साल 2020 के उच्चतम न्यायालय के बड़े फैसले, जिनका देशवासियों से रहा सीधा जुड़ाव

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नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीनबाग में चल रहा प्रदर्शन कोरोना महामारी की वजह से समाप्त तो हो गया लेकिन प्रदर्शनकारियों ने 100 दिनों से अधिक समय तक वहां पर धरना दिया।

साल 2020 के बारे में जब कभी कोई व्यक्ति सोचेगा तो उसके मन में गुलजार साहब का लिखा हुआ यह गीत 'आने वाला पल जाने वाला है' जरूर गूजेगा। चंद दिनों में कलेंडर में मौजूद साल बदल जाएगा लेकिन इस साल से जुड़ी हुई घटनाएं जरूर याद आएगी तो चलिए आज बात करते हैं उच्चतम न्यायालय के उन फैसलों की जिनका सीधा जुड़ाव देशवासियों से रहा...

  • इंटरनेट को मौलिक अधिकारी बताया

जम्मू-कश्मीर के मसले में दाखिल एक याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इंटरनेट को मौलिक अधिकार बताया था। दरअसल, अदालत की तीन जजों की पीठ ने जम्मू-कश्मीर में जारी प्रतिबंधों की समीक्षा करते हुए अपने ऐतिहासिक फैसले में इंटरनेट को संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत लोगों का मौलिक अधिकार बताया था।

अदालत ने 10 जनवरी, 2020 के अपने फैसले में कहा था कि इंटरनेट की सेवाओं को अनंतकाल के लिए बंद नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा था कि इंटरनेट के माध्यम से विचार, अभिव्यक्ति के अधिकार और व्यापार व व्यवसाय के अधिकार को संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है। 

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  • सार्वजनिक जगहों पर अनिश्चितकाल तक नहीं हो सकता प्रदर्शन

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ शाहीनबाग में चल रहा प्रदर्शन कोरोना महामारी की वजह से समाप्त तो हो गया लेकिन प्रदर्शनकारियों ने 100 दिनों से अधिक समय तक वहां पर धरना दिया। हालांकि, बाद में कोरोना महामारी संक्रमण की वजह से राजधानी दिल्ली में धारा 144 लागू कर दी गई थी जिसके बाद दिल्ली पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को शाहीनबाग से हटा दिया।

धरना प्रदर्शन को लेकर उच्चतम न्यायालय का बड़ा फैसला सामने आया था। अदालत ने साफ शब्दों में कहा था कि सार्वजनिक सड़कों और स्थानों पर प्रदर्शनकारियों द्वारा अनिश्चितकाल तक कब्जा नहीं किया जा सकता है। अदालत ने कहा था कि निर्धारित स्थान पर ही विरोध प्रदर्शन किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा था कि सार्वजनिक इलाकों को प्रदर्शन के लिए नहीं घेरा जाना चाहिए, यह लोगों के लिए परेशानियों का कारण बनती है। अदालत ने कहा था कि शाहीनबाग इलाके से लोगों को हटाने के लिए दिल्ली पुलिस को कार्रवाई करनी चाहिए थी।

  • निर्भया के दोषियों को मिली सजा-ए-मौत

16 दिसंबर, 2012 की दरमियानी रात के गुनहगारों ने फांसी से बचने की हरमुमकिन कोशिश की। यहां तक जिस दिन दोषियों को फांसी दी जानी थी उससे पहले की आधी रात तक न्यायालय में सुनवाई चली। दोषियों के वकील ने गुनहगारों को फांसी से बचाने का प्रयास किया था लेकिन दोषियों की याचिका खारिज हो गई और 20 मार्च को तड़के सुबह साढ़े पांच बजे चारों दोषियों को फांसी दे दी गई। न्याय मिलने में निर्भया को सात साल से अधिक का समय लगा। जिसके बाद निर्भया की मां आशा देवी ने मीडियाकर्मियों से बातचीत में कहा था कि आखिरकार उन्हें लम्बे संघर्ष के बाद फांसी दे दी गई। उसके (निर्भया) जाने के बाद हमने लड़ाई शुरू की थी और यह संघर्ष उसके लिए था और यह संघर्ष भविष्य में हमारी बेटियों के लिए जारी रहेगा। उन्होंने आगे बताया था कि मैंने अपनी बेटी की तस्वीर को गले लगाया और उससे कहा- आखिरकार तुम्हें न्याय मिल गया। 

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  • कोरोना के चलते पूरी तरह से बंद नहीं हो सकती अदालत

प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि कोरोना वायरस महामारी के चलते अदालतों को ‘‘पूरी तरह से बंद’’नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन (एससीएओआरए) ने अपनी एक विज्ञप्ति में कहा था कि न्यायाधीश बोबडे ने शीर्ष अदालत को बंद करने की संभावना से इनकार किया और कहा कि चूंकि ‘वर्चुअल कोर्ट’ शुरू होने के करीब हैं, ऐसे में वर्तमान समय में केवल सीमित रूप से बंद किया जाना ही संभव हो सकता है।

