गंगूबाई हंगल ने कई बाधाओं को पार कर अपनी गायिकी को एक मुकाम तक पहुंचाया

Gangubai Hangal
Prabhasakshi

संगीत के प्रति गंगूबाई का इतना लगाव था कि कंदगोल स्थित अपने गुरु के घर तक पहुंचने के लिए वह 30 किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से पूरी करती थीं और इसके आगे पैदल ही जाती थीं। यहां उन्होंने भारत रत्न से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की नब्ज पकड़ कर और किराना घराना की विरासत को बरकरार रखते हुए परंपरा की आवाज का प्रतिनिधित्व करने वाली गंगूबाई हंगल ने लिंग और जातीय बाधाओं को पार कर संगीत क्षेत्र में आधे से अधिक सदी तक अपना योगदान दिया। गंगूबाई का जन्म 5 मार्च 1913 को एक केवट परिवार में हुआ था। उनके संगीत कॅरियर के शिखर तक पहुंचने के बारे में एक अतुल्य संघर्ष की कहानी है। उन्होंने आर्थिक संकट, पड़ोसियों द्वारा जातीय आधार पर उड़ाई गई खिल्ली और भूख से लगातार लड़ाई करते हुए भी उच्च स्तर का संगीत दिया। कर्नाटक के एक गांव हंगल की रहने वाली गंगूबाई को बचपन में अक्सर जातीय टिप्पणी का सामना करना पड़ा और उन्होंने जब गायकी शुरू की तब उन्हें उन लोगों ने गाने वाली कह कर पुकारा जो इसे एक अच्छे पेशे के रूप में नहीं देखते थे।

गंगूबाई हंगल ने कई बाधाओं को पार कर अपनी गायिकी को एक मुकाम तक पहुंचाया और उन्हें पद्म भूषण, पद्म विभूषण, तानसेन पुरस्कार, कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार और संगीत नाटक अकादमी जैसे पुरस्कारों से नवाजा गया। पुरानी पीढ़ी की एक नेतृत्वकर्ता गंगूबाई ने गुरु शिष्य परंपरा को बरकरार रखा। उनमें संगीत के प्रति जन्मजात लगाव था और यह उस वक्त दिखाई पड़ता था जब अपने बचपन के दिनों में वह ग्रामोफोन सुनने के लिए सड़क पर दौड़ पड़ती थीं और उस आवाज की नकल करने की कोशिश करती थीं। अपनी बेटी में संगीत की प्रतिभा को देखकर गंगूबाई की संगीतज्ञ मां ने कर्नाटक संगीत के प्रति अपने लगाव को दूर रख दिया। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि उनकी बेटी संगीत क्षेत्र के एच. कृष्णाचार्य जैसे दिग्गज और किराना उस्ताद सवाई गंधर्व से सर्वश्रेष्ठ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखे। गंगूबाई ने अपने गुरु सवाई गंधर्व की शिक्षाओं के बारे में एक बार कहा था कि मेरे गुरुजी ने यह सिखाया कि जिस तरह से एक कंजूस अपने पैसों के साथ व्यवहार करता है। उसी तरह सुर का इस्तेमाल करो ताकि श्रोता राग की हर बारीकी के महत्व को समझ सके।

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संगीत के प्रति गंगूबाई का इतना लगाव था कि कंदगोल स्थित अपने गुरु के घर तक पहुंचने के लिए वह 30 किलोमीटर की यात्रा ट्रेन से पूरी करती थीं और इसके आगे पैदल ही जाती थीं। यहां उन्होंने भारत रत्न से सम्मानित पंडित भीमसेन जोशी के साथ संगीत की शिक्षा ली। किराना घराने की परंपरा को बरकरार रखने वाली गंगूबाई इस घराने और इससे जुड़ी शैली की शुद्धता के साथ किसी तरह का समझौता किए जाने के पक्ष में नहीं थीं। गंगूबाई को भैरव, असावरी, तोडी, भीमपलासी, पुरिया, धनश्री, मारवा, केदार और चंद्रकौंस रागों की गायकी के लिए सबसे अधिक वाहवाही मिली। उन्होंने एक बार कहा था कि मैं रागों को धीरे−धीरे आगे बढ़ाने और इसे धीरे−धीरे खोलने की हिमायती हूं ताकि श्रोता उत्सुकता से अगले चरण का इंतजार करे। 21 जुलाई 2009 को उनके निधन के साथ संगीत जगत ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के उस युग को दूर जाते हुए देखा जिसने शुद्धता के साथ अपना संबंध बनाया था और यह मान्यता है कि संगीत ईश्वर के साथ अंतरसंवाद है जो हर बाधा को पार कर जाती है।

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