एक नेता के आँसू (व्यंग्य)

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नेता जी का नाम हम रमेश बाबू रख लेते हैं, क्योंकि असल नाम बताने से कहीं वो बुरा ना मान जाएं। रमेश बाबू, राजनीति के महारथी, जब चुनाव का समय आता है तो उनके आँसू भी आ जाते हैं। वो गांव-गांव जाकर जनता की समस्या सुनते हैं।

नेता जी मंच पर आते ही आँसुओं से भरी आँखों और कंपकंपाती आवाज़ में जनता को संबोधित करने लगे, "मेरे प्यारे देशवासियों, आपकी तकलीफें मेरी तकलीफें हैं।" यह सुनकर जनता का दिल पिघल गया, मानो नेता जी उनके दर्द के साथी हों। लेकिन सच्चाई क्या है? आइए, इस व्यंग्य के माध्यम से जानें।

नेता जी का नाम हम रमेश बाबू रख लेते हैं, क्योंकि असल नाम बताने से कहीं वो बुरा ना मान जाएं। रमेश बाबू, राजनीति के महारथी, जब चुनाव का समय आता है तो उनके आँसू भी आ जाते हैं। वो गांव-गांव जाकर जनता की समस्या सुनते हैं, लेकिन जैसे ही कैमरा बंद होता है, उनके चेहरे की हँसी वापस आ जाती है। 

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रमेश बाबू का गाँव दौरा किसी फिल्म के शूटिंग जैसा होता है। गाड़ी से उतरते ही, उनका पहला कदम धूल-मिट्टी में नहीं पड़ता, बल्कि रेड कारपेट जैसा बिछाया गया सफेद कपड़ा पर पड़ता है। गांव वालों के बीच जाते ही, वो एक किसान को गले लगाते हैं, मानो बहुत ही अपनापन हो। लेकिन जैसे ही किसान की हालत का जायजा लेते हैं, उनके मन में विचार आता है, "कैसे लोग हैं ये, इतने गंदे कपड़े पहनते हैं।"

जब वे किसी गरीब के झोपड़े में बैठते हैं तब उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। लेकिन ये आँसू उनके दुख के नहीं, बल्कि उन कीड़े-मकोड़ों से बचने के लिए होते हैं जो उनके शरीर पर रेंग रहे होते हैं। उन्हें देखकर लगता है जैसे वो किसी सर्कस के जोकर हों, जो लोगों को हँसाने के लिए ही बनाए गए हैं।

उनके हर भाषण में एक ही राग होता है, "हम आपकी गरीबी मिटा देंगे, रोजगार दिलाएंगे, सबको शिक्षा मिलेगी।" लेकिन उनके मन में चलता है, "ये सब बातें सिर्फ चुनाव जीतने के लिए हैं। असल में, इनकी हालत में सुधार हो भी गया तो हमारी राजनीति का क्या होगा?"

रमेश बाबू का असली चेहरा तब सामने आता है जब वो अपनी आलीशान कोठी में पहुँचते हैं। वहाँ पहुंचकर वो अपने साथियों के साथ हँसी-मजाक में लग जाते हैं, "अरे भाई, आज फिर से जनता को बेवकूफ बनाया। देखा कैसे रोना शुरू कर दिया जब मैंने उनकी गरीबी की बात की?" और सब ठहाके मारकर हँसते हैं।

उनकी ये दोहरी जिंदगी देखकर लगता है जैसे वो जनता के दुख से नहीं, अपने ड्रामे से रोते हैं। उनकी आँखों के आँसू नकली हैं, और हँसी असली। 

रमेश बाबू की रणनीति यही होती है कि चुनाव के पहले जनता के बीच जाकर थोड़ी बहुत सहानुभूति बटोर लो, और चुनाव के बाद उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो। उनके भाषण में सच्चाई कम और फिल्मी डायलॉग ज्यादा होते हैं। "हम देश को बदल देंगे", "आपके बच्चे हमारे बच्चे हैं", ये सब उनके पसंदीदा संवाद हैं। लेकिन हकीकत में, उनके बच्चे विदेशी स्कूलों में पढ़ते हैं, और जनता के बच्चे सरकारी स्कूलों में बिना किताबों के।

एक बार, रमेश बाबू ने चुनाव के दौरान एक बच्चे को अपने गोद में उठाया, और कैमरे के सामने कहा, "माताजी, तुम्हारी सारी समस्याएँ मैं हल करूंगा।" लेकिन कैमरा बंद होते ही, उन्होंने अपने साथियों से कहा, "इसका लड़का कितनी भारी है, मेरे हाथ दुख गए। न जाने किस चक्की का आटा खिलाती है"

उनकी राजनीति का एक और नमूना देखिए, जब वो अस्पतालों का दौरा करते हैं। मरीजों के बिस्तर पर बैठकर फोटो खिंचवाते हैं, और कहते हैं, "हम आपके साथ हैं।" लेकिन जैसे ही मरीज उनसे अपनी समस्या बताने की कोशिश करता है, वो इधर-उधर देखने लगते हैं, मानो वहाँ से भागने का रास्ता खोज रहे हों।

रमेश बाबू का हर कदम, हर हँसी और हर आँसू, राजनीति के रंगमंच का हिस्सा है। उनकी असलियत तब सामने आती है, जब चुनाव जीतने के बाद वो जनता के बीच नहीं, बल्कि अपने बड़े-बड़े बंगले में नजर आते हैं। 

उनकी इस दोहरी जिंदगी का एक और पहलू तब नजर आता है, जब वो गरीबों की बस्ती में जाते हैं। वहाँ जाकर उन्हें हर जगह गंदगी और बदबू महसूस होती है। लेकिन कैमरे के सामने आते ही, वो कहते हैं, "यहाँ की हालत देखकर मेरा दिल दुखी हो गया। हम जल्द ही यहाँ सफाई अभियान चलाएंगे।" और जैसे ही कैमरा बंद होता है, वो तुरंत अपनी गाड़ी में बैठकर एयर फ्रेशनर छिड़कते हैं।

रमेश बाबू की इस राजनीति को देखकर जनता का विश्वास टूट जाता है। लेकिन वो फिर भी हर बार उनके झूठे वादों और नकली आँसुओं में फंस जाते हैं। रमेश बाबू जानते हैं कि जनता को कैसे मूर्ख बनाना है, और वो इस कला में माहिर हैं। 

उनकी हँसी, उनके आँसू, सब कुछ एक खेल का हिस्सा है। वो जनता को देखकर रोते हैं, और मन ही मन हँसते हैं। 

नेता जी का ये नाटक चलता रहता है, और जनता उनकी इस अदाकारी में हर बार फंस जाती है। रमेश बाबू जैसे नेता हमारी राजनीति की सच्चाई हैं, जो अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए जनता के भावनाओं का खेल खेलते हैं।

- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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