Kashmir से Kisan Andolan तक, पूर्व राज्यपाल Satyapal Malik की बगावत की कहानी कई बड़े संदेश देती है

Satyapal Malik
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देखा जाये तो सत्यपाल मलिक की बातों को जहां सराहना मिली, वहीं उनकी मंशा पर भी सवाल उठे। उनके आलोचकों का कहना है कि उन्होंने राज्यपाल पद पर रहते हुए चुप्पी साधे रखी और पद से हटते ही मुखर हो गए, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की ओर संकेत करता है।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक का लंबी बीमारी के बाद आज एक अस्पताल में निधन हो गया। वह 79 वर्ष के थे। सत्यपाल मलिक के निजी स्टाफ ने यह जानकारी दी। अपने लंबे राजनीतिक जीवन में लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य रहने के अलावा गोवा, बिहार, मेघालय और ओडिशा के राज्यपाल के पदों पर रहे सत्यपाल मलिक का दोपहर एक बजकर 12 मिनट पर राम मनोहर लोहिया अस्पताल में निधन हो गया। उनके स्टाफ ने बताया कि वह लंबे समय से अस्पताल के आईसीयू में थे और उनका विभिन्न बीमारियों का इलाज किया जा रहा था। यह भी महज संयोग रहा कि सत्यपाल मलिक का निधन उस दिन हुआ जब छह साल पहले 2019 में आज ही के दिन यानि 5 अगस्त को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया था।

देखा जाये तो पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक उन कुछ विरले भारतीय राजनीतिज्ञों में से थे, जिन्होंने सत्ता की सर्वोच्च कुर्सियों पर आसीन रहते हुए भी सत्ता के खिलाफ बोलने का साहस दिखाया। उनका जीवन और कॅरियर भारतीय राजनीति की उस जटिल परत को उजागर करता है, जहां सैद्धांतिक प्रतिबद्धता, विवेक और राजनीतिक दबाव आपस में टकराते हैं। हम आपको बता दें कि सत्यपाल मलिक का राजनीतिक सफर सामाजिक न्याय और किसान राजनीति से शुरू हुआ था। वह 1970 के दशक में भारतीय क्रांति दल से राजनीति में आए और बाद में जनता पार्टी, लोक दल, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और अंततः भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ जुड़े।

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वह उत्तर प्रदेश से लोकसभा और राज्यसभा सांसद रहे और केंद्रीय मंत्री के रूप में भी कार्य कर चुके थे। उनका कॅरियर दर्शाता है कि वह किसी एक विचारधारा से बंधे नहीं रहे, बल्कि समयानुसार राजनीतिक अवसरों को स्वीकार करते रहे— लेकिन कुछ मूल मुद्दों जैसे किसान, भ्रष्टाचार और पारदर्शिता पर उनका रुख अपेक्षाकृत स्थिर रहा। इसके अलावा, सत्यपाल मलिक ने बिहार, जम्मू-कश्मीर, गोवा और मेघालय के राज्यपाल के रूप में कार्य किया। लेकिन जम्मू-कश्मीर में उनका कार्यकाल सबसे अधिक चर्चित और विवादास्पद रहा। 2018 में उन्होंने राज्य में पीडीपी-कांग्रेस-एनसी गठबंधन को सरकार बनाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया था जिससे राज्यपाल शासन लागू हुआ था और बाद में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा (अनुच्छेद 370) हटाया गया। सत्यपाल मलिक ने इस पूरे घटनाक्रम पर बाद में बयान देते हुए कहा था कि "दिल्ली से मुझे गठबंधन को रोकने के निर्देश मिले थे।" उन्होंने माना था कि निर्णय राजनीतिक दबाव में लिया गया, न कि संवैधानिक विवेक के आधार पर।

राज्यपाल पद से हटने के बाद सत्यपाल मलिक मोदी सरकार के सबसे मुखर आलोचकों में से एक बन गए थे। सत्यपाल मलिक ने बार-बार कहा कि मोदी सरकार ने किसानों को अपमानित किया और यदि सरकार ने समय पर बात सुनी होती, तो 700 से अधिक किसानों की जानें बचाई जा सकती थीं। उन्होंने पुलवामा हमले को लेकर यह गंभीर दावा किया था कि सीआरपीएफ जवानों को एयरलिफ्ट करने की मांग खारिज की गई थी, जिससे इतनी बड़ी संख्या में शहादत हुई। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि "PMO भ्रष्टाचार पर आंख मूंद लेता है" और वहां सच सुनने की जगह नहीं बची है। मेघालय के राज्यपाल पद पर रहते हुए उन्होंने कथित रूप से एक बड़े टेंडर घोटाले को उजागर किया था।

बहरहाल, देखा जाये तो सत्यपाल मलिक की बातों को जहां सराहना मिली, वहीं उनकी मंशा पर भी सवाल उठे। उनके आलोचकों का कहना है कि उन्होंने राज्यपाल पद पर रहते हुए चुप्पी साधे रखी और पद से हटते ही मुखर हो गए, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की ओर संकेत करता है। लेकिन उनके समर्थक इसे "भीतर से टूटा हुआ लेकिन सच्चा राष्ट्रवादी" कह कर देखते हैं, जिसने सत्ता की ताकत से न डरकर विवेक की आवाज बुलंद की।

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