कुषाण से लेकर सूरी तक, मुगल से लेकर अंग्रेजों तक, तांबे से लेकर सोने तक, कई बार हुए बदलाव, प्राचीन भारतीय मुद्राओं का क्या इतिहास है

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अभिनय आकाश । Oct 12 2022 4:49PM

वैदिक साहित्य से पता चलता है कि 'रुपया' शब्द संस्कृत शब्द 'रूप्यकम' से लिया गया है। शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'चांदी का सिक्का'। कई बार रंग, नाम बदलने, रद्द करने के बाद अब रिजर्व बैंक पैसे छापने की जिम्मेदारी संभाल रहा है।

किसी की जेब में किसी की तिजोरी में छोटे-बड़े बैंक में, बटुए से लेकर एटीएम तक में हर जगह मौजूद रुपया हर दौर में लोगों की सबसे बड़ी जरूरत रहा है। इसलिए तो दुनिया कहती भी है कि 'बाप बड़ा न भइया, सबसे बड़ा रुपैया'। हर चीज से बढ़कर है रुपैया, जिसके सिक्कों की खनक हो या करारे नोटों की खुश्बू हर कोई इसका दीवाना है। आज आपको रुपये के जन्म से लेकर अब तक की पूरी कहानी बताने के साथ ही भारतीय मुद्रा के इतिहास और रुपए से पहले कैसे होता था लेन-देन इसकी भी दास्तां सुनाऊंगा। वैदिक साहित्य से पता चलता है कि 'रुपया' शब्द संस्कृत शब्द 'रूप्यकम' से लिया गया है। शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'चांदी का सिक्का'। कई बार रंग, नाम बदलने, रद्द करने के बाद अब रिजर्व बैंक पैसे छापने की जिम्मेदारी संभाल रहा है।

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जानवरों से लेन-देन

वर्तमान दौर में हम किसी के पास कोई सामान खरीदने के लिए जाते हैं तो बदले में उसे पैसे देते हैं। उसी प्रकार जिसे पैसे देते हैं वो अपनी जरूरत के हिसाब से अन्य कोई समान खरीदने के लिए उसी पैसे का उपयोग करता है। अगर हम कहीं काम करते हैं तो हमें उसके बदले में बतौर परश्रमिक हमें पैसे में भुगतान किया जाता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो बिना पैसे की दुनिया की वर्तमान दौर में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब दुनिया में पैसे-रुपये नाम की कोई चीज ही नहीं होती थी। पुराने दौर में लोग अपने-अपने तरीके से लेन-देन करते थे। अगर किसी को कोई भी समाना दूसरे आदमी से लेना होता था तो उसके बदले में उसे कोई चीज देनी होती थी। पुराने समय में लेनदेन करने के लिए जानवरों का सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता था क्योंकि उस समय सिर्फ जानवर ही एक व्यापार का तरीका होते थे। क्योंकि उस समय में जानवर सबसे ज्यादा होते थे और ना ही तो आज के समय के जैसी गाड़ियां होती थी और ना ही अन्य दूसरे साधन होते थे और उस समय में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए सिर्फ जानवरों का ही इस्तेमाल किया जाता था जैसे घोड़े ऊंट हाथी इन चीजों का इस्तेमाल होता था। इन चीजों से व्यापार किया जाता था। मान लीजिए किसी को घोड़े की जरूरत है तो वो उस आदमी को घोड़े वाले आदमी को अपनी बकरी या कोई दूसरा जानवर देना पड़ता। 

