लड़ना जिनकी फितरत है (कहानी)

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विजय कुमार । Dec 3 2018 4:08PM

प्रथम विश्व युद्ध तक सर्वत्र इंग्लैंड की तूती बोलती थी। उसके राज में सूरज नहीं डूबता था; पर द्वितीय विश्व युद्ध में जीतने के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। काका हाथरसी ने लिखा है, ‘‘कह काका जो जीत गया वो हारा समझो। हार गया वो धरती पर दे मारा समझो।’’

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने ‘‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावहः’’ कहा है। अर्थात अपने धर्म में रहते हुए मरना श्रेष्ठ है; पर किसी भी स्थिति में दूसरे का धर्म नहीं अपनाना चाहिए। यहां धर्म का अर्थ स्वभाव से है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि क्षत्रिय होने के नाते तुम्हारा धर्म अन्याय के विरुद्ध लड़ना है। अर्जुन ने बात मान ली और फिर आगे जो हुआ, वह सबको पता ही है।

व्यक्ति को देखें। कोई शांतिप्रिय होगा, तो कोई क्रोधी। कोई स्वभाव से कारोबारी होता है, तो कोई सेवाभावी। कोई आलसी होता है, तो कोई चुस्त। संसार में हजारों तरह के लोग हैं। सब एक से हों, तो जीने का मजा ही न आये। व्यक्ति की तरह देश का भी स्वभाव होता है। भारत शांतिप्रिय देश है। हमने कभी किसी पर हमला नहीं किया; पर बाकी देशों के साथ ऐसा नहीं है। अरब के गरम देश हों या यूरोप के ठंडे देश। वे दूसरों के जन, धन और जमीन पर अधिकार को ही अपना धर्म मानते हैं। वर्तमान लोकतांत्रिक युग में भी उनका यह स्वभाव बना हुआ है।

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प्रथम विश्व युद्ध तक सर्वत्र इंग्लैंड की तूती बोलती थी। उसके राज में सूरज नहीं डूबता था; पर द्वितीय विश्व युद्ध में जीतने के बावजूद उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। काका हाथरसी ने लिखा है, ‘‘कह काका जो जीत गया वो हारा समझो। हार गया वो धरती पर दे मारा समझो।’’ अतः भारत जैसे कई देशों से अपना आधिपत्य उसे छोड़ना पड़ा; पर अब जबरन हस्तक्षेप का यह काम अमरीका ने अपने सिर ले लिया है। ‘मान न मान, मैं तेरा मेहमान’ की तरह वह भी हर जगह अपनी नाक घुसेड़ देता है।

लम्बे समय तक अमरीका और सोवियत रूस में ‘कोल्ड वार’ चली। इसका अर्थ मेरी समझ में नहीं आता। वार होगी, तो दोनों तरफ गरमी आयेगी। बम-गोले चलेंगे और खून-खराबा होगा। फिर भी विद्वान इसे कोल्ड वार कहते हैं। इसका मैदान अफगानिस्तान था। सोवियत रूस वहां कब्जा करना चाहता था; पर अमरीका इसे कैसे बर्दाश्त करता। सो उसने वहां तालिबानी खड़े कर दिये। सोवियत रूस के टूटने से यह कोल्ड वार तो थम गयी; पर तालिबानी क्या करें ? सो वे अपने बाप अमरीका से ही लड़ने लगे; और आज तक यह लड़ाई जारी है।

इसी तरह अमरीका ने इराक से झगड़ा कर लिया। वहां भी कई साल तक मारामारी चली और अंततः सद्दाम हुसेन को फांसी दे दी गयी। पाकिस्तान के साथ अमरीका डबल गेम खेलता है। वह उसे भरपूर पैसे देता है। यह आतंक को बढ़ाने के लिए होता है या मिटाने के लिए, ये वही जाने। पर कहते हैं कि भेड़िये से दोस्ती खतरनाक होती है। ऐसा ही यहां हुआ, जब ओसामा बिन लादेन दिन के उजाले में अमरीका की नाक तोड़कर पाकिस्तान में छिप गया। बाद में अमरीका ने पाकिस्तानी सीमा में घुसकर जिस तरह उसे मारा, यह भी इतिहास में दर्ज है।

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पर लड़ना ही जिसकी फितरत हो, उसे चैन कहां ? सो अमरीका अब चीन से आर्थिक युद्ध में उलझा है। अमरीका की तरह चीन का स्वधर्म भी दूसरों से उलझना ही है। जैसे दो हाथियों की लड़ाई में जंगल के कई पेड़ टूट जाते हैं, ऐसे ही इन दो महाशक्तियों के टकराव से विश्व की शांति जरूर भंग होगी। पर ये लड़ें नहीं तो क्या करें ? क्योंकि लड़ना इनके अस्तित्व के लिए जरूरी है। ऐसे में उस राक्षस की कहानी याद आती है, जो काम न बताने पर अपने मालिक को ही खाने की धमकी देता था। परेशान मालिक ने एक बल्ली गड़वा दी और राक्षस को उस पर चढ़ने-उतरने का काम दे दिया। बस, तब से वह राक्षस व्यस्त है और मालिक मस्त। काश, ऐसा ही कुछ काम रूस, अमरीका, चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को मिले। इससे उनका भला हो या नहीं, पर बाकी दुनिया का भला जरूर होगा।

- विजय कुमार

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