अलौकिक साधना वाले विलक्षण संत थे आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज

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ललित गर्ग । Sep 27 2019 6:09PM

महान निर्ग्रंथ आचार्य श्री विद्यानन्द मुनिराज की असाधारण जीवन यात्रा भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय की वह प्रेरक यात्रा है, जिस पर वे 95 की आयु में भी अक्षुण्ण रूप से साधनारत रहे। आपको प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं से विशेष लगाव था।

दिगंबर जैन परंपरा के सबसे वयोवृद्ध तेजस्वी, योगी, महामनीषी आचार्य, परम पूज्य, सिद्धांत चक्रवर्ती, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, जैनधर्म को एक नयी पहचान देने वाले राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यानंदजी महाराज का 22 सितम्बर 2019 की अमृतवेला में प्रातः 2 बजकर 40 मिनट में उत्तम अमृत बेला में सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण हो गया! एक प्रतापी सूर्य जो सदा के लिए अस्ताचल में चला गया और पीछे छोड़ गया अनंत स्मृतियां तथा अपने अनुभव से परिपूर्ण दिव्य ज्ञान!! आज दक्षिण का ध्रूवतारा उत्तर में विलय हो गया!!!

श्वेतपिच्छाचार्य आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज प्रमुख विचारक, दार्शनिक, संगीतकार, संपादक, संरक्षक, महान् तपोधनी, ओजस्वी वक्ता, प्रखर लेखक, शांतमूर्ति, परोपकारी संत थे। जिन्होंने अपना समस्त जीवन जैन धर्म द्वारा बताए गए अहिंसा, अनेकांत व अपरिग्रह के मार्ग को समझने व समझाने में समर्पित किया। जिन्होंने भगवान महावीर के सिद्धान्तों को जीवन-दर्शन की भूमिका पर जीकर अपनी संत-चेतना को सम्पूर्ण मानवता के परमार्थ एवं कल्याण में स्वयं को समर्पित करके अपनी साधना, सृजना, सेवा, एवं समर्पण को सार्थक पहचान दी है। वे आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज के परम शिष्य थे और उन्हीं की प्रेरणा एवम् मार्गदर्शन से कई कन्नड भाषा में लिखे हुए प्राचीन ग्रंथों का सरल हिन्दी व संस्कृत में अनुवाद किया। उनका नाम न केवल जैन साहित्य में अपितु सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में एक प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

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महान् निर्ग्रंथ आचार्य श्री विद्यानन्द मुनिराज की असाधारण जीवन यात्रा भौतिकता पर आध्यात्मिकता की विजय की वह प्रेरक यात्रा है, जिस पर वे 95 की आयु में भी अक्षुण्ण रूप से साधनारत रहे। आपको प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं से विशेष लगाव था, इसीलिए आपने अनेक विद्वानों द्वारा प्राकृत भाषा के प्राचीन, दुर्लभ किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद तथा प्रकाशन कराया। जैन साहित्य के विकास में आपका बहुमूल्य योगदान है। आपके उपलब्ध साहित्य के आधार पर हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि आप मात्र जैन साहित्य में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में एक प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। आचार्यश्री स्वयं में एक चलता-फिरता विश्वविद्यालय थे। आपने अकेले ही सांस्कृतिक एवं साहित्यिक उन्नयन का जितना कार्य किया है, उतना अनेक संस्थाएं मिलकर भी शायद ही कर पाएँ। ऐसा प्रभावशाली और राष्ट्रीय विचारधारा से ओत-प्रोत उनका व्यक्तित्त्व उनको मौलिक रूप से राष्ट्रसंत के रूप में प्रतिष्ठित करता है।

  

कर्नाटक के सीमांत ग्राम शेडवाल में 22 अप्रैल, 1925 को एक शिशु का जन्म हुआ। शेडवाल ग्राम के वासियों व शिशु की माता सरस्वती देवी और पिता कल्लप्पा उपाध्ये ने कल्पना भी न की होगी कि एक भावी निग्र्रंथ सारस्वत का जन्म हुआ है। यही शिशु सुरेन्द्र कालांतर में आगे चलकर अलौकिक दिव्यपुरुष मुनि विद्यानंद बने। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जब संपूर्ण विश्व कलह, क्लेश, अज्ञान, हिंसा और अशांति की समस्याओं से जूझ रहा था, ठीक उसी समय उनके आध्यात्मिक नेतृत्व में मानवता व विश्वधर्म अहिंसा की पताका लेकर आगे बढ़ा। कन्नौज (उत्तर प्रदेश) में स्थित दिगम्बर जैन ‘मुनि विद्यानन्द शोधपीठ’ की स्थापना उन्हीं के नाम पर की गई है जोकि आज भी प्राचीन भाषाओं से सम्बन्धित शोध का अनूठा संस्थान है। सुप्रसिद्ध साहित्यकार एवम् विद्वान साहू शांतिप्रसाद जैन और डॉ. जयकुमारजी उपाध्याय उन्हीं के परम शिष्यों में से है। दिल्ली स्थित ‘अहिंसा स्थल’ एवं कुंदकुंद भारती की स्थापना भी उन्हीं के करकमलों द्वारा की गई है। ऐसे अनेक संस्थानों एवं उपक्रमों के आप प्रेरक रहे हैं।

