भारत विरोधी एजेंडे की PhD वाली अरुंधति रॉय, जानें बात में कितना है दम

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अभिनय आकाश । Dec 27 2019 7:59PM

अरुंधति रॉय ये कह रही हैं कि जब सरकार एनआरसी का डेटा एकट्ठा करने के लिए आए तो देश के लोगों को अपना नाम नहीं बताना चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि मेरा नाम रंगा-बिल्ला है और अपना पता बताने की बजाए कहना चाहिए कि वो 7 रेस कोर्स में रहते हैं।

नागरिकता कानून को खराब बताकर इसके विरोध का फैशन जबरदस्त तरीके से फैल रहा है। इतनी तेजी से शायद कोई महामारी भी नहीं फैलती होगी। जितनी तेजी से इससे जुड़े अफवाहों की बीमारी हमारे देश में फैल रही है। वैसे तो बहुत से लोगों ने नागरिकता कानून को देश के लिए खतरा बताया है। विरोध प्रदर्शन के नाम पर देश में हिंसा फैलाने वालों की साजिश में दो तरह के लोग शामिल हैं। पहले लोग बसों को जलाकर, पुलिस पर पत्थर फेंक कर हिंसा कर रहे हैं। दूसरे वर्ग में वो लोग हैं जो हिंसा फैलाने में हथियारों का नहीं बल्कि विचारों का सहारा ले रहे हैं। इनमें से ही एक हैं अरूंधति राय, नाम तो सुना ही होगा।

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अरुंधति रॉय ये कह रही हैं कि जब सरकार एनआरसी का डेटा एकट्ठा करने के लिए आए या कोई और नागरिकता से संबिधित डेटा एकट्ठा करने के लिए आए तो देश के लोगों को अपना नाम नहीं बताना चाहिए। उन्हें कहना चाहिए कि मेरा नाम रंगा-बिल्ला है औऱ अपना पता बताने की बजाए कहना चाहिए कि वो 7 रेस कोर्स में रहते हैं। 7 रेस कोर्स प्रधानमंत्री का आधिकारिक निवास है। क्योंकि जो खुद अपने देश के बारे में भी अपमानजनक बाते करने और अपने ही देश को पूरी दुनिया में जाकर बदनाम करने का पुराना इतिहास रहा है। 

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सबसे पहले आपको ये बता देते हैं कि अरुंधति रॉय हैं कौन

अरुंधती रॉय देश की उन गिनी-चुनी हस्तियों में हैं, जिन्होंने लेखक के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मुकाम हासिल किया है। अरुंधती रॉय ने '90 के दशक में 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' लिखकर ख्याति हासिल की थी। कहानी के प्रवाह और भाषा के जादू के लिए 'द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स' को आज दुनिया के जाने-माने उपन्यासों में गिना जाता है, और वर्ष 1997 में रॉय को इसके लिए प्रतिष्ठित बुकर सम्मान भी मिला था। अरुंधती ने वर्ष 2002 में नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थन में एक लंबा लेख लिखा - 'द ग्रेटर कॉमन गुड'। बुकर विजेता अरुंधती के इस लेख ने जहां एक ओर नर्मदा पर बन रहे सरदार सरोवर बांध समेत तमाम बांधों के प्रभावों पर दुनिया का ध्यान खींचा, वहीं उनकी काफी आलोचना भी हुई। लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने उन पर अतिशयोक्ति अलंकार का इस्तेमाल करने और तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने का आरोप लगाया। गुहा ने 'अरुण शौरी ऑफ लेफ्ट' शीर्षक से एक लेख लिखा और कहा कि अरुंधती रॉय दक्षिणपंथियों की तर्ज पर वामपंथी अतिवादियों की तरह हैं।

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अब आपको अरुंधति रॉय के दूसरे पहलू से भी रूबरू करवाते हैं। आजकल नागरिकता कानून और एनआरसी पर जो विरोध का फैशन चल रहा है उसमें अरुंधति रॉय भी शामिल हो गई हैं। अरुंधति रॉय कश्मीर के मुद्दे पर ऐसी-ऐसी बातें कह चुकी हैं जिन्हें आप सुनेंगे तो कहेंगे की कोई भारतीय नागरिक तो कम से कम ऐसा नहीं कह सकता। ये हैं अरुंधति रॉय मानवाधिकारों की सेल्फ डेक्लेयर्ड चौपिंयन। कहने को तो ये भारतीय नागरिक हैं लेकिन इनकी बातों को सुनकर भारत के दुश्मनों को इनसे लगाव हो जाएगा।

