सिकंदर को झुकाया, ब्रिटेन-रूस-अमेरिका जैसे 3 सुपरपॉवर को हराया, उस अफगानिस्तान से क्या पाकिस्तान जीत सकता है?

दुनिया के तमाम मुल्कों पर कब्जा करने वाले अंग्रेज अफगानिस्तान पर कभी तसल्ली से शासन नहीं कर पाए। हालिया इतिहास की बात करे तो दुनिया की दो महाशक्तियां सोवियत संघ और अमेरिका दोनों अफगानिस्तान में बड़े-बड़े अरमान लेकर आए लेकिन उन्हें बेहिसाब बर्बादी और निराशा के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ।
सदियों पुरानी एक कहानी है, सिकंदर महान की जिसे दुनिया विश्व विजेता का तमगा पहनाती थी। जब सिकंदर ने अपने अभियान की शुरुआत की। उसके रास्ते में पड़ने वाले साम्राज्य एक-एक कर नतमस्तर होते चले गए। एक साल के भीतर उसने एंटोलियो, मेसोपोटामिया और पर्सिया पर कब्जा कर लिया। आगे अफगानिस्तान था। सिकंदर को लगा ये तो कुछ दिनों की बात है। लेकिन वहां पहुंचने पर उसका गणित उल्टा पड़ गया। एक अंतहीन जंग शुरू हो गई। छोटे-छोटे अफगान कबिलों ने सिकंदर की सेना को हांफने पर मजबूर कर दिया। इसमें तीन बरस बीत गए। कुछ लोगों का मानना है कि सिंकदर के हिंदुस्तान न जीत पाने की एक वजह ये भी थी। अफगानिस्तान की सेना ने उसे खूब थका दिया था। उसी समय से एक कुख्यात लाइन चलने लगी " Afghanistan is the graveyard of empiers"ये केवल सिकंदर की बात नहीं है 19वीं सदी में ब्रिटिश राज में भी यही रवायत देखने को मिली। दुनिया के तमाम मुल्कों पर कब्जा करने वाले अंग्रेज अफगानिस्तान पर कभी तसल्ली से शासन नहीं कर पाए। हालिया इतिहास की बात करे तो दुनिया की दो महाशक्तियां सोवियत संघ और अमेरिका दोनों अफगानिस्तान में बड़े-बड़े अरमान लेकर आए लेकिन उन्हें बेहिसाब बर्बादी और निराशा के अलावा कुछ हासिल नहीं हुआ।
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पिछले हमले जब दिल्ली में अफगानिस्तान का डेलीगेशन आया हुआ था। तभी पाकिस्तान ने काबुल पर अटैक कर दिया। लेकिन क्या पाकिस्तान ने ये सोचकर अटैक किया कि अफगानिस्तान भला उसका क्या ही बिगाड़ लेगा। क्योंकि अगर इतिहास को देखे तो पाकिस्तान के लिए ये किसी बहुत बड़े बल्ंडर से कम नहीं था। अफगानिस्तान इस हमले के जवाब में पाकिस्तान पर जबरदस्त अटैक कर दिया। ये अटैक पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवा जिले के डेरा इस्माइल खां इलाके से शुरू हुआ। यहां पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के पास एक कार ब्लास्ट हुआ, जिसके बाद कई हमलावर पुलिस ट्रेनिंग परिसर में घुस गए। दो दिनों तक दोनों देशों के बीच लड़ाई चलती रही और आखिरकार दोनों के बीच लड़ाई को अभी रोक दिया गया है। अफगानिस्तान का दावा है कि उसके 9 जवान शहीद हुए और पाकिस्तानी सेना के करीब 58 सैनिक मारे गए। वहीं पाकिस्तान कहां पीछे रहने वाला था, उन्होंने दावा किया कि हमने 200 तालिबानी लड़ाके मार गिराए हैं। इस बीच पाकिस्तानी पीएम शहबाज शरीफ ने कहा है कि पाकिस्तान अपनी सुरक्षा को लेकर कोई समझौता नहीं करेगा। हर उकसावे का मजबूत तरीके से जवाब दिया जाएगा। लेकिन शायद शहबाज शरीफ भूल रहे हैं कि अफगानिस्तान को असल में सामाज्यों का कब्रिस्तान कहा जाता है।
