History of Iran Part-3: दुनिया के नक्शे पर भी और भारत के लिए भी ईरान बहुत जरूरी है, अमेरिका के खतरनाक खेल के बाद इंडियन डिप्लोमेसी के लिए चुनौती बड़ी

ईरान के परमाणु बुनियादी ढांचों पर हमलों को मीडिल ईस्ट के इतिहास की एक गेमचेंजर घटना के रूप में देख सकते हैं। इसके दो नतीजे निकल सकते हैं। एक तो कि ईरान की हुकूमत गिर जाएगी और उसके स्थान पर एक अधिक धर्मनिरपेक्ष और सर्वसम्मत शासन की स्थापना की जा सकती है। दूसरा ये कि ये संघर्ष पूरे क्षेत्र को आग में झोंक सकता है और अमेरिका को भी इसमें उलझा सकता है।
वो डोनाल्ड ट्रंप जो भारत और पाकिस्तान के युद्ध को रोकने का दंभ भर रहे थे। रूस और यूक्रेन के बीच सीजफायर का ऐलान करवा रहे थे। सीरिया के आतंकवादी से मिलकर अपनी पीस वाली छवि को बना रहे थे। वो डोनाल्ड ट्रंप जो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों से कहते थे कि युद्ध करना बेवकूफी है। वो जो अमेरिका को दोबारा से ग्रेट बना रहे थे और खुद के लिए नोबेल पुरस्कार की मांग कर रहे थे। ऐसा क्या हो गया कि डोनाल्ड ट्रंप ने न केवल इजरायल का साथ दिया बल्कि अमेरिका को 22 साल बाद सीधे सीधे युद्ध में उतार दिया। क्या अमेरिका का ईरान पर हमला उसकी परमाणु ताकत को रोकने के लिए था। डोनाल्ड ट्रंप भले ही ये कह रहे हो कि हमने दुनिया को बचा लिया। लेकिन इतिहास गवाह है कि अमेरिकी की जब भी किसी देश में सैन्य एंट्री हुई है, या तो वो वहां से थक-हारकर पहली फुर्सरत में रुकसत हुआ है। या फिर अपने कठपुतली देश को बीच राह में ही छोड़ दिया है। अफगानिस्तान और यूक्रेन इसके सबसे सटीक उदाहरण हैं। ईरान के परमाणु बुनियादी ढांचों पर हमलों को मीडिल ईस्ट के इतिहास की एक गेमचेंजर घटना के रूप में देख सकते हैं। इसके दो नतीजे निकल सकते हैं। एक तो कि ईरान की हुकूमत गिर जाएगी और उसके स्थान पर एक अधिक धर्मनिरपेक्ष और सर्वसम्मत शासन की स्थापना की जा सकती है। दूसरा ये कि ये संघर्ष पूरे क्षेत्र को आग में झोंक सकता है और अमेरिका को भी इसमें उलझा सकता है।
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बंग्लादेश की तरह ईरान में अपना प्यादा बिठाना चाहता अमेरिका
लड़ाई इजराइल और ईरान के बीच हो ही नहीं रहा है। इजराइल सिर्फ एक मोहरा है। असल लड़ाई अमेरिका का है। अमेरिका ईरान में इस्लामिक शासन नहीं खत्म करना चाहता है, बल्कि बंग्लादेश की तरह ईरान के सिंहासन पर अपना एक रबर स्टैंप बिठाना चाहता है। अमेरिका को ना आतंकवाद से परहेज है ना उस इस्लामिक कट्टरपंथ से परहेज है। चाहे वो अलकायदा का चीफ ओसामा बिन लादेन हो, उसका उत्तराधिकारी अल-जवाहिरी या आईएसआईएस का सबसे खूंखार चेहरा अबू बकर अल बगदादी, सभी अपने अपने वक्त में अमेरिका के पैदा किए हुए आतंकवादी हैं, जिन्हें जरूरत पड़ने पर अमेरिका ने अपने फायदे के लिए पाला-पोसा बड़ा किया और फिर जब काम निकल गया तो इन्हें ठिकाने लगा दिया। अमेरिका का डबल स्टैंर्ड आपको बीते दिनों ट्रंप की उस 1 अरब डॉलर के आतंकी से हाथ मिलाती तस्वीर से भी लग जाएगा। इतने से नहीं मन भरा तो जरा पाकिस्तान को ही देख ले। जिसके आर्मी चीफ को लंच कराते, आतंकवाद को पालने पोसने के बावजूद उसे सबसे प्यारा देश बताते नहीं थकते हैं। मतलब साफ है कि अमेरिका सिर्फ अपना हित देखता है।
ईरान भी कोई पाक साफ नहीं