तारीख 24 अक्टूबर 2010, जगह- श्रीनगर- दो हफ्ते पहले मैं रांची में थी पत्रकार ने मुझसे पूछा- मैडम क्या आप भारत को कश्मीर का हिस्सा मानती हैं? मैंने कहा- सुनो, कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं रहा। 

भारत के अभिन्न हिस्से जम्मू कश्मीर में ही बैठकर अरुंधति रॉय कश्मीर को भारत से अलग बता रही हैं। सिर्फ कश्मीर मुद्दा ही नहीं भारत का विरोध अरुंधति रॉय का पुराना एजेंडा रहा है। जिसके सहारे उन्होंने दुनिया के विभिन्न मंचों पर खूब पब्लिसिटी बटोरी। 

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15 नवंबर 2011, जगह- शिकागो- मैं बहुत स्पष्ट करना चाहती हूं। एक बात ये है कि जब भारत कश्मीर पर कई तरीके से अत्याचार कर रहा है। तो कब्जा भारत को भी अत्याचारी बना रहा है। जब भी कश्मीर में चुनाव होते हैं। वहां के लोगों को ये कहा जाता है कि ये चुनाव स्थानीय सुविधाओं का फिर म्यूनिसिपल चुनाव है। ये आजादी के लिए नहीं है। ये बहुत ही गंभीर स्थिति बन जाती है। जैसे ही लोग जाकर मतदान करते है तो ये कहा जाता है कि कश्मीर के लोग अलग नहीं होना चाहते हैं। हर वो देश जो अपने को लोकतांत्रिक कहता है उसके पास ये अधिकार तो नहीं होता कि वो लोगों को अपने साथ रहने पर मजबूर करे। 

पूरी दुनिया में घूम-घूम कर अरुंधति रॉय कई वर्षों से ये प्रचार करने में लगी कि भारत कश्मीर में कितना अत्याचार कर रहा है। भारत का लोकतंत्र कितना फर्जी है। अरुंधति रॉय की नजर में उनका ही देश जुल्म और अत्याचार की जगह है। 

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17 जून 2011, जगह- लंदन- मैं भारत जैसी जगहों के बारे में बात कर रही हूं। कश्मीर या मणिपुर में जो चल रहा है। नागालैंड और मिजोरम में जो चल रहा है। जैसे ही भारत संप्रभु राष्ट्र बना, जैसे ही भारत उपनिवेशवाद से आजाद हुआ। खुद वैसा ही बन गया। 197 से कश्मीर में लड़ाई छेड़ रखी है। मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम, तेलांगाना, पंजाब, कश्मीर, गोवा, हैदराबाद अगर आप देंखेंगे तो ये ऐसी जगह है जो हर तरफ युद्ध चल रहा है। पाकिस्तान ने भी ऐसा नहीं किया है। 

इन्ही एंटी इंडिया बातों के जरिए अरुंधति रॉय ने दुनियाभर में अपनी मार्केटिंग की है। वो कश्मीर के अलगाववादियों की लाडली हैं। भारत का ही खून बहा रहे माओवादियों और नक्सलियों की चहेती हैं। ऐसा लगता है कि जैसे अरुंधति रॉयने भारत के विरोध में पीएचडी की हुई है। 

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अरुंधति रॉय ने अल्पसंख्यकों पर अत्याचार को 26/11 मुंबई हमले की वजह बताया था और अफजल गुरू की फांसी के विरोध में अलगाववादियों के साथ प्रदर्शन किया था। 

वर्ष 2011 में जेएनयू में आयोजित एक कार्यक्रम जिसमें अरुंधती राय ने भाग लिया था में भारत सरकार और संविधान के विरोध में नारे लगाने के साथ-साथ राष्ट्रीय चिन्ह को जूते के तले दिखाए जाने वाले पर्चे भी बांटे गए।

संसद पर हुए हमले की सच्चाई पर सवाल उठाते हुए अरुंधति रॉय ने अफज़ल गुरु के बचाव में लिखा और तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी पर सवाल उठाए। इसके बाद वर्ष 2002 में गुजरात के दंगों और वर्ष 2009 में बस्तर में शुरू किए गए 'ऑपरेशन ग्रीन हंट' की वजह से वह चर्चा में रहीं। तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदम्बरम को उन्होंने बस्तर में चल रही जंग का सीईओ कहा था। 

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भारत कई वर्षों से अरुंधति रॉय को और उनके देश विरोधी विचारों को सह रहा है। भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती भी यही है कि ऐसे देश विरोधी और छोटी सोच वाले कथित बुद्धिजीवियों को भी अपना एजेंडा चलाने की पूरी आजादी यहां पर मिलती है। लेकिन हर आजादी अपने साथ जिम्मेदारी लेकर आती है और अरुंधति रॉय के बयान सुनकर लगता है कि वो ये जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं है। 

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