Evolution Of Indian Foreign Policy: आदर्शवाद से यथार्थवाद, कैसे बदली भारत की विदेश नीति?

स्वतंत्रता के दस्तावेज़ों पर स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि एक नई भू-राजनीतिक वास्तविकता शीत युद्ध के रूप में सामने आ गई। 20वीं सदी का निर्णायक वैचारिक संघर्ष वैश्विक परिदृश्य को दो विरोधी गुटों में विभाजित करते हुए नया रूप देने लगा था।
अप्रैल 1955 भारत को आजाद हुए आठ बरस बीच चुके थे। अंग्रेज भारत छोड़कर जा चुके थे। अब हम आजाद थे, अपने कानून बनाने के लिए, अपने तरह से जीने के लिए और आजाद हिंदुस्तान को मिलकर आगे ले जाने के लिए। अप्रैल के महीने की 18 तारीख को इंडोनेशिया के पश्चिमी प्रांत बांडुंग में एक बैठक बुलाई गई। इस बैठक में भारत समेत म्यांमार, श्रीलंका, पाकिस्तान, इंडोनेशिया जैसे देश शामिल होते हैं। इस बैठक को बांडुंग सम्मेलन कहा गया। उसी बांडुंग सम्मेलन में जब श्रीलंका के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर जॉन कोटलेवाला ने इस ओर ध्यान दिलाया कि पोलैंड, हंगरी, बुल्गारिया और रोमानिया जैसे देश उसी तरह सोवियत संघ के उपनिवेश हैं जैसे एशिया और अफ्रीका के दूसरे उपनिवेश हैं। ये बात नेहरू जी को बहुत बुरी लगी। वो उनके पास गए और आवाज ऊंची करके बोले, सर जॉन आपने ऐसा क्यों किया? अपना भाषण देने से पहले आपने उसे मुझे क्यों नहीं दिखाया? जॉन ने छूटते ही जवाब दिया कि मैं क्यों दिखाता अपना भाषण आपको? क्या आपने अपना भाषण देने से पहले मुझे दिखाते? इतना सुनते ही पंडित नेहरू क्रोध से भर उठे और छह वर्ष तक प्रधानमंत्री की सुरक्षा करने वाले पूर्व आईपीएस केएफ रूस्तमजी की माने तो नेहरू जी ने अपना हाथ ऊपर उठा लिया था और ऐसा लगा कि जैसे वो कोटेलावाला को तमाचा न जड़ दें। लेकिन बीच में आईं इंदिरा गांधी ने पंडित नेहरू का हाथ पकड़ कर उनके कान में आहिस्ता से कहा- आप शांत हो जाइए। वहां मौजूद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चाऊ एनलाई ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में दोनों को समझाने की कोशिश की। इस वाक्या का जिक्र करते हुए जॉन कोटलेवाला ने अपनी किताब 'एन एशियन प्राइम मिनिस्टर्स स्टोरी' में लिखा कि मैं और नेहरू हमेशा से बेहतरीन दोस्त रहे और मुझे विश्वास है कि नेहरू ने मेरी उस धृष्टता को भुला दिया होगा। गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अवधारणा शीत युद्ध की पृष्ठभूमि में इंडोनेशिया में आयोजित इसी बांडुंग सम्मेलन के दौरान रखी गई थी।
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शीत युद्ध का दौड़
स्वतंत्रता के दस्तावेज़ों पर स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि एक नई भू-राजनीतिक वास्तविकता शीत युद्ध के रूप में सामने आ गई। 20वीं सदी का निर्णायक वैचारिक संघर्ष वैश्विक परिदृश्य को दो विरोधी गुटों में विभाजित करते हुए नया रूप देने लगा था:
• अमेरिका के नेतृत्व वाला पूंजीवादी गुट
• सोवियत के नेतृत्व वाला कम्युनिस्ट गुट
महाद्वीपों के विभिन्न हिस्सों में सरकारें पक्ष चुन रही थीं। फिर भी भारत की प्रतिक्रिया स्पष्ट और आत्मविश्वास से भरी थी। निमंत्रण के लिए धन्यवाद, लेकिन हम इससे दूर रहेंगे। इस निर्णय से उस विचारधारा का जन्म हुआ जो आगे चलकर भारतीय कूटनीति यानी गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) की आधारशिला बनी।
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गुटनिरपेक्षता की जड़ें