  • पलायन कर रहे मजदूरों का नहीं लगेगा किराया

कोविड-19 महामारी के कारण पलायन कर रहे प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा का स्वत: संज्ञान लिए गए मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया था कि देश के विभिन्न हिस्सों से अपने गंतव्य स्थान जाने के इच्छुक श्रमिकों से रेल या बस का कोई किराया नहीं लिया जाएगा। इसके साथ ही उन्हें खाना और पानी भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए। अदालत ने विभिन्न स्थानों पर फंसे श्रमिकों के मामले में करीब ढाई घंटे की सुनवाई के बाद अंतरिम निर्देश दिया था।

अदालत ने सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि वे कामगारों के पंजीकरण की व्यवस्था देखें और यह सुनिश्चित करें कि ये कामगार अपने गंतव्य के लिये जल्द से जल्द ट्रेनों या बसों में सवार हों।

  • सेना में महिलाओं को भी मिला स्थाई कमीशन

उच्चतम न्यायालय ने 17 फरवरी को अपने ऐतिहासिक फैसले में केंद्र से कहा था कि शॉर्ट सर्विस कमीशन (एसएससी) की सभी सेवारत महिला अधिकारियों को स्थाई कमीशन देने पर विचार करे, भले ही उन्होंने 14 साल की अवधि पूरी कर ली हो या 20 साल की सेवा की हो। जिसपर केंद्र ने अमल किया और इसी के साथ सेना में अब महिला अधिकारियों को भी सभी दस शाखाओं के अंतर्गत स्थाई कमिशन दिया जाएगा। इससे पहले महिला अधिकारियों को केवल न्यायाधीश एडवोकेट जनरल और सेना शैक्षिक कोर में स्थाई कमिशन की अनुमति मिलती थी। 

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  • मुफ्त में होगा कोरोना टेस्ट

उच्चतम न्यायालय ने आठ अप्रैल के अपने पूर्व आदेश को संशोधित करते हुए कहा था कि कोविड-19 के मुफ्त टेस्ट की सुविधा उन्हीं लोगों को मिलेगी जो आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के दायरे में आते होंगे। इसके अलावा सरकार द्वारा पहले से ही अधिसूचित समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लोग भी मुफ्त टेस्ट के हकदार होंगे।

इससे पहले आठ अप्रैल को उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि सरकारी और निजी प्रयोगशालाओं में हर व्यक्ति का कोरोना टेस्ट मुफ्त में होगा। हालांकि, बाद में उच्चतम न्यायालय ने अपने आदेश को संशोधित किया।

  • प्रशांत किशोर पर ठहराया दोषी

उच्चतम न्यायालय ने आपराधिक अवमानना के लिए दोषी ठहराए गए कार्यकर्ता और अधिवक्ता प्रशांत भूषण पर सजा के रूप में एक रूपए का सांकेतिक जुर्माना किया। न्यायालय ने न्यायपालिका के खिलाफ दो ट्वीट के लिए दोषी ठहराया था। न्यायमूर्ति अरूण मिश्रा, न्यायमूर्ति बी आर गवई और न्यायमुर्ति कृष्ण मुरारी की पीठ ने प्रशांत भूषण को सजा सुनाते हुए कहा था कि जुर्माना राशि जमा नहीं करने पर उन्हें तीन महीने की साधारण कैद भुगतनी होगी और तीन साल तक उनके वकालत करने पर प्रतिबंध रहेगा। हालांकि, बाद में प्रशांत किशोर ने जुर्माना राशि का भुगतान कर दिया था। 

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  • अर्नब गोस्वामी मामला

19 मई, 2020 को उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि पत्रकारिता की स्वतंत्रता अभिव्यक्ति और बोलने की आजादी का मूल आधार है। दरअसल, रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को उच्चतम न्यायालय से उस समय आंशिक राहत मिली जब शीर्ष अदालत ने पालघर में दो साधुओं सहित तीन व्यक्तियों की भीड़ द्वारा पीट पीट कर हत्या की घटना से संबंधित कार्यक्रम के सिलसिले में नागपुर में दर्ज प्राथमिकी के अलावा शेष सभी मामले रद्द कर दिये लेकिन इसकी जांच सीबीआई को सौंपने से उसने इंकार कर दिया।

पीठ ने वीडियो कॉफ्रेन्सिंग के माध्यम से अर्नब गोस्वामी की याचिका पर फैसला सुनाते हुये कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(ए) के तहत पत्रकार का अधिकार ऊंचे पायदान पर होता है और भारत में प्रेस की आजादी उस समय तक है जब तक पत्रकार सत्ता के सामने सच बोल सकता है लेकिन यह स्वतंत्रता निर्बाधित नहीं है।

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