ईसाईयों से कभी एक साथ होकर लड़े थे यहूदी और मुसलमान, विस्तारवाद की आड़ में चलाए गए धर्मयुद्ध की कहानी

जीसस क्राइस्ट शोअर्ड अस, हाऊ टू लव अदर्स यानी जीसस ने हमें बताया है कि लोगों से कैसे मोहब्बत की जाए। लेकिन सवाल ये था कि जिनकी जुबान पर जीसस के नाम पर मोहब्बत बांटने वाले गीत थे, उन्होंने क्रूसेड का रास्ता क्यों चुना?
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।
अर्थात हे भारत, जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म में वृद्धि होती है, तब-तब मैं धर्म की स्थापना के लिए स्वयं को प्रकट करता हूँ। विश्व इतिहास में महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया। लेकिन महाभारत के लिए जो युद्ध लड़ा गया था वो किसी धर्म या संप्रदाय के लिए नहीं बल्कि सत्या और न्याय की समाज में स्थापना के लिए लड़ा गया था। इसका उद्देश्य किसी नए धर्म की स्थापना करके दूसरे धर्मों का क्रूर दमन करना नहीं था और न ही उनके धार्मिक स्थलों को नष्ट करना था। दुनिया के सभी धर्मों को दो हिस्सों में अब्राहिम रिलीजन और इंडियन रिलीजन में बांटा गया है। अब्राहिम रिलीजन में ईसाई, यहूदी और मुसलमान आते हैं तो वहीं इंडियन रिलीजन में बुद्धिस्ट, हिंदू और सिख जैसे बहुत सारे धर्म शामिल हैं, जिनकी जड़े हमारे भारत देश से मिलती हैं। यानी इनकी स्थापना और शुरुआत भारत देश से ही कि गई थी। ईसाई धर्म जब अपनी ठीक ठाक जगह यूरोप में बना चुका था। उस वक्त ईसाई जब अपने धर्म का विस्तार कर रहे थे, तो उनका नारा सिर्फ और सिर्फ समाज में मोहब्बत बांटने का था।
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जीसस क्राइस्ट शोअर्ड अस, हाऊ टू लव अदर्स यानी जीसस ने हमें बताया है कि लोगों से कैसे मोहब्बत की जाए। लेकिन सवाल ये था कि जिनकी जुबान पर जीसस के नाम पर मोहब्बत बांटने वाले गीत थे, उन्होंने क्रूसेड का रास्ता क्यों चुना? लोगों को नफरत छोड़कर प्यार बांटने के गीत गाने वालों ने पूरे यूरोप में तबाही क्यों मचाई और वो भी दूसरे धर्म वालों का नरसंहार करके। इसी को द क्रूसिड के नाम से जाना जाता है। यानी ईसाईयों द्वारा लड़ा गया धर्मयुद्ध। जिसके मूल में सिर्फ और सिर्फ विस्तारवाद है। ईसाइयों ने अपनी पवित्र भूमि जेरूसलम में मौजूद ईसा मसीह की समाधि को अपने कब्जे में लेने के लिए एक बड़ा धार्मिक युद्ध किया ये क्रूसेड कहलाया।
धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जाने वाला क्रूसिड
क्रूसिड यानी क्रिस धर्म की रक्षा के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध जो 11वीं और 13वीं शताब्दी के बीच पश्चिमी यूरोपीय ईसाइयों द्वारा शुरू किया गया। उनके सैन्य अभियान थे और उनकी श्रृंखलाएं थी। ऐसा नहीं था कि ये सिर्फ एक दिन लड़ा गया और खत्म हो गया बल्कि ये कई सदियों तक चला। धर्म युद्ध का सबसे बड़ा कारण ये हुआ करता था कि ईसाई धर्म को भौगोलिक इलाके में फैलाना है। फिर ईसाई पवित्र स्थलों जैसे येरुशलम सातवीं शदाब्दी से ही मुस्लिम नियंत्रण में आ गया था, उसे फिर से हासिल करना। येरुशलम अभी भी पूरे विवाद के केंद्र में बना हुआ है।
धर्मयुद्ध के नेता कौन थे?
पहले धर्मयुद्ध का नेतृत्व सेंट-गिल्स के रेमंड, बोइलन के गॉड्रे, वर्मांडोइस के ह्यूग, ओट्रान्टो के बोहेमोंड और फ़्लैंडर्स के रॉबर्ट ने किया था, और लोगों के धर्मयुद्ध का नेतृत्व पीटर द हर्मिट ने किया था। दूसरे धर्मयुद्ध का नेतृत्व फ्रांस के राजा लुई VII और जर्मनी के सम्राट कॉनराड III ने किया था। तीसरे धर्मयुद्ध के नेताओं में पवित्र रोमन सम्राट फ्रेडरिक बारब्रोसा, फ्रांस के फिलिप II ऑगस्टस और विशेष रूप से इंग्लैंड के रिचर्ड I (रिचर्ड द लायनहार्ट) शामिल थे। विभिन्न फ्रांसीसी महानुभावों ने पोप इनोसेंट III के चौथे धर्मयुद्ध के आह्वान का जवाब दिया। पांचवें धर्मयुद्ध के सैनिकों ने हंगरी के एंड्रयू II और फ्रांसीसी काउंट जॉन ऑफ ब्रिएन, यरूशलेम के नाममात्र राजा का अनुसरण किया। पवित्र रोमन सम्राट फ्रेडरिक II ने छठे धर्मयुद्ध का नेतृत्व किया, और फ्रांस के राजा लुई IX (सेंट लुइस) ने अंतिम दो धर्मयुद्धों का नेतृत्व किया।
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धर्म के नाम पर अब तक कितने क्रूसेड हो चुके हैं
पहला क्रूसेड : अगर 1096-99 में ईसाई फौज यरुशलम को तबाह कर ईसाई साम्राज्य की स्थापना नहीं करती तो शायद इसे प्रथम धर्मयुद्ध (क्रूसेड) नहीं कहा जाता जबकि यरुशलम में मुसलमान और यहूदी अपने-अपने इलाकों में रहते थे। इस कत्लेआम ने यहूदी और मुसलमानों को फिर से सोचने पर मजबूर कर दिया। इस क्रूसेड में यरुशलम राज्य की स्थापना हुई, जो रोमन कैथोलिक राज्य था।
दूसरा क्रूसेड : 1144 में दूसरा धर्मयुद्ध फ्रांस के राजा लुई और जैगी के गुलाम नूरुद्दीन के बीच हुआ। इसमें ईसाइयों को पराजय का सामना करना पड़ा। 1191 में तीसरे धर्मयुद्ध की कमान उस काल के पोप ने इंग्लैंड के राजा रिचर्ड प्रथम को सौंप दी जबकि यरुशलम पर सलाउद्दीन ने कब्जा कर रखा था। इस युद्ध में भी ईसाइयों को बुरे दिन देखना पड़े। इन युद्धों ने जहां यहूदियों को दर-ब-दर कर दिया, वहीं ईसाइयों के लिए भी कोई जगह नहीं छोड़ी।
लेकिन इस जंग में एक बात की समानता हमेशा बनी रही कि यहूदियों को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए अपने देश को छोड़कर लगातार दर-ब-दर रहना पड़ा जबकि उनका साथ देने के लिए कोई दूसरा नहीं था। वे या तो मुस्लिम शासन के अंतर्गत रहते या ईसाइयों के शासन में रह रहे थे।
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