 महाजनपद काल के दौरान सिक्कों के प्रचलन में इजाफा

भारतीय सभ्यता के शुरुआती दिनों में सिक्के नहीं बल्कि कार्ड विनिमय का माध्यम थे। 1900 से 1800 ईसा पूर्व तक सिंधु सभ्यता में चांदी के खुदे हुए सिक्के प्रचलन में थे। माना जाता है कि सुमेरियन सभ्यता और सिंधु सभ्यता में ऐसे सिक्कों के माध्यम से व्यापार किया जाता था। ये ज्ञात है कि 'निष्का' और 'मन' नामक सोने के सिक्के वैदिक काल में भी प्रचलन में थे। लिडियन स्टेटर (फारसी सिक्का) और चीनी सिक्का के रूप में प्राचीन भारत में सिक्का भी प्रचलन में था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में सोलहवीं महाजनपद काल के दौरान व्यापार के विस्तार के साथ ही सिक्कों के प्रचलन में इजाफा हुआ। गांधार, पांचाल, कुरु, कुंतल, शाक्य, सुरसेन और सौराष्ट्र आदि के अलग-अलग सिक्के चलन में थे। हालांकि, तब इन सिक्कों को 'टका' नहीं कहा जाता था। इस प्राचीन सिक्के को 'पुराण' या 'कर्शपन' के नाम से जाना जाता था। ये सिक्के चांदी के बने होते थे। हालांकि वजन बहुत ज्यादा नहीं था, लेकिन हर बस्ती के सिक्कों का आकार अलग-अलग था। आकार और प्रतीक भी महाजनपद से महाजनपद तक भिन्न थे। सौराष्ट्र के सिक्कों में कूबड़ वाला बैल था, जबकि दक्षिण पांचाल के सिक्कों में स्वस्तिक का प्रतीक था। लेकिन मगध के मामले में यह ज्ञात है कि एक समय में एक विशिष्ट प्रतीक नहीं, बल्कि एक प्रकार का प्रतीक प्रयोग किया जाता था।

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दिल्ली सल्तनत के दौरान इस्लामी डिजाइनों को उकेरने का आदेश 

मौर्य वंश के पहले सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल के दौरान सोने, चांदी, तांबे और शीशे से बने उत्कीर्ण सिक्कों की शुरुआत की थी। बाद में इंडो-यूनानी कुषाण राजाओं के हाथों में नए सिक्के बाजार में आए। ग्रीक शैली के अनुसार, इन सिक्कों में विभिन्न प्रकार के चित्र उकेरे गए थे। कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' के अनुसार चांदी के सिक्कों को 'रूप्यरूप', सोने के सिक्कों को 'सुवर्णरूप', तांबे के सिक्कों को 'ताम्ररूप' और सीसे के सिक्कों को 'शिसरूप' के रूप में जाना जाता था। दिल्ली की तुर्की सल्तनत के दौरान, सिक्कों का आकार और मात्रा फिर से बदल गई। बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक सुल्तानों ने सिक्कों पर इस्लामी डिजाइनों को उकेरने का आदेश दिया। उस समय बाजार में सोने, चांदी और तांबे से बने विभिन्न सिक्के चल रहे थे। सुल्तान इल्तुतमिस के शासन काल में दो प्रकार के सिक्के- 'टंका' (चांदी का सिक्का) और 'जिताल' (तांबे का सिक्का) का प्रयोग होने लगा।

तुगलक ने तांबे के सिक्के किए पेश

दिल्ली के सुल्तानों ने उस समय की आर्थिक व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए विभिन्न मूल्यवर्ग की मुद्रा को बाजार में उतारा। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने सोने के सिक्कों के बजाय तांबे के सिक्के पेश किए, लेकिन इससे समस्याएँ पैदा हुईं। बाजार में नकली नोटों की बाढ़ आ गई। मुहम्मद को उन सभी सिक्कों को बाजार से वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा। 1526 ईस्वी के बाद, मुगल सम्राटों ने विभिन्न मौद्रिक प्रणालियों को एकीकृत किया और उन्हें एक केंद्रीकृत रूप दिया। जब शेर शाह सूरी के साथ युद्ध में मुगल सम्राट हुमायूँ की हार हुई, तो शेर शाह ने एक चांदी का सिक्का पेश किया। 178 ग्राम वजनी इस सिक्के को 'रुपया' के नाम से जाना जाता था। इन चांदी के सिक्कों का इस्तेमाल बाद के मुगल वंश से लेकर मराठा शासन तक और यहां तक ​​कि अंग्रेजों के आने के कुछ समय बाद तक किया जाता था। 1600 ई. में अंग्रेजों के आगमन के समय यह 'रुपया' व्यापक प्रचलन में था। कई प्रयासों के बाद, पराधीन भारत में स्टर्लिंग पाउंड मुद्रा का उपयोग शुरू हुआ, लेकिन 'रुपये' का उपयोग भारत की सीमाओं से परे फैल गया और ब्रिटेन के विभिन्न हिस्सों में भी जा पहुंचा।

