क्या इतिहास फिर से दोहराएगा, बस रोल रिवर्स हो जाएगा, अमेरिका -इजरायल से लड़ेगा तालिबान? कैसे बड़ा खेल कर गए पुतिन

रूस पहला देश है जिसने तालिबान को मान्यता दी है। इसके बाद कहा जा रहा है कि भारत भी बड़ा कदम उठा सकता है। रूस ने न केवल अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार को मान्यता दी है बल्कि ये भी कहा है कि वो ड्रग्स एब्यूज और अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ने में मदद करेगा।
महान जर्मन दार्शिक फ्रेडरिक हीगल ने एक बार कहा था- The only thing we learn from history is we learn nothing from history अर्थात इतिहास से हमने यही सीखा कि हमने कभी इतिहास से सबक नहीं लिया। इतिहास से सबक न लेने पर क्या होता है? कहा जाता है कि इतिहास खुद को दोहराता है। सेंट्रल एशिया में अमेरिका की चाल को रूस ने झटका दे दिया है। पुतिन ने तालिबान को मान्यता दे दी है। रूस पहला देश है जिसने तालिबान को मान्यता दी है। इसके बाद कहा जा रहा है कि भारत भी बड़ा कदम उठा सकता है। रूस ने न केवल अफगानिस्तान की तालिबानी सरकार को मान्यता दी है बल्कि ये भी कहा है कि वो ड्रग्स एब्यूज और अफगानिस्तान में आतंकवाद के खिलाफ लड़ने में मदद करेगा।
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काबुल में तालिबानी मंत्री और रूसी राजदूत के बीच मीटिंग में क्या हुआ?
3 जुलाई को काबुल में एक मीटिंग होती है। इस मीटिंग में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री मौलवी आमिर खान मुत्ताकी और अफगानिस्तान में तैनात रूसी एंबेसडर दिमेत्री जेनरोव मौजूद होते हैं। अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने एक्स पर पोस्ट करते हुए कहा कि खुद दिमीत्री जेनरोव ने मुत्ताकी की मीटिंग के लिए बुलाया था। पोस्ट में आगे कहा गया कि मीटिंग के दौरान रूस के एंबेसडर ने आधिकारिक तौर पर ये बताया कि रूस की सरकार इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान को मान्यता देने का फैसला कर चुकी है। रूस की एजेंसी टीएएस ने तस्वीरें भी शेयर कर दी, जिसमें मॉस्को में अफगानिस्तान एबेंसी पर तालिबान का झंडा फहराया जा रहा है। मुत्ताकी ने कहा कि ये फैसला पॉजिटिव रिलेशन, साझा सम्मान और कंस्ट्रक्टिव इंगेजमेंट की दिशा में एक नया कदम है। इससे बाकी देशों को भी सीख लेनी चाहिए। मुत्ताकी ने इसे एक साहसिक कदम भी बताया। वही रूस की सरकार ने कहा है कि ये फैसला दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय कॉपरेशन को बढ़ावा देगा।
रूस ने चल दिया बड़ा गेम
अमेरिका जिस तरह से अफगानिस्तान के साथ खेल रहा था और इसमें पाकिस्तान ने भी भरपूर साथ दिया। लेकिन काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद किसी भी देश ने इस्लामिक शासन को मान्यता नहीं दी। अब आखिर क्यों रूस ने कदम आगे बढ़ाए हैं और तालिबान को मान्यता देकर रूस कहां खेल करने की कोशिश कर रहा है। तालिबान का गठन सीआईए और आईएसआई के ज्वाइंट प्रोजेक्ट के तहत हुआ था। तालिबान के गठन का मकसद ही सोवियत फौजों को अफगानिस्तान से बाहर निकालने के लिए किया गया था। इसमें धर्म का तड़का इस्लाम के मुजाहिद बनाकर लगाया गया। जबकि वो सोवियत आर्मी से लड़ रहे थे। एक पूरी पीढ़ी को को रैडिक्लाइज किया गया और सारी ट्रेनिंग पाकिस्तान के मदरसों में होती थी। उसके लिए अमेरिका से पैसे आते थे।
अमेरिका-पाक ने कैसे मिलकर मुजाहिदों को खड़ा किया