ईरान की तरफ से हमास, हिजबुल्ला, हूती के चरमपंथियों को फंडिंग किए जाने की बात किसी से छुपी नहीं है। इराक, लेबनान सीरिया और यमन पर ईरान लंबे समय से अपना प्रभाव जमाए हुए है और सशस्त्र उग्रवादियों को पोषित करता आया है। हिजबुल्ला की रीढ़ तोड़ने से इस परिदृश्य में बदलाव की शुरुआत पहले ही हो चुकी है। लेबनान सीरिया में पहली ही इसका लाभ मिल चुका है। जहां नए बहुलवादी नेताओं से सत्ता संभाली है। ईरान के प्रभाव क्षेत्र से इराक का पलायन भी वहां के लोगों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय है।
ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत से जुड़े संबंध
बीते कुछ वर्षों में भारत और इस्राइल करीब आए हैं। सिक्योरिटी और टेक्नॉलजी के क्षेत्र में भारत और इजरायल के बीच गहरा सहयोग देखने को मिला है। 2023 में हमास के हमले पर भारत ने कड़े शब्दों में प्रतिक्रिया दी थी। पहलगाम हमले के वाद इस्राइल उन देशों में था जो भारत की आत्मरक्षा के अधिकार के साथ खुलकर सामने आया। लेकिन ईरान के साथ भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत से जुड़े संबंध हैं। भारत और ईरान क्षेत्रीय कनेक्टिविटी, जियोपॉलिटिकल वैलेंस के साथ ही ऊर्जा सुरक्षा जैसे मुद्दों पर करीवी सहयोग जुड़े हैं। ऐसे में युद्ध के मद्देनजर भारत का बहुत कुछ दांव पर लगा है।
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चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट
भारत के लिए मध्य एशिया का लिंक है चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट। चाबहार पोर्ट प्रोजेक्ट भारत को अफगानिस्तान, सेंट्रल एशिया और ईरान तक सीधी पहुंच देता है। भारत ने इस प्रोजेक्ट में अच्छा खासा निवेश किया है। चीन की BRI परियोजना के मद्देनजर रुचि और पाकिस्तान की छुपी प्रतिद्वंद्विता की वजह से ये भारत के लिए अहम रणनीतिक प्रोजेक्ट है।
भारत के हक में नहीं कमजोर ईरान
हजारों भारतीय मौजूद हैं। अगर हालात विगड़ते हैं तो भारत को तात्कालिक तौर पर इन लोगों की जान और माल की सुरक्षा की चिंता करनी होगी। ट्रंप प्रशासन की विदेश नीति में जैसे पाकिस्तान को तरजीह मिल रही है, उसमें एक कमजोर ईरान पाकिस्तान की रणनीतिक हैसियत को मजबूत ही करेगा जो कि भारत के हक में नहीं होगा। कमजोर ईरान हमारे पक्ष मे है बजाय बर्बाद ईरान के, ईरान परमाणु शक्ति बनने का स्वप्न छोड़ दे और अमेरिका के खिलाफ प्रॉक्सी वॉर लड़ता रहे ये हमारे ज्यादा हित मे है बजाय कि ईरान मे प्रो अमेरिकी सरकार आ जाये।
विदेश नीति के लिए चुनौती
भारत सरकार कहती रही है कि उसकी विदेश नीति सैद्धांतिक तौर पर गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत पर ही चलती रही है। जानकार मानते हैं कि दोनों देशों के साथ हितों को देखते हुए भारत की ओर से फिलहाल रणनीतिक स्वायत्तता को महत्व दिया जा रहा है। पीएम मोदी ने भी एक्स पर बताया कि उन्होंनेईरान के राष्ट्रपति के साथ फोन पर बात की है। पीएम ने डिएस्कलेशन, डायलॉग, डिप्लोमेसी को तरजीह दी है। जानकारों का कहना है, भारत की बैलेंस वाली रणनीति छोटी सीमा के संघर्ष के लिए तो ठीक है, लेकिन लंबे संघर्ष में साफ रुख की अपेक्षा की जाती है और उस टेस्ट से भारत को भी गुजरना पड़ेगा।
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