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1857 के बाद रुपैया मुख्य मुद्रा के रूप में पेश 

18वीं शताब्दी में 'बैंक ऑफ हिंदुस्तान' और  'जनरल बैंक इन बंगाल' और 'बंगाल बैंक' नाम के बैंकों ने भारत में 'कागजी मुद्रा' छापना शुरू किया। इस अवधि के दौरान ब्रिटिश भारत में पहला कागजी मुद्रा पेश किया गया था। 1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने रुपये को मुख्य मुद्रा के रूप में पेश किया। कागज के इन सिक्कों में उस समय महारानी विक्टोरिया के चित्र का प्रयोग किया जाता था। 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस कागजी मुद्रा को विभिन्न उपमहाद्वीपों में भी पेश किया। 'द पेपर करेंसी एक्ट 1861' के अनुसार ब्रिटिश भारत में नोट जारी करने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सरकार पर आ गई। इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए मिंट मास्टर, अकाउंटेंट और करेंसी कंट्रोलर जैसे विभिन्न पद भी सृजित किए गए थे। 1923 में किंग जॉर्ज पंचम की छवि के साथ फिर से नए नोट छापे गए। उस समय एक टका, ढाई टका, पांच टका, 10 टका, 50 टका, 100 टका, 1000 टका और 10000 टका के नोट छापे जाते थे।

भारतीय रिजर्व बैंक अस्तित्व में आया

आरबीआई अधिनियम 1934 की धारा 22 के तहत 1 अप्रैल 1935 को भारतीय रिजर्व बैंक अस्तित्व में आया। इसका प्रधान कार्यालय कोलकाता में बना है। 1938 में रिजर्व बैंक ने पांच रुपये का पहला नोट छापा था। इस नोट पर जॉर्ज VI की छवि का उपयोग किया गया। उसी साल फरवरी में 10 टका के नोट, मार्च में 100 टका के नोट और जून में 10,000 टके के नोट छापे गए। इन नोटों पर रिजर्व बैंक के दूसरे गवर्नर सर जेम्स टेलर के हस्ताक्षर हैं। आजादी के बाद इन नोटों को बंद कर दिया गया था। 15 अगस्त 1950 को 'अन्ना सीरीज' भी लॉन्च की गई थी। इस घटना के सात साल बाद 1957 में 'एना सीरीज' की जगह 'दशमलव सीरीज' पेश की गई। 16 आने की जगह 100 पैसे का सिक्का एक रुपये के बराबर तय है। एक नया पैसा के सिक्के गोलाकार थे, दो नया और 10 नया पैसे के सिक्के कोनों पर अंकित थे, पांच नया पैसे के सिक्के आकार में वर्गाकार थे, आकार के आधार पर पहचान की सुविधा के लिए। 

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कई बार हुए बदलाव

1959 में 10 रुपये और 1000 रुपये के अलग-अलग नोट छापे गए, ताकि हज यात्रियों को भारत से सऊदी अरब जाने के दौरान किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़े। 1980 में दो रुपये के नोट पर आर्यभट्ट की छवि, एक रुपये के नोट पर तेल का रिग, 10 रुपये के नोट पर मोर, 20 रुपये के नोट पर कोणार्क का पहिया और पांच रुपये के नोट पर खेत का इस्तेमाल किया गया था। 1996 में 'महात्मा गांधी सीरीज' के नोट बाजार में आने के साथ ही 10 टका और 500 टका के नोटों को दोबारा छापा गया। 2011 में, बाजार में 50 पैसे, एक टका, दो टका, पांच टका और दस टका के नए सिक्कों की शुरुआत के साथ, 25 पैसे और उससे कम के सिक्कों के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। यहां तक ​​कि नया 'रुपया' चिन्ह भी पेश किया गया। 2016 में, भारतीय मौद्रिक प्रणाली में फिर से बदलाव आया। 500 रुपये और 1000 रुपये के नोट रद्द कर दिए गए हैं। इसकी जगह 500 रुपये के नए नोट बाजार में आ गए। मुद्रा बाजार में 200 रुपये और 2000 रुपये के नए नोट पेश किए गए हैं। -अभिनय आकाश

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