ब्रिटश साम्राज्य के साथ क्या हुआ
चाहे वो 19वीं सदी में ब्रिटिश राज हो, 20वीं सदी में सोवियत संघ हो या 21वीं सदी में अमेरिका, किसी भी विदेशी महाशक्ति को आज तक अफगानिस्तान में उस तरह की राजनीतिक सफलता नहीं मिल सकी, जिसकी मंशा से वो अपनी सैन्य शक्ति के साथ अफगानिस्तान में घुसे। ब्रिटिश एंपायर ने कभी पूरी ताकत के साथ अफगानिस्तान को जीतने की कोशिश की थी। जब ब्रिटिश एंपायर अपने चरम पर था तब उसका सबसे बड़ा डर सोवियत रूस था। ब्रिटेन के लिए भारत ताज का मोती था और अफगानिस्तान उसकी सुरक्षा की ढाल यानी एक तरह से बफर। ब्रिटेन को डर था कि अगर रशिया ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया तो भारत पर उसका खतरा बढ़ जाएगा। इसी डर से शुरू हुई ब्रिटिश और अफगान युद्धों की कहानी जिसे इतिहास में द ग्रेट गेम कहा गया। ब्रिटेन ने अफगानिस्तान में कुल तीन युद्ध लड़े लेकिन इन युद्धों ने उसे बर्बाद ही कर दिया। जब 1842 में ब्रिटिश सेना काबुल से निकली तो 16,000 सैनिक गए थे। इसमें से सिर्फ एक आदमी डॉक्टर विलियम ब्राइडन जिंदा बचे। बाकी सब के सब मारे गए। ये इतिहास की सबसे बड़ी मिलिट्री तबाहियों में से एक थी। ऐसे ही 1878 से 1880 के बीच दूसरा एंग्लो अफगान वॉर हुआ। इस बार ब्रिटेन ने यहां पर दोस्ताना सरकार तो बनाई लेकिन डायरेक्ट कंट्रोल फिर भी नहीं पा सका। मजबूरी में डूरंड लाइन खींचकर एक समझौता करना पड़ा। 1919 में इन्होंने ब्रिटेन के खिलाफ तीसरा युद्ध छेड़ा। यह लड़ाई कुछ ही महीनों चली लेकिन रिजल्ट यह हुआ कि अफगानिस्तान को भारत से भी पहले आजादी मिल गई और यहां से ब्रिटिश इंपैक्ट पूरी तरह से खत्म हो गया।
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सोवियत संघ को भी छोड़ना पड़ा काबुल
20वीं सदी के सबसे ताकतवर देश सोवियत संघ ने भी अफगानिस्तान पर कब्जे की चाह के साथ एंट्री ली। सोवियत संघ ने 1979 में अफगानिस्तान पर अटैक किया था। वजह थी यहां की कम्युनिस्ट सरकार को बचाना जिसे कि इस्लामिक विद्रोही गिराने की कोशिश कर रहे थे। अफगान मुजाहिद्दीनों ने गोरिल्ला युद्ध शुरू कर दिया। अमेरिका, पाकिस्तान, सऊदी अरब और चाइना ने उन्हें हथियार दिए। खासकर स्टिंगर मिसाइल सिस्टम जिससे सोवियत हेलीकॉप्टर और उनके जेट्स गिराए जाने लगे। 10 साल के अंदर यूएसएसआर को 1 लाख सोवियत सैनिक तैनात करने पड़े। इस दौरान 15,000 सोवियत सैनिक मारे गए और 1989 में मिखाइल गोरबाचेव ने यह माना कि यह सोवियत संघ का वियतनाम बन चुका है। अफगानिस्तान से हार के बाद सोवियत संघ का पतन होना शुरू हो गया। 1991 में यह टूट कर 15 देशों में बट गया।
अमेरिका ने खड़ा किया मुजाहिदीन
