के लिए थोड़ा पशु होना भी जरूरी है। इसलिए मानवता की रक्षा हम भाषणों में और लेख लिख कर करते हैं और मूक पशुओं की रक्षा पशु बनकर।

आपके जाने के बाद चौथी पीढ़ी आ गई है देश में और जब हम उनको आपके सिद्धांतों के बारे में बताते हैं तो वह घोर विस्मय से मुँह देखती हैं। हमने इतनी प्रगति कर ली है कि हम आजाद कम स्वच्छंद ज्यादा हो गए हैं। हमें आपकी बहुत याद आती है बापू और अब तो आपकी जरूरत भी महसूस होने लगी है। बापू एक बार फिर से आ जाइए, इस स्वच्छंदता से आजादी दिलाने, आपको आना ही होगा- आ जाइए बापू।

-अरुण अर्णव खरे

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