सबसे बड़ी परेशानी है अनुशासन (व्यंग्य)

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संतोष उत्सुक । Oct 12 2021 4:13PM

अच्छे इतिहास में दर्ज है कि कुछ समय पहले उधर जब हमारे पुराने भाई चीन के घर कोरोनाजी आए हुए थे हमने उनके आने से कोई सबक नहीं लिया लेकिन अरबों रूपए की बातें गांधी और विवेकानंद के बारे हुई जिनसे सारी परेशानियां बहुत जल्दी दूर होती दिखी।

हमारी गर्दन पकड़ कर रखना परेशानियों की पुरानी आदत है। यह परेशानियां पारिवारिक, स्थानीय, धार्मिक, जातीय राजनीतिक, राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय दर्जनों तरह की होती हैं। हमने जात पात, अधर्म, बेरोज़गारी और कुराजनीति जैसी परेशानियों से निबटने के लिए ठोस आर्थिक उपाय किए, स्थिति पूरी सुधरी नहीं अनेक शक्तिशाली आर्थिक परेशानियां आती रहीं। स्थायी सरकार जैसे बढ़िया उपाय ने कई अस्थायी परेशानियां दूर की तो कोरोना जैसी अदृश्य ताकत ने सभी दिखने वाली ताकतों के लिए परेशानी पैदा कर दी। सुबह से शाम तक यही होता रहा ये न करो वो न करो, बस ऐसा न करो वैसा करो। इस परेशानी ने अनगिनत डॉक्टर उगा दिए और मरीज परेशान कि किस की बताई बात खाऊं या दवाई मंगवाऊं।

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अच्छे इतिहास में दर्ज है कि कुछ समय पहले उधर जब हमारे पुराने भाई चीन के घर कोरोनाजी आए हुए थे हमने उनके आने से कोई सबक नहीं लिया लेकिन अरबों रूपए की बातें गांधी और विवेकानंद के बारे हुई जिनसे सारी परेशानियां बहुत जल्दी दूर होती दिखी। कोरोना के इलाज को लेकर अब हम सिर्फ विश्वविजेता ही नहीं विश्वगुरु बनकर निकल चुके हैं लेकिन फिलहाल पिछले सौ बरस के जीवन काल में पहली बार सबसे बड़ी परेशानी जो आई है वह है अनुशासन का आना और आना ही नहीं एकदम धमाके के साथ आना और लागू हो जाना और जो पालन न करे उससे पालन करवाना।  

फिलहाल  सबसे बड़ी मुसीबत यह हो गई है कि समाज में इतना ज्यादा अनुशासन आ चुका है बनाए रखने के लिए कि पता ही नहीं चलता क्या करना था और क्या हो गया। क्या करना रह गया यह पता चलने से ज़्यादा परेशानी होती है। चाहते कुछ हैं लेकिन हुआ कुछ और ही जाता है। वैसे तो ज्ञानीजन हमेशा कहते है कि काम करना तो वैसे ही मुश्किल काम है और अनुशासन में रहना या अनुशासन से काम करना तो ज्यादा ही मुश्किल  काम है। कोई काम न करे लेकिन अनुशासनात्मक ईमानदारी से ज़िम्मेदार ठहराना आसान नहीं है। 

देख लीजिए इतना कुछ हो जाने के बाद भी महामारी जाने के बाद के नियमों का पालन करवाने के लिए अनुशासन बनाए रखना कितना मेहनत का काम हो गया है। इतनी सामाजिक योजनाएं बनाना कितना समय बुद्धि और धन खर्च करवाती हैं लेकिन उनके कार्यान्वन में अनुशासन बनाए रखना कितना दूभर है।

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पिछले कितने दशक की मेहनत हमने खुद को और दूसरों को अनुशासन की कक्षा से बाहर करने में लगाई। अब प्रोफेसर कोरोना जब से ज़िंदगी का नया अनुशासन समझा कर गए हैं तब से सब अनुशासन का राग अलाप रहे हैं। ज़बान पर मास्क का ताला लगा दिया है अपनी नाक, कान, आंख को छू नहीं सकते। एक दूसरे पर थूकते थकते नहीं थे अब कहते हैं थूकना ही मना है। हाय, हमारी ऐतिहासिक महारत का क्या होगा  जिससे हम अपने थूक में जाति, सम्प्रदाय, धर्म, राजनीति, नफरत मिला देते थे। अनुशासन लागू करना ऐसी योजना है जिसे लागू करते करते कई तरह के अनुशासन टूट जाया करते हैं।

- संतोष उत्सुक

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