RBI और मोदी सरकार के बीच मतभेद गहराये, आखिर मामला है क्या ?

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चुनावी वर्ष में मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। एक-एक कर सरकारी विभाग या संवैधानिक संस्थान के साथ सरकार के विवाद सामने आ रहे हैं। अभी सीबीआई विवाद थमा ही नहीं था कि भारतीय रिजर्व बैंक के साथ सरकार के गहरे मतभेद की खबरें सामने आने लगी हैं।

मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। एक-एक कर सरकारी विभाग या संवैधानिक संस्थान विवाद में आ रहे हैं। अभी सीबीआई विवाद थमा ही नहीं था कि भारतीय रिजर्व बैंक के साथ सरकार के गहरे मतभेद की खबरें सामने आने लगी हैं जोकि अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए कतई ठीक नहीं हैं। दरअसल ताजा विवाद आरबीआई के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य के एक बयान से सामने आया है जिसमें आचार्य ने कहा है कि आरबीआई कोई सरकारी विभाग नहीं है और सरकार को इसको और स्वायत्तता देने की जरूरत है। डिप्टी गवर्नर ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा है कि केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता को नजरअंदाज करना विनाशकारी हो सकता है।

विवाद आखिर शुरू कैसे हुआ ?

मीडिया रिपोर्टों की मानें तो सरकार और आरबीआई के बीच खींचतान पिछले वित्तीय वर्ष के आरम्भ यानि मार्च-अप्रैल 2017 से ही चल रही है। पहली तकरार ब्याज दरों को लेकर ही हुई और उसके बाद जब इस साल जब नीरव मोदी और मेहुल चौकसी के भाग जाने की खबर सामने आई तो सरकार ने ठीकरा आरबीआई के सिर फोड़ा और उसके सख्त एनपीए नियमों और निगरानी तंत्र पर सवाल उठा दिये। आरबीआई ने सरकार से कहा कि उसे बैंकों की निगरानी और कड़ाई बरतने के लिए और अधिकार चाहिए, इस पर सरकार ने स्पष्ट कर दिया कि आरबीआई के पास पहले ही पर्याप्त अधिकार हैं। इसी वर्ष अगस्त-सितम्बर माह में सरकार ने आरबीआई बोर्ड से नचिकेत मोर को कार्यकाल खत्म होने से दो साल पहले ही हटा दिया और संघ परिवार से ताल्लुक रखने वाले एस. गुरुमूर्ति और एस. मराठे को बोर्ड में नियुक्त कर दिया। अभी सितंबर-अक्तूबर में भी सरकार और आरबीआई के बीच तब खिंचाव देखने को मिला था जब सरकार ने तेल कंपनियों के लिए डॉलर की बिक्री के लिए विशेष खिड़की की माँग की थी।

आरबीआई ने सरकार को ही ले लिया निशाने पर

अभी तक जो मतभेद की खबरें रिपोर्टों के आधार पर सामने आती थीं उन्हें विरल आचार्य ने यह कह कर सड़कों पर ला दिया कि सरकार टी20 मैच खेलती है। उन्होंने कहा कि सरकार चुनाव जैसे मुद्दों को ध्यान में रखते हुए टी20 मैच वाली सोच के साथ फैसले लेती है जबकि भारतीय रिजर्व बैंक को टेस्ट मैच खेलना पसंद है। विरल ने कहा कि आरबीआई का इरादा भी मैच जीतने का होता है और सरकार भी मैच जीतना चाहती है लेकिन फर्क यह है कि सरकार तात्कालिक लाभ पर गौर करती है और आरबीआई भविष्य की चुनौतियों को ध्यान में रखता है। विरल आचार्य ने ऋण माफ करने की सरकारों की नीति की आलोचना करते हुए कहा कि ऐसे में काम करना काफी मुश्किल हो जायेगा।

सरकार उर्जित पटेल से खुश नहीं!

विरल आचार्य और उर्जित पटेल को मोदी सरकार ने ही नियुक्त किया था। रघुराम राजन का आरबीआई गवर्नर पद से कार्यकाल खत्म होने के बाद उर्जित पटेल को लाया गया था। लेकिन सरकार की ओर से नोटबंदी के बाद आरबीआई की ओर से जो अव्यवस्था देखने को मिली थी उसने इस शीर्ष वित्तीय संस्थान की छवि पर खराब असर डाला। इसके बाद आरबीआई ने जिस तरह बैंकों में जमा हुए पुराने नोटों के गिनने के काम में लंबा समय लिया उससे भी इस संस्थान की कार्यक्षमता पर सवाल उठे और किरकिरी का सामना सरकार को भी करना पड़ा।

सत्ता के गलियारों से

अब सरकारी गलियारों में तो लोगों को यह भी कहते हुए सुना जा सकता है कि उर्जित पटेल से अच्छे थे रघुराम राजन ही थे। पटेल का कार्यकाल हालांकि सितंबर, 2019 तक है लेकिन सरकार के साथ वह कितने समय तक रह पायेंगे इस पर सवाल उठने लगे हैं। मोदी सरकार वैश्विक एजेंसियों का हवाला देते हुए अपने कार्यकाल में अर्थव्यवस्था के तेज विकास की बात कहती रही है लेकिन अब सवाल सरकार के दावों पर भी हैं क्योंकि विरल आचार्य ने जो कहा है उसका संदेश दूर तक जायेगा।

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