गुटनिरपेक्षता के बीज आज़ादी से पहले ही बो दिए गए थे। मार्च 1947 में जवाहरलाल नेहरू ने नई दिल्ली में एशियाई संबंध सम्मेलन की मेज़बानी की। इसमें 28 एशियाई देशों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए, जो उत्तर-औपनिवेशिक एकजुटता के दृष्टिकोण से एकजुट थे। इस सम्मेलन का उद्देश्य महाद्वीपीय एकता को बढ़ावा देना और बाहरी शक्ति समूहों के दबाव का विरोध करना था। प्रधानमंत्री बनने के बाद, जवाहरलाल नेहरू ने इस नींव पर और मज़बूती से काम किया। एकता के साथ-साथ, उन्होंने एक और रणनीतिक स्तंभ तटस्थता को जोड़ा। उन्होंने एक ऐसे एशिया की कल्पना की जो शीत युद्ध की उलझनों से दूर रहे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने इन देशों के लिये दोनों गुटों से अलग रहकर एक स्वतंत्र विदेशी नीति रखते हुए आपसी सहयोग बढ़ाने का एक मज़बूत आधार प्रदान किया। जिसकी स्थापना में भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, यूगोस्लाविया के राष्ट्रपति जोसेफ ब्रॉज टीटो और मिस्त्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासिर ने अहम भूमिका निभाई। इसके साथ ही इंडोनेशिया के अहमद सुकर्णो और घाना के प्रधानमंत्री वामे एनक्रूमा ने भी गुटनिरपेक्ष आंदोलन को अपना समर्थन दिया। गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मेलन वर्ष 1961 में बेलग्रेड (यूगोस्लाविया) में आयोजित किया गया था, इस सम्मेलन में विश्व के 25 देशों ने हिस्सा लिया था। वर्तमान में विश्व के 120 देश इस समूह के सक्रिय सदस्य हैं।
आदर्शवाद
शुरू से ही, गुटनिरपेक्ष आंदोलन को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। आलोचकों ने इसे तटस्थ या यहाँ तक कि अलगाववादी भी कहा। लेकिन भारत का नेतृत्व दृढ़ रहा। वे शीत युद्ध के शतरंज के खेल में मोहरे नहीं, बल्कि खिलाड़ी बनना चाहते थे। 1950 के दशक में भारत की कूटनीति ठंडे रणनीतिक गणित के बजाय सिद्धांतों पर आधारित थी। इसने कोरियाई युद्ध के दौरान शांति स्थापित करने की कोशिश की, कम्युनिस्ट चीन की वैश्विक मान्यता की वकालत की और स्वेज संकट के दौरान मिस्र पर त्रिपक्षीय आक्रमण के खिलाफ आवाज उठाई। इन कार्यों ने भारत को नैतिक प्रतिष्ठा और न्याय की आवाज़ की छवि दिलाई। लेकिन एक कमजोरी भी व्यावहारिकता अक्सर गायब रहती थी।
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1960 का दशक
1960 का दशक तीखे सबक लेकर आया। भारत की पड़ोस नीति तब ध्वस्त हो गई जब दो पड़ोसियों 1962 में चीन और 1965 में पाकिस्तान ने हमला किया। चीन के साथ युद्ध की टीस आज तक नहीं गई है। पाकिस्तान के साथ युद्ध जीत के साथ समाप्त हुआ। लेकिन दोनों ही संघर्षों ने यह स्पष्ट कर दिया: सिद्धांत प्रशंसा तो अर्जित कर सकते हैं, लेकिन सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकते। आर्थिक रूप से देश अभी भी औपनिवेशिक क्षति के बोझ तले संघर्ष कर रहा था। अर्थव्यवस्था का औद्योगीकरण समाप्त हो चुका था, कृषि की हालत खराब थी और देश सालाना 10-11 मिलियन टन गेहूँ के आयात पर निर्भर था। 1955 और 1965 के बीच भारत विदेशी सहायता पर अपनी निर्भरता के चरम पर पहुँच गया। स्वास्थ्य कार्यक्रमों, ग्रामीण शिक्षा और परिवार नियोजन के लिए लाखों डॉलर देश में प्रवाहित हुए। इस निर्भरता ने गुटनिरपेक्ष रुख को कमजोर कर दिया। वियतनाम युद्ध के दौरान, भारत ने अमेरिकी कार्रवाइयों की आलोचना की, लेकिन उसे अभी भी अमेरिकी सहायता की आवश्यकता थी। वाशिंगटन ने इसका लाभ उठाया और नई दिल्ली पर अपने विरोध को कम करने का दबाव डाला। इस दशक ने भारतीय कूटनीति को एक असहज सच्चाई का सामना करने के लिए मजबूर कर दिया: केवल आदर्श ही विदेश नीति को संचालित नहीं कर सकते।
1970 में हुई यथार्थवाद की एंट्री
