हिंदी को जन-जन की भाषा बनाना है तो शुद्ध हिंदी का आग्रह त्यागना होगा

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छोटे बच्चे विज्ञापनों से अधिक प्रभावित होते हैं, यदि विज्ञापन में भी हिंदी के ही शब्दों का इस्तेमाल हो तो कोई कारण नहीं हिंदी का प्रसार ना हो। अंग्रेजी या अन्य भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन अपने देश में तो अपनी भाषा का प्रयोग करना ही चाहिए।

संस्कृत के अलावा हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जैसे लिखी जाती है, वैसे ही बोली जाती है। ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उप भाषाएं एवं बोलियां हैं। हिंदी के जिस रूप को राजभाषा स्वीकार किया गया है, वह खड़ी बोली हिंदी का ही परिनिष्ठित रूप है। सामान्यतः राजभाषा भाषा के उस रूप को कहते हैं, जो राज्य के कार्यों में उपयोग में लाई जाती है। आचार्य नंददुलारे वाजपेई ने कहा कि राजभाषा उसे कहते हैं, जो केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों द्वारा पत्र व्यवहार राजकाज और सरकारी लिखा पढ़ी के काम में लाई जाए। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से हिंदी को राजभाषा का दर्जा तथा 1950 में संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के द्वारा हिंदी को देवनागरी लिपि में राजभाषा का दर्जा दिया गया।

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आधुनिक संचार माध्यमों ने विश्व को एक ही मंच पर ला खड़ा किया है, हिंदी साहित्य को पढ़ा और खोजा जा रहा है, निश्चित ही हिंदी का प्रचार प्रसार बढ़ा है, विदेशों के कई विश्वविद्यालयों में हिंदी सम्मान के साथ पढ़ाया जा रहा है। हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी भाषा के प्रचार और प्रसार की जो हवाबाजी चलती है, उससे क्या हिंदी भाषा लोगों में ग्राह्य बन पाती है ? समाज में बदलाव बहुत तेजी के साथ हो रहे हैं, आज हम हिंदी के शब्दों को अंग्रेजी लिपि में लिख रहे हैं, हमें हिंग्लिश का विकल्प भी मिल रहा है। शहर की तो बात छोड़िए, गांव के हर पारे टोले में इंग्लिश मीडियम स्कूल कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, इसके लिए हम सभी जिम्मेदार हैं। पूर्व के वर्षों में हिंदी दिवस पर कुछ गोष्ठियों के समाचार और कुछ परिचर्चाएं यदा-कदा सुनाई दे जाती थीं, अब तो वह भी कहीं लुप्त सी हो गईं हैं।

हिंदी भाषा और बोली के विस्तार में कुछ हद तक स्वयं उस भाषा के बोलने वाले ही अनचाहे अवरोध उत्पन्न करते हैं। कहीं बोलने में हल्की-सी गलती निकल जाए तो यह तत्काल कटाक्ष करने से नही चूकते। अन्य बोली भाषी लोगों के हिंदी बोलने के लहज़े पर, हिंदी के सुधिजनों के मुख पर मखौल का भाव आ जाता है। टीवी के कार्यक्रम में आप और तुम पर बहस कर मूल विषयों से भटका जा रहा है। शब्दों के खेल में उलझने की अपेक्षा, भावनाओं को समझने में जब तक सक्षम नहीं होंगे, इसके मार्ग में बाधा बनते रहेंगे। संकीर्णता से विस्तार कैसे संभव है ? योगेंद्र यादव जी (अध्यक्ष स्वराज इंडिया) ने भी कहा कि "शुद्ध हिंदी का आग्रह त्यागना होगा। तद्भव शब्दों, उर्दू शब्दों, क्षेत्रीय शब्दों, ज्ञान विज्ञान के शब्दों को भी उसमें शामिल करना होगा। हिंदी के साहित्यकारों का सम्मान करना होगा। बाल और किशोर साहित्य तथा विज्ञान रचना के लिए अनेक अवार्ड देने होंगे।" विद्यार्थियों को अपनी मातृभाषा में अपने विचार, भावनाओं, अनुभवों तथा साहित्य के प्रति सौंदर्य चेतना को अभिव्यक्त करने की आजादी भी देनी होगी, उन्हें विभिन्न भाषा, संस्कृतियों से परिचित तो कराना ही होगा साथ ही हिंदी के प्रति सम्मान एवं श्रेष्ठता का भाव भी जगाना होगा।

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छोटे बच्चे घर में टीवी पर दिन भर चलने वाले विज्ञापनों से अधिक प्रभावित होते हैं, यदि विज्ञापन में भी हिंदी के ही शब्दों का इस्तेमाल हो तो कोई कारण नहीं हिंदी का प्रसार ना हो। अंग्रेजी या अन्य भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है लेकिन अपने देश में तो अपनी भाषा का प्रयोग करना ही चाहिए। हमें सार्वजनिक स्थानों, प्रतिष्ठित मंचों, सामाजिक और शासकीय कार्यक्रमों पर हिंदी भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। संसद, अदालत एवं सरकारी विज्ञापनों में भी हिंदी भाषा प्रयुक्त होनी चाहिए। टेलीविजन और सिनेमा के कलाकारों तथा भारतीय क्रिकेट खिलाड़ियों को भी सार्वजनिक मंचों पर हिंदी का प्रयोग करना चाहिए क्योंकि युवा पीढ़ी उनका अनुसरण करती है। भारत विविधताओं का देश है, यहां की समृद्ध संस्कृति विभिन्न भाषाओं की देन है, हमारी संवेदनाएं हमारी भाषा से विस्तार पाती हैं, इसके प्रति हमारा लगाव अधिक होता है, अपनी भाषा में आत्मीयता का बोध होता है। हिंदी भाषा को इन विभिन्न भाषाओं का सेतु बन कर अपने विशाल हृदय का परिचय देना होगा, यह तथ्य हिंदी प्रेमियों के लिए तथा हिंदी के आत्मीकरण के लिए आवश्यक है। गुरुदेव जी का चरित्र पात्र काबुलीवाला अफगानी होकर भी छोटी-सी बच्ची तक अपनी संवेदनाएं अपनी भाषा में पहुंचा सकता है। महादेवी वर्मा का पात्र चीनी फेरीवाला भी अपनी बात जिस बोली में कहता है, उसे महादेवी जी समझ जातीं हैं। समय की मांग है, माटी पुत्र की अवधारणा से ऊपर उठना ही होगा, अन्यथा 'कूपमण्डूक' भी हिंदी में एक मुहावरा है। मुंशी प्रेमचंद जी ने सही कहा है "यदि आपके पास कहने को कुछ है, तो भाषा कुछ नहीं है, यदि आपके पास कहने को कुछ नहीं है, तो भाषा ही भाषा है।"

-डॉ. परवीन अख्तर

(लेखिका समसामयिक विषयों पर नियमित लेखन कर रही हैं।)

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