ये 1970 की बात है कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए सोवियत संघ रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया। शीत युद्ध की वजह से अमेरिका की दुश्मनी रूस के साथ अपने चरम पर थी। फिर अफ़ग़ानिस्तान का भाग्य लिखने के लिए पाकिस्तान, सऊदी अरब और अमेरिका ने नया गठजोड़ बनाया। तीनों देशों को देवबंद और उसके पाकिस्तानी राजनीतिक पार्टी जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम में उम्मीद नज़र आयी। पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा के एक देवबंदी हक्कानी मदरसे और फिर देवबंद के कराची मदरसे में पढ़ने वाले मुहम्मद उमर को ज़िम्मेदारी देकर मुल्ला मुहम्मद उमर बनाया गया। किसी को खबर हीं नहीं लगी कि कब मुल्ला उम्र ने पहले पचास और 15 हज़ार छात्रों के मदरसे खोल लिए। इसके लिए पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरब ने खूब पैसे खर्चने शुरू किए। अमेरिका ने 1980 में यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट बनाया जिसके जरिए देवबंद के नफ़रती विचारों वाली शिक्षण सामग्री को छपवाकर देवबंदी मदरसों में बांटा जाने लगा। सोवियत से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई। 1989 में सोवियत की वापसी के साथ इस युद्ध का एक पन्ना ख़त्म हो गया।
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अमेरिका ने तालिबान-अलकायदा को किया यूज एंड थ्रो
काम निकल जाने के बाद अमेरिका ने अलकायदा और तालिबान को कट्टरपंथी बताना शुरू कर दिया। इसके बाद 9/11 के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर अटैक होता है। 2001 में ओसामा बिन लादेन ने 9/11 हमले को अंजाम दिया था, जो सबसे भयानक आतंकवादी हमलों में से एक था, जिसमें 2900 लोग मारे गए थे। उस वक्त जार्ज बुश ने दो देशों को बर्बाद करने की कसम खाई थी उसमें से एक इराक जहां सद्दाम हुसैन को इल्जाम लगाते हुए तख्तापलट कर फांसी पर लटका दिया गया। दूसरा देश अफगानिस्तान की सत्ता बदली गई। वाशिंगटन ने तालिबान का पीछा करने का फैसला किया जिससे केवल और अधिक अराजकता हुई। यह ओसामा बिन लादेन को मारने में कामयाब रहा। ओसामा बिन लादेन को तालिबान ने पनाह दिया है, जिसकी एवज में पूरे अफगानिस्तान में बमबारी की गई। इसमें पाकिस्तान ने अमेरिका का पूरा साथ दिया। युद्ध के दौरान 2300 अमेरिकी सैनिक मारे गए, 75 हजार अफगान सैनिक मारे गए। लेकिन अमेरिका फिर भी तालिबान को खत्म नहीं कर सका।
बदल रहा दुनिया का समीकरण
ईरान पर अमेरिका और इजरायल के हमले को एक तरह से इस्लाम पर यहूदियों के हमले के रूप में किया गया। ईरान को इस दौरान मौखिक रूप से ही सही लेकिन अफगानिस्तान, रूस, चीन ने सपोर्ट किया। ये मिलकर एक यूनिट बनाने की बात कर रहे हैं। उसी रणनीति के तहत तालिबान की सरकार को रूस ने मान्यता दे दी है। पहला बड़ा देश तालिबान सरकार को मान्यता देने वाला बन गया है। रूस का अफगानियों को अपने पक्ष में करने का ये बहुत बड़ा कदम है। धीरे धीरे अफगानी भी मान रहे हैं कि हमने सोवियत फौजों के खिलाफ लड़ाई तो लड़ी लेकिन पैसे और इस्लाम के नाम पर बहकाया गया। वो लड़ाई इस्लाम की नहीं बल्कि अमेरिका की थी। कोर्स करेक्शन या रोल रिवर्सल कहे कि अब वही तालिबान अमेरिका और इजरायल के खिलाफ रूस के लिए लड़ेंगे। अब हथियार और पैसे रूस-चीन देगा। कहा तो ये भी जा रहा है कि रूस, चीन, नॉर्थ कोरिया, ईरान और अफगानिस्तान मिलकर एक यूनिट बनाने वाले हैं। अमेरिकी दादागिरी के खिलाफ ये मिलकर लड़ेंगे।
भारत की मल्टी पोलर वर्ल्ड और मल्टीलेटरल अलायंस वाली नीति
भारत की नीति ये रही है कि हम कभी किसी गुट में शामिल नहीं होते हैं। रूस हमारा दोस्त है तो इजरायल से भी हमारे घनिष्ठ संबंध हैं। हमारा दोस्त ईरान है तो अमेरिका भी हमारा साथी है। हम इन सब चीजों में नहीं फंसते हैं। भारत की अपनी नीति है। भारत की विदेश नीति की पहली लाइन ही मल्टी पोलर वर्ल्ड और मल्टीलेटरल अलायंस है। जहां जिसके साथ जैसे हित बनते हैं, भारत उसके साथ वैसे ही रहता है। रूस और अमेरिका की लड़ाई में भारत का भला क्या काम है? वैसे भी पाकिस्तान के साथ भारत की लड़ाई में कोई खुलकर हमारे पक्ष में नहीं आता तो ऐसे में हमें क्या पड़ी दो देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में भागीदार बनने की।
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