1970 का दशक यथार्थवाद की ओर एक रणनीतिक बदलाव का प्रतीक था। घरेलू स्तर पर, हरित क्रांति ने कृषि को पूरी तरह बदल दिया। दशक के अंत तक, भारत खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर हो गया, जिससे विदेशी खाद्य सहायता पर निर्भरता का युग समाप्त हो गया। कूटनीतिक मोर्चे पर 1971 में सोवियत संघ के साथ मैत्री संधि पर हस्ताक्षर के साथ एक ऐतिहासिक कदम उठाया गया। यह केवल एक प्रतीकात्मक संकेत नहीं था। यह भू-राजनीतिक उथल-पुथल के प्रति एक सोची-समझी प्रतिक्रिया थी। अमेरिका चीन के करीब आ रहा था और पूर्वी पाकिस्तान में जातीय बंगालियों पर पाकिस्तान की कार्रवाई ने भारत में शरणार्थियों की भारी आमद को बढ़ावा दिया था। तटस्थता अब इन संकटों का समाधान नहीं कर सकती थी और यथार्थवाद ही आगे बढ़ने का व्यावहारिक रास्ता था। सोवियत गठबंधन रंग लाया। 1971 के युद्ध में, इसने रणनीतिक समर्थन प्रदान किया जिससे भारत को जीत हासिल करने और बांग्लादेश के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने में मदद मिली। पूरे दशक में, भारत-सोवियत संबंध प्रगाढ़ हुए व्यापार 1973 के 46 करोड़ डॉलर से लगभग दोगुना होकर 1975 में 83 करोड़ डॉलर हो गया, हथियारों की बिक्री का विस्तार हुआ और 1975 में सोवियत रॉकेट से भारत के पहले उपग्रह के प्रक्षेपण के साथ सहयोग अंतरिक्ष अन्वेषण तक पहुँच गया।
1980 का दशक: क्षेत्रीय शक्ति और गलत कदम
1980 का दशक भारत द्वारा दक्षिण एशिया में अपने नेतृत्व को मज़बूत करने के साथ शुरू हुआ। 1985 में इसने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका उद्देश्य दक्षिण पूर्व एशिया में आसियान की तरह एकता को बढ़ावा देना था। लेकिन इस दशक में एक महंगी गलती भी देखी गई। श्रीलंका में, सरकार और तमिल अलगाववादियों के बीच एक क्रूर गृहयुद्ध तेज हो गया। श्रीलंका में तमिलों और दक्षिण भारत में लाखों लोगों के बीच साझा जातीय संबंधों को देखते हुए, नई दिल्ली ने हस्तक्षेप किया। 1987 के भारत-श्रीलंका समझौते के परिणामस्वरूप भारतीय शांति सेना (IPKF) की तैनाती हुई। मूल रूप से शांति बनाए रखने का कार्यभार संभाले हुए, IPKF जल्द ही तमिल अलगाववादियों के साथ सीधे संघर्ष में उलझ गया। 1990 तक, भारत ने अपनी सबसे बड़ी कूटनीतिक भूलों में से एक को चिह्नित करते हुए, इससे पीछे हटना शुरू कर दिया। इस बीच, वैश्विक गतिशीलता बदल रही थी। चीन के साथ संबंधों में गर्मजोशी आई, शीत युद्ध समाप्ति के करीब पहुँच गया और सोवियत संघ अफ़गानिस्तान में उलझ गया। प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1985 में अमेरिका और 1988 में चीन यात्राओं ने शीत युद्ध के बाद की कूटनीतिक रणनीति की ज़मीन तैयार की।
1990 के उदारीकरण के दौर में मिले नए साझेदार
1990 के दशक ने भारत के लिए एक नया अध्याय शुरू किया, जो आर्थिक और कूटनीतिक, दोनों ही अनिवार्यताओं से प्रभावित था। 1991 के आर्थिक सुधारों ने भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकृत करने का प्रयास किया, जिससे व्यापक अंतर्राष्ट्रीय जुड़ाव आवश्यक हो गया। सोवियत संघ के पतन ने एक प्रमुख रणनीतिक साझेदार को हमसे दूर कर दिया, जिससे भारत को अपने संबंधों में विविधता लाने के लिए प्रेरित किया। 1992 में,भारत ने "पूर्व की ओर देखो नीति" शुरू की और तथाकथित "एशियाई टाइगर्स" सहित दक्षिण-पूर्व एशिया की तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं का लाभ उठाने के लिए आसियान के साथ एक संवाद भागीदार बन गया। उसी वर्ष, भारत ने इज़राइल के साथ सार्वजनिक रूप से राजनयिक संबंध स्थापित किए, जिससे दशकों का मौन सहयोग समाप्त हो गया। हालाँकि, इस दशक की प्रगति 1998 में बाधित हुई जब भारत ने राजस्थान में परमाणु परीक्षण किए। अमेरिका ने प्रतिबंधों के साथ जवाब दिया और पाकिस्तान ने जल्द ही अपने परीक्षण किए, जिससे क्षेत्र में तनाव खतरनाक स्तर पर पहुँच गया।