आज भी ऐसी किवंदती है कि तपस्या देखनी हो तो आचार्य विद्यासागरजी की और ज्ञान देखना हो तो आचार्य विद्यानंदजी का। सृजनात्मक दृष्टि, सकारात्मक चिंतन, स्वच्छ भाव, सर्वोत्तम साध्य, सघन श्रद्धा, शुभंकर संकल्प, शिवंकर शक्ति, सम्यक् पुरुषार्थ, श्रेयस् अनुशासन, शुचि संयम, सतत ज्ञानोपयोग- इन सबके सुललित समुच्चय का नाम है आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज। वे इक्कीसवीं शताब्दी को अपने विलक्षण व्यक्तित्व, अपरिमेय कर्तृत्व एवं क्रांतिकारी दृष्टिकोण से प्रभावित करने वाले युगद्रष्टा ऋषि, महर्षि, राजर्षि एवं ब्रह्मर्षि थे। जितनी अलौकिक हैं उनकी साधना, उतने ही अलौकिक हैं उनके अवदान। नैतिक और चारित्रिक मूल्यों की प्रतिष्ठा एवं शांत-संतुलित व्यक्तित्व का निर्माण उनके जीवन का मिशन रहा है। उन्होंने जहां एक ओर जैन धर्म में विकास के नए क्षितिज उन्मुक्त किए वहीं दूसरी ओर जैन धर्म को जनधर्म बनाकर अभिनव धर्मक्रांति की। उन्होंने धर्म को ग्रंथों, पंथों और धर्मस्थानों से निकाल कर जीवन व्यवहार का अंग बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न किया।

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आचार्य विद्यानंदजी के बचपन का नाम सुरेन्द्र था, उनका बचपन अनेक कष्टोंभरा रहा। आजीविका की तलाश में उन्हें अपने मौसाजी की मदद से सैन्य सामग्री बेचने वाले कारखाने में काम मिल गया। इसे भाग्य की विडम्बना नहीं तो क्या कहा जाए कि जिसे भविष्य में अहिंसा का उपदेश देना था, उन्हें अपनी आजीविका के लिए हथियारों के कारखाने पर निर्भर होना पड़ा। वे गांधीजी के विचारों से प्रभावित हुए और ये विचार उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा बन गए। गंतव्य को पहचानने और अंधकार को चीर कर प्रकाश में आने की तड़प उनमें थी। नये कर्तव्य पथ और उदात्त जीवन के लिए उनकी खोज का अनवरत जारी रही। सन् 1942 में जब भारत छोड़ों का देशव्यापी आंदोलन चला तो सुरेन्द्र भी इसके आह्वान से अछूते नहीं रहे सके।

सातगौंडा पाटिल आचार्य विद्यानंदजी के बालसखा थे। वेदगंगा और दुधगंगा नदियों में क्रीड़ा में संलग्न अच्छा तैराक सुरेन्द्र संसार सागर का कुशल तैराक भी सिद्ध हुआ। दानवाड़ में शिक्षा के दौरान सुरेन्द्र की रुचि पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा खेल-कूद में अधिक रही। खिलाड़ीपन की भावना और नेतृत्व क्षमता के कारण सुरेन्द्र अपने साथियों के बीच लोकप्रिय थे। उसमें अनूठी कर्तव्यनिष्ठा जागी। पीड़ितों और दुखीजनों की मदद करना उसके स्वभाव में शामिल था। वास्तव में सुरेन्द्र का व्यक्तित्व आरंभ से ही विलक्षण था। उन्हें दूसरों को सुख सुविधा देने में आनंद आता था। उसमें अपने से छोटों को मदद करना, रोगियों की देखभाल करना तथा दीन-दुखियों को ढाढस बंधाना सदैव ही उन्हें ऐसे काम अच्छे लगते थे। नियति सुरेन्द्र को जीवन-पथ पर अभीष्ट दिशा की ओर ले जा रही थी।

