ताला तो लगा है, लेकिन दिल का क्या करें (व्यंग्य)

“ताला तो लगा है, लेकिन दिल का क्या करें?”—ये संवाद बूढ़े हरिया ने टाँग दिए थे अपने दरवाज़े पर, और हर आने-जाने वाला इसे पढ़कर मुस्कुरा देता था। किसी ने कहा—“हरिया चाचा, आप तो शरद जोशी हो गए।”
शहर के बीचोबीच जो मोहल्ला था, वह किसी जमाने में 'आदर्श नगर' कहलाता था। अब बस ‘नगर’ बचा था, आदर्श तो नेताओं की तरह गायब हो चुका था—सूचना का अधिकार डालिए, पर नहीं मिलेगा। मोहल्ले की एक पहचान थी—हर घर में एक ताला ज़रूर लटकता था, मगर चोरी हर चौथे दिन होती थी। ताले बस शोपीस बन चुके थे, जैसे संसद में बहस। कहते हैं, जो घर लुटता है, वही साक्षात प्रमाण होता है कि वहाँ कुछ था। और जहाँ कुछ न हो, वहाँ लुटेरे भी इज्ज़त से बगल से निकल जाते हैं, जैसे नेताओं के वादे चुनाव बाद।
“ताला तो लगा है, लेकिन दिल का क्या करें?”—ये संवाद बूढ़े हरिया ने टाँग दिए थे अपने दरवाज़े पर, और हर आने-जाने वाला इसे पढ़कर मुस्कुरा देता था। किसी ने कहा—“हरिया चाचा, आप तो शरद जोशी हो गए।” चाचा बोले, “बेटा, मैं तो वही हूँ, बस ‘जोशी’ के बदले ‘लोची’ बन गया हूँ, रोज़ का लुटा, रोज़ का रोता।” हरिया का घर आखिरी बार लुटा था पिछली होली पर, जब चोर रंग-गुलाल के बहाने घर से सारी मिठाइयाँ और रेडियो ले गए थे। पुलिस आई थी, पंचनामा बना और जाते-जाते बोली, “कुछ मिले तो बताएँगे”—जैसे गंगा में सिक्का फेंको और ऊपर से बोलो—"हे माँ, वापसी में रिटर्न गिफ्ट मत देना।”
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लोगों ने सीखा था, जहाँ पुलिस हो, वहाँ रिपोर्ट लिखाने से बेहतर है घर का सामान फिर से खरीद लेना। मोहल्ले में चर्चा थी कि ताले अब सिर्फ इसलिए लगाए जाते हैं ताकि चोरों को लगे कि कुछ तो है अंदर—जिसे वे लूट सकें। ये विश्वास था या फ्रॉड की रणनीति, कोई नहीं जानता।
बबलू ने नया फ्रिज खरीदा था। दो दिन बाद ही मोहल्ले का चोर ‘चम्पक’ सपने में आ गया—“भाई, उस फ्रिज में सिर्फ पानी रखा है। अगली बार कुछ और लाना, नहीं तो ताला भी वापस कर देंगे।” बबलू रो पड़ा—“चम्पक भैया, फ्रिज मेरी बीवी की पहली कमाई से आया था, उसके साथ तुम्हारा ये व्यवहार!” चम्पक ने सॉरी बोला और अगली रात ताला लौटा गया। मोहल्ले में चर्चा थी—"अपने चम्पक में इंसानियत बची है।”
शहर में एक ‘ताला टूटा अभियान’ शुरू हुआ। प्रशासन ने बैनर लगाए—“ताला टूटे, तो घबराइए मत। हम हैं ना!” लोग बोले—“ताला टूटे से ज्यादा डर तो तुम्हारे बैनर देखकर लग रहा है।” जैसे ही मोहल्ला विकास प्राधिकरण ने गली पक्की की, चोरी बढ़ गई। एक मोहल्लेवासी ने चिठ्ठी लिखी—“सड़क पक्की की, चोरों की सुविधा भी पक्की कर दी। अब तो गाड़ियों में लूटकर भागते हैं।”
पिछले महीने एक शादी हुई थी। दूल्हा-दुल्हन स्टेज पर फोटो खिंचवा रहे थे और पीछे से कोई पूरा दहेज ट्रक में लाद ले गया। CCTV ने पूरा वाकया रिकॉर्ड किया, लेकिन पुलिस ने कैमरा देखकर कहा—“छवि तो साफ़ है, पर आरोपी धुंधले हैं।” शादी के बाद दूल्हा बोला—“मुझे तो दुल्हन चाहिए थी, पर अब ट्रक के काग़ज़ भी मेरी जिम्मेदारी बन गए हैं।” मोहल्ले वालों ने इसे ‘ट्रक विवाह’ नाम दे दिया।
कभी-कभी मोहल्ला इतना संवेदनशील हो जाता था कि अगर कोई चोर पकड़ भी लिया जाता, तो लोग उसकी हालत देखकर दया खा लेते। एक बार चम्पक पकड़ा गया। बोला—“साहब, मैं मजबूरी में चोर बना। पिताजी RTI में गए थे, जवाब नहीं आया, माँ मनरेगा में रजिस्टर्ड थीं, पर काम नहीं मिला, बहन को शादी में साड़ी देनी थी, सो पंखा चुरा लिया।” सुनकर थानेदार रो पड़ा और बोला—“बेटा, तू भर्ती हो जा पुलिस में। तेरी भाषा में वो दर्द है जो अफसरों के आदेश में नहीं।”
सबसे दर्दनाक कहानी थी रमेश बाबू की। एक ज़माने में पोस्टमास्टर थे। अब घर में चिट्ठियाँ नहीं आतीं, सिर्फ बिजली के बिल और कोर्ट के नोटिस आते हैं। उनका ताला छह बार टूटा, पर कभी चोरों को कुछ मिला नहीं। अंत में उन्होंने ताले की जगह एक थाली टांग दी, जिस पर लिखा था—“भैया, अब कुछ नहीं बचा। आखिरी चाय भी खुद बना ली। ताला मत तोड़ना, आत्मा पहले ही चुराई जा चुकी है।”
उस रात बारिश हो रही थी, बिजली गुल थी। रमेश बाबू अपने टूटे ताले को निहारते हुए बैठे थे, आँखें भर आई थीं। दूर से एक गीत बज रहा था—“ये ताले भी अब रोते हैं…”। मोहल्ले की गलियाँ सूनी थीं, और ताले जैसे चुपचाप खड़े थे—कहते हुए—“हमें तोड़ो, लेकिन हमें मत लजाओ… हम तो सिर्फ प्रतीक हैं, खोखलेपन के।”
- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,
(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
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