2000 का दशक
2000 के दशक में प्रवेश करते हुए, भारत को एक अनिश्चित स्थिति का सामना करना पड़ा। दो परमाणु-सशस्त्र पड़ोसी, कोई महाशक्ति सहयोगी नहीं और एक प्रतिबंधित अर्थव्यवस्था। इस युग में कूटनीति दो मुख्य लक्ष्यों पर केंद्रित थी: अमेरिका के साथ संबंधों को पुनर्स्थापन और बहुपक्षीय मंचों में भागीदारी को गहरा करना। 2001 तक अधिकांश प्रतिबंध हटा लिए गए थे। आतंकवाद के साझा आघात अमेरिका के 9/11 और भारत के 26/11 ने दोनों देशों को और करीब ला दिया। इस साझेदारी ने एक असैन्य परमाणु समझौते को आगे बढ़ाया और साथ ही अन्य वैश्विक शक्तियों के साथ जुड़कर गुटनिरपेक्षता की विरासत को भी संरक्षित किया। 2006 में ब्राज़ील, रूस, भारत और चीन के विदेश मंत्रियों ने न्यूयॉर्क में मुलाकात की, जिसने ब्रिक्स की नींव रखी। समूह का पहला आधिकारिक शिखर सम्मेलन 2009 में हुआ। दशक के अंत तक, भारत की अर्थव्यवस्था फलफूल रही थी और उसकी कूटनीति में विविधता आ रही थी।
2010 का दशक: बढ़ता प्रभाव
2010 के दशक ने साबित कर दिया कि भारत वैश्विक अवसरों का लाभ उठा सकता है। इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात, जापान, दक्षिण कोरिया, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान सहित 14 देशों के साथ रणनीतिक साझेदारियाँ की गईं। इसी दौरान, चीन के साथ प्रतिद्वंद्विता और गहरी हुई। राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में, चीन ने क्षेत्रीय प्रभुत्व हासिल करने की कोशिश की, जिसके परिणामस्वरूप 2017 में डोकलाम गतिरोध हुआ, जहाँ भारतीय और चीनी सैनिक 70 दिनों से ज़्यादा समय तक आमने-सामने रहे। आज, भारत की विदेश नीति का दृष्टिकोण विश्वबंधु बनने का है - सभी का मित्र। देश गुटनिरपेक्षता से बहु-गठबंधन की ओर अग्रसर हो गया है। यह अमेरिका के साथ क्वाड में भाग लेता है, चीन के साथ ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य बना हुआ है, जी-7 शिखर सम्मेलनों में भाग लेता है और ग्लोबल साउथ का नेतृत्व करता है। भारत ईरान में बंदरगाह बना सकता है, इज़राइल से हथियार खरीद सकता है, रूस से युद्धपोत हासिल कर सकता है और फिर भी शांति का आह्वान करने के लिए यूक्रेन का दौरा कर सकता है। यह नया दृष्टिकोण - हर कमरे में रहें, लेकिन अपने कोने में रहें - पिछले दशकों की तुलना में एक महत्वपूर्ण बदलाव का प्रतीक है।
आदर्शवाद और यथार्थवाद का सही संतुलन
अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अक्सर आदर्शवाद एवं यथार्थवाद के बीच एक राह के चयन की दुविधा होती है। आदर्शवाद वस्तुत: नैतिक मूल्यों एवं नीतिपरक सिद्धांतों वाली राह है। आदर्शवाद में विश्वास करने वाले देश इसी राह पर चलकर वैश्विक शांति एवं समृद्धि के लिए मिल जुलकर काम करते हैं। दूसरी ओर, यथार्थवाद सिद्धांत से अधिक व्यावहारिक पक्ष पर जोर देता है। इसमें राष्ट्रीय हित, शक्ति संतुलन और अस्तित्व बचाने जैसे पहलू देशों के कार्य-व्यवहार को निर्धारित करते हैं। इस बदलाव के पीछे एक अहम कारक विदेशी निर्भरता में कमी है। 20वीं सदी में, भारत की स्वतंत्र विदेश नीति आर्थिक कमज़ोरियों से बाधित थी। आज, स्थिति उलट है। भारत अब विदेशी सहायता पर निर्भर नहीं है; बल्कि, यह एक वैश्विक दाता है। 2000 से, इसने 65 देशों को 48 अरब डॉलर से ज़्यादा की सहायता प्रदान की है। कोविड-19 महामारी के दौरान, भारत ने 160 देशों को टीके भेजकर "दुनिया की फार्मेसी" की भूमिका निभाई। अपने पड़ोस में, भूकंप से लेकर सुनामी और समुद्री डाकुओं के हमलों तक, आपदाओं में यह सबसे पहले मदद करने वाला देश है।
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