संसार के अनुभवों ने, जो प्रायः कड़वे थे, उन्हें अनासक्ति की ओर मोड़ दिया। वैराग्य और ज्ञान के पथ पर सुरेन्द्र की निर्णायक यात्रा शुरू हो गई, 1946 में एक अद्भुत संयोग हुआ। संयमपूर्ति ज्ञानसूर्य महामुनि आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी के शेडवाल में वर्षायोग में मानो सुरेन्द्र का पुनर्जन्म ही हुआ। सुरेन्द्र प्रतिदिन आचार्यश्री के वचन सुनते और आत्मा के आनंद में निमग्न हो जाते। यहीं से आपमें बैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित हुआ। सुरेन्द्र की ज्ञान पिपासा और तर्कणा शक्ति ने उन्हें प्रभावित किया। एक दिन बातों ही बातों में सुरेन्द्र ने आचार्यश्री के सामने मुनि दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। आचार्यश्री महावीर कीर्तिजी ने 21 वर्ष की तरुणावस्था फाल्गुन सुदी तेरस 1946 को उनको वर्णी दीक्षा क्षुल्लक पाश्र्वकीर्ति के नाम से दी। सन् 1946 कुंडपुर से 1962 तक वे शिमोगा में अपने 17 चातुर्मास पूर्ण करने के उपरांत उन्होंने दिगम्बर मुनि दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। 17 साल के कठोर तप के पश्चात दिल्ली में 25 जुलाई 1963 को क्षुल्लक पाश्र्वकीर्तिजी को विधि विधानपूर्वक मुनि विद्यानन्द के रूप में दीक्षा दी। 8 दिसंबर 1974 में एक आयोजन के तहत दिल्ली में आचार्य रत्न श्री देशभूषणजी ने उन्हें उपाध्याय के रूप में सम्मानित किया, उन्होंने ही 17 अगस्त 1978 को दिल्ली में भव्य आयोजन के तहत एलाचार्य उपाधि प्रदान की। तत्पश्चात 28 जून, 1987 को एक भव्य आयोजन में मुनि विद्यानन्दजी को आचार्य पद प्रदान किया।

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आचार्य विद्यानंदजी के पुरुषार्थी जीवन की एक पहचान है गत्यात्मकता। वे अपने जीवन में कभी कहीं रुके नहीं, झुके नहीं। प्रतिकूलताओं के बीच भी आपने अपने लक्ष्य का चिराग सुरक्षित रखा। इसीलिये उनकी हर सांस अपने दायित्वों एवं कर्तव्यों पर चैकसी रखती थी। प्रयत्न पुरुषार्थ बनते हैं और संकल्प साधना में ढलते हैं। उनके संयम जीवन के छह दशक के विकास की अनगिनत उपलब्धियां आज जैन शासन के उज्ज्वल इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी हैं। आपने शिक्षा, साहित्य, शोध, सेवा, संगठन, संस्कृति, साधना सभी के साथ जीवन-मूल्यों को तलाशा, उन्हें जीवनशैली से जोड़ा और इस प्रकार पगडंडी पर भटकते मनुष्य के लिये राजपथ प्रशस्त कर दिया। उनका जीवन विलक्षण विविधताओं का समवाय थे। वे असांप्रदायिक धर्म के मंत्रदाता और आध्यात्मिक जीवनमूल्यों के अधिष्ठाता थे। व्यष्टि और समष्टि के हित के लिए सर्वतोभावेन समर्पित थे। उनका कार्यक्षेत्र न केवल वैयक्तिक रहा और न केवल सामाजिक। उन्होंने व्यक्ति और समाज दोनों की शुद्धि के लिए तीव्र प्रयत्न किए।

आचार्य विद्यानंदजी अपनी कठिन दिनचर्या, संयम और तपस्या के बल पर इस युग के महान जैन संतों में गिने जाते हैं। अपना सम्पूर्ण भावी समय कठोर ध्यान और साधना को समर्पित करने हेतु आपने अपने परम शिष्य आचार्य श्रुतसागरजी मुनिराज को अपना उत्तराधिकारी बनाने की घोषणा कुंदकुंद भारती के पदाधिकारियों की बैठक के दौरान दिनांक 18 मार्च, 2018 को की। इस तरह सारे विशेषणों से मुक्त होकर आचार्य विद्यानंदजी ने यह दिखा दिया कि साधना की भूमिका पर उपाधियां और पद कैसे छूटती हैं। सचमुच! यह घोषणा इस सदी के राजनेताओं के लिये सबक बनी जिनके जीवन में चरित्र से भी ज्यादा कीमती पद, प्रतिष्ठा, प्रशंसा और पैसा है। सचमुच हमें गर्व और गौरव है कि हमने उस सदी में आंखें खोलीं जब आचार्य विद्यानंदजी जैसी पवित्र संतचेतना इस धरती पर अवतरित हैं, अपनी अलौकिक आध्यात्मिक आभा से मानवता का मार्गदर्शन कर रही थी। उन्होंने न केवल अपने जन्म को धन्य किया बल्कि समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करके अपनी मृत्यु को भी महोत्सव का रूप दिया, ऐसी दिव्य आत्मा को नमन्! 

-ललित गर्ग

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