कोरोना से ही नहीं कर्जदारों से भी बचाता है मास्क (व्यंग्य)

Coronavirus mask

आदत को बदलने के लिए उद्दीपन की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी जब तक ठोकर नहीं लगती तब तक अक्ल ठिकाने नहीं आती। यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हुआ है। भरोसा न हो तो आप थार्नडाइक की बिल्ली, पावलव के कुत्ते और कोहलर के बंदर से ही पूछ लें।

कौन कहता है कि नासिका मुख संरक्षक कीटाणु रोधक वायुछानक वस्त्र डोरीयुक्त पट्टिका यानी ‘मास्क’ केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक है? आरंभ में इसका लाभ केवल स्वास्थ्य तक सीमित था। किंतु जैसे-जैसे कोरोना संक्रमण की अवधि बढ़ती गयी इसकी लीलाएँ चहुँदिशाओं में फैल रही हैं। वैसे भी दुनिया में मानव अकेली एक ऐसी प्रजाति है जो कि बिना जाने अपने हाथों से चेहरे छूने के लिए जाना जाता है। उसकी इसी आदत से प्रसन्न होकर श्री श्री श्री कोविड-19 देव जी की प्रतिष्ठापना हुई है। हम सब दिन में कई बार अपना चेहरा छू-छूकर यह चेक करते हैं कि कहीं चेहरे पर जड़े हीरे-मोती गिर तो नहीं गए! विश्वास न हो तो साल 2015 में ऑस्ट्रेलिया के मेडिकल की पढ़ाई करने वाले युवाओं पर चेहरे को छूने की आदत पर किए गए अध्ययन की रिपोर्ट ही पढ़ लें। इसमें ये सामने आया कि मेडिकल स्टूडेंट्स भी ख़ुद इस आदत से मजबूर हैं। अब बताइए मेडिकल के छात्र ही जब इससे अछूते नहीं हैं तो हम किस खेती की मूली हैं। वैसे भी जर्मनी की लिपज़िग यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिक मार्टन ग्रनवाल्ड जी ने इस आदत को हमारी जाति का मूल व्यवहार कहा है। मनोविज्ञान की भाषा में एक ही कार्य को बिना सोचे-समझे 21 दिन तक लगातार करने पर वह आदत बन जाती है। फिर चाहे वह चिंपाजी से मनुष्य बनने की हो या फिर मनुष्य से चिंपाजी।

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कहते हैं किसी आदत को बदलने के लिए उद्दीपन की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी जब तक ठोकर नहीं लगती तब तक अक्ल ठिकाने नहीं आती। यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हुआ है। भरोसा न हो तो आप थार्नडाइक की बिल्ली, पावलव के कुत्ते और कोहलर के बंदर से ही पूछ लें। हाँ यह अलग बात है कि वे अब जिंदा नहीं हैं। जो काम दुनिया की सरकारें नहीं कर सकीं उसे अकेले कोविड प्रभु जी वनमैन आर्मी की तरह पूरा कर रहे हैं। कोविड प्रभु की चरण धूलि से मनुष्य का पशुत्व धीरे-धीरे मिटता जा रहा है। देखिए न उसी के उद्दीपन से लोग मास्क पहनने लगे हैं। इसके पहनने के स्वास्थ्यपरक व गैर-स्वास्थ्यपरक लाभ हैं। स्वास्थ्यपरक लाभ के अंतर्गत अगर आपको खांसी और जुकाम है तो इसे पहनने से सबका लाभ होता है। इसे भीड़-भाड़ वाली जगहों पर अवश्य पहनना चाहिए, पता नहीं किस रूप में कोरोना देव के दर्शन हो जाएँ। वैसे भी आजकल सभी भगवान लंबी छुट्टी पर हैं, और जो बचे हैं उनमें एकमात्र हैं– कोरोना देव जी। जब चाहें, जहाँ चाहें, जैसे चाहें तुरंत प्रकट हो जाते हैं। आजकल इन्हीं का बोलबाला है। इनके दो रूप हैं। एक छोटा और दूसरा बड़ा। छोटा रूप जिसे हम मास्क कहते हैं वह केवल नाक और मुँह ही ढंक पाता है। जबकि बड़ा रूप यानी पीपीई किट तो पूरे बदन को अपने भीतर बसा लेता है। गौरतलब है कि जब तक सांसें हैं तब तक यह पीपीई किट कहलाता है, सांस गई तो यही क़फन बन जाता है। इसलिए जिंदगी और मौत के बीच कोई बहादुरी के साथ खड़ा हो सकता है, तो वह है– मास्क।

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गैर-स्वास्थ्यपरक लाभ के अंतर्गत मास्क अहम किरदार निभाता है। इसके पहनने से कई लाभ हैं। इससे अपनी पहचान छिपा सकते हैं, इसके रंग या स्टाइल को कोड के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। इशारों-इशारों में प्रेम के चक्कर में पड़ सकते हैं। पहले से पड़े हैं तो बदस्तूर चालू रख सकते हैं। कर्जदारों से बच सकते हैं। न किसी को किसी पर शक होगा, फिर घूमो अपने हिसाब से जहाँ चाहे वहाँ। अब तो बाजार में आपके मनपसंद हीरो-हिरोइन, नेता, रोल मॉडल की छवि वाले मास्क आ गए हैं। यदि आपका कोई व्यापार है तो आपकी चाँदी ही चाँदी है। आपका मास्क आपका प्रचार-प्रसार करेगा। लोग कुछ देखें न देखें आपका मास्क अवश्य देखेंगे। लो हो गया आपका प्रचार-प्रसार! यदि मास्क के भीतर चोर-पॉकेट बना लें तो कहने ही क्या! काश आज रहीम होते तो वे मास्क का गुणगान कुछ इस प्रकार करते-

खैर, खून, खांसी, खुशी, बैर, प्रीति, मदपान।

रहिमन दाबे अब दबे, जो पहने मास्क जहान।। 

-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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