ये 1970 की बात है कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए सोवियत संघ रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया। शीत युद्ध की वजह से अमेरिका की दुश्मनी रूस के साथ अपने चरम पर थी। फिर अफ़ग़ानिस्तान का भाग्य लिखने के लिए पाकिस्तान, सऊदी अरब और अमेरिका ने नया गठजोड़ बनाया। तीनों देशों को देवबंद और उसके पाकिस्तानी राजनीतिक पार्टी जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम में उम्मीद नज़र आयी। पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा के एक देवबंदी हक्कानी मदरसे और फिर देवबंद के कराची मदरसे में पढ़ने वाले मुहम्मद उमर को ज़िम्मेदारी देकर मुल्ला मुहम्मद उमर बनाया गया। किसी को खबर हीं नहीं लगी कि कब मुल्ला उम्र ने पहले पचास और 15 हज़ार छात्रों के मदरसे खोल लिए। इसके लिए पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरब ने खूब पैसे खर्चने शुरू किए। अमेरिका ने 1980 में यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट बनाया जिसके जरिए देवबंद के नफ़रती विचारों वाली शिक्षण सामग्री को छपवाकर देवबंदी मदरसों में बांटा जाने लगा। सोवियत से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई। 1989 में सोवियत की वापसी के साथ इस युद्ध का एक पन्ना ख़त्म हो गया। सोवियत जा चुका था। मगर उससे लड़ने के लिए खड़े हुए मुजाहिदीन लड़ाकों ने हथियार नहीं रखे थे। वो अब अफ़गानिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में वर्चस्व बनाने के लिए लड़ रहे थे। 11 सितंबर 2001 को चार हवाई जहाजों को हाईजैक कर अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की इमारत और पेंटागन पर अल कायदा के आतंकियों ने हमला किया था। जिसमें करीब तीन हजार लोगों की मौत हुई थी। जब इस आतंकी संगठन ने अमेरिका में 9/11 के हमले को अंजाम दिया तो फिर अमेरिका ने इस आतंकवादी संगठन को सबक सिखाने की ठानी। 29 फरवरी 2020 को दुनिया की एक बड़ी ताकत, दुनिया के दरोगा की हैसियत रखने वाला अमेरिका ने दुनिया के एक छोटे से भूभाग में तालिबान के आगे घुटने टेक दिए।
पाकिस्तान अफगानिस्तान को कभी हरा ही नहीं सकता
पाकिस्तान को लग रहा था कि उसके बॉस जिसकी चमचागिरी करते शहबाज शरीफ इन दिनों देखे भी गए वो अमेरिका बचाने के लिए आ जाएंगे। सऊदी अरब से भी डील की है। वो भी बचाने के लिए आ जाएंगे। लेकिन दोनों में से कोई नहीं आया। सऊदी अरब ने भी अपने हाथ पीछे खींच लिए और ट्रंप तो बयानवीर खैर है ही। जब एयर स्ट्राइक काबुल पर की गई पाकिस्तान की तरफ से उसके बाद कैसा जवाब मिलेगा तालीबान से उस बात का अंदाजा पाकिस्तान को नहीं था। तालिबान की तरफ से कहा गया कि हमने अपनी ताकत के सिर्फ 10 फीसदी के साथ तुमसे मुकाबला किया है और तुम अपनी चौकियों से भाग गए। अगर तुमने फिर से अफगानिस्तान की जमीन पर कब्जा करने की हिमा हिम्मत की तो तुम्हारे खिलाफ अपनी 100 फीसदी ताकत लगा देंगे। तालिबान के कमांडर का ये कहना है। अगर 10% ताकत लगाने के बाद पाकिस्तानी सेना भाग गई तो अगर 100सदी इन्होंने ताकत लगा दी तो फिर क्या होगा? आपको तालिबान के विदेश मंत्री का वो बयान तो याद ही होगा जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर पाकिस्तान को तालीबान की ताकत देखनी है तो वो जाकर यूएसएसआर से पूछे वो जाकर अमेरिका से पूछे उस अमेरिका से जो 20 साल तक अफगानिस्तान में रहा लेकिन तालीबान को हरा नहीं पाया। उसके बावजूद भी पाकिस्तान तालिबान से टक्कर ले रहा है।
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