असली बीमारियां और दवाईयां (व्यंग्य)

neta

लोकतंत्र को क्यूं पार्टी का माल खिलाते हो। उनसे कई बार प्लीज़ कहा लेकिन वे माने नहीं। इसी दौरान मुझे याद आया कि यही बुद्धिजीवी पिछले महीनों में रसीद बुक लेकर आए थे, घंटी बजाकर गेट खुलने पर बाकायदा नमस्कारजी के बाद निवेदन किया था...

पिछले दिनों वही सज्जन फिर आए लेकिन घंटी का स्विच नहीं दबाया क्यूंकि वक़्त बीमार होने के कारण अपने हाथ को उसका स्पर्श नहीं देना चाहते थे। गेट पर दो तीन हाथ मार दिए, घर में कोई है, कोई है पुकारने लगे। शायद उन्हें याद नहीं रहा शहर में कोरोना कर्फ्यू लगा है सब घर में ही कैद होंगे। यह उन्हें पता था कि उन्हें कोई रोक नहीं सकता क्यूंकि वे पार्टी के बंदे हैं। खैर, गेट ने पुकारा तो मैं गया, वे बोले यह लो जी चार मास्क, मैंने कहा हमारे पास हैं, नहीं चाहिए आप किसी और को दे दें। वे नहीं माने बोले, रख लो सरकार ने भेजे हैं लेकिन अगले ही क्षण बोले पार्टी की तरफ से हैं। हमारे तन और मन ने मन में कहा, लोकतंत्र को क्यूं पार्टी का माल खिलाते हो। उनसे कई बार प्लीज़ कहा लेकिन वे माने नहीं। इसी दौरान मुझे याद आया कि यही बुद्धिजीवी पिछले महीनों में रसीद बुक लेकर आए थे, घंटी बजाकर गेट खुलने पर बाकायदा नमस्कारजी के बाद निवेदन किया था कि भव्य निर्माण के लिए आप जो भी देना चाहें।

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उस दिन उन्होंने पार्टी का नमक दे दिया, चाहे हम उसे चखे या नहीं लेकिन हमारा नाम लिख दिया। मेरी टांग ने समझाया कि अच्छा किया जो मास्क रख लिए किसी के भी काम आ सकते हैं। मास्क लगे उनके चेहरे के पीछे उनका असली चेहरा भी मैंने पढ़ लिया था जो पड़ोस की दीवार पर चिपके एक पोस्टर में विकास की माला जपता दिखता है। मास्क संभालते हुए पत्नी ने भी प्रशंसा की, कि ठीक किया, कहीं उनके पीछे उनके और हम सबके माई बाप न आ रहे हों। इंसान, वास्तव में स्थिति अनुसार रूप बदलने में राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक रूप से बेहद सक्षमजीवी है। वैसे हम आसानी से बदलने वाले नहीं है देश में विचरें या विदेश में, खसलत नहीं जाती।

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सुना है उधर न्यू जर्सी में भव्य निर्माण कर ऊपरवाले को पटाने का कार्यक्रम जारी है और मजदूरों को अवैध रूप से ले जाया गया है। न्यूनतम वेतन की धरती पर सृष्टिरचयिता के आशीर्वाद को प्रयोग कर, नारायण नारायण करते हुए कई साल से मानवता को बदहाल किया जा रहा है। उनकी मेहनत का पसीना अपने खाते में जमा किया जा रहा है। हमारी नीयत की संस्कृति हर जगह समानता, समदर्शिता, नैतिकता, इंसानियत और धर्म के झंडे गाड़ कर अपना नाम रोशन करने पर तुली हुई है। यहां अनुशासन की दवाई नहीं है जो सबको बराबर बंट सके, वहां दवाई सबको खिलाई ही जाती है तो सभी का स्वास्थ्य भी ठीक रहता है।

पार्टी की तरफ से मास्क भेंट करने वाले का कर्म, मुझे नारायण नारायण करने वालों से ज़्यादा सात्विक व व्यवहारिक प्रवृति का लगा। दिमाग, विश्वास का दरवाजा खटखटाते हुए सवाल पूछता रहा कि क्या हमारे ईष्ट जिनके लिए करोड़ों रूपए के ईंट, पत्थर, लोहा, लकड़ी और प्लास्टिक एक जगह लगकर पूजनीय हो जाता है, हमारे कर्मों से प्रसन्न होते होंगे। उन्हें क्या पता, यह खर्च तो हमारे स्वार्थों के तुष्टिकरण के लिए है। क्या हम ही इस समाज की असली बीमारियां है और दवाइयां नहीं हैं।

- संतोष उत्सुक

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