मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले महान समाज सुधारक थे संत रविदास

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महान संत, समाज सुधारक, साधक और कवि रविदास ने जीवन पर्यन्त छुआछूत जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और उन कुरीतियों के खिलाफ निरन्तर कार्य करते रहे।

समस्त भारतीय समाज को भेदभाव से ऊपर उठकर मानवता और भाईचारे की सीख देने वाले 15वीं सदी के महान समाज सुधारक संत रविदास का जन्म वाराणसी के गोवर्धनपुर गांव में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था। इसीलिए प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा के ही दिन उनकी जयंती मनाई जाती है। इस वर्ष माघ पूर्णिमा 9 फरवरी को है, इसीलिए इसी दिन संत रविदास जयंती मनाई जा रही है। महान संत, समाज सुधारक, साधक और कवि रविदास ने जीवन पर्यन्त छुआछूत जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए समाज में फैली तमाम बुराइयों के खिलाफ पुरजोर आवाज उठाई और उन कुरीतियों के खिलाफ निरन्तर कार्य करते रहे। उनका जन्म ऐसे विकट समय में हुआ था, जब समाज में घोर अंधविश्वास, कुप्रथाओं, अन्याय और अत्याचार का बोलबाला था, धार्मिक कट्टपंथता चरम पर थी, मानवता कराह रही थी। उस जमाने में मध्यमवर्गीय समाज के लोग कथित निम्न जातियों के लोगों का शोषण किया करते थे। ऐसे विकट समय में समाज सुधार की बात करना तो दूर की बात, उसके बारे में सोचना भी मुश्किल था लेकिन जूते बनाने का कार्य करने वाले संत रविदास ने आध्यात्मिक ज्ञान अर्जित करने के लिए समाधि, ध्यान और योग के मार्ग को अपनाते हुए असीम ज्ञान प्राप्त किया और अपने इसी ज्ञान के जरिये पीडि़त समाज एवं दीन-दुखियों की सेवा कार्य में जुट गए। उन्होंने अपनी सिद्धियों के जरिये समाज में व्याप्त आडम्बरों, अज्ञानता, झूठ, मक्कारी और अधार्मिकता का भंडाफोड़ करते हुए समाज को जागृत करने और नई दिशा देने का प्रयास किया।

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संत रविदास को ‘रैदास’ के नाम से भी जाना जाता है। वे गंगा मैया के अनन्य भक्त थे। संत रविदास को लेकर ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ कहावत बहुत प्रचलित है। इस कहावत का संबंध संत रविदास की महिमा को परिलक्षित करता है। वे जूते बनाने का कार्य किया करते थे और इस कार्य से उन्हें जो भी कमाई होती, उससे वे संतों की सेवा किया करते और उसके बाद जो कुछ बचता, उसी से परिवार का निर्वाह करते थे। एक दिन रविदास जूते बनाने में व्यस्त थे कि तभी उनके पास एक ब्राह्मण आया और उनसे कहा कि मेरे जूते टूट गए हैं, इन्हें ठीक कर दो। रविदास उनके जूते ठीक करने लगे और उसी दौरान उन्होंने ब्राह्मण से पूछ लिया कि वे कहां जा रहे हैं? ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘‘मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं पर चमड़े का काम करने वाले तुम क्या जानो कि इससे कितना पुण्य मिलता है!’’ इस पर रविदास जी ने कहा कि आप सही कह रहे हैं ब्राह्मण देवता, हम नीच और मलिन लोगों के गंगा स्नान करने से गंगा अपवित्र हो जाएगी। जूते ठीक होने के बाद ब्राह्मण ने उसके बदले उन्हें एक कौड़ी मूल्य देने का प्रयास किया तो संत रविदास ने कहा कि इस कौड़ी को आप मेरी ओर से गंगा मैया को ‘रविदास की भेंट’ कहकर अर्पित कर देना।

ब्राह्मण गंगाजी पहुंचा और स्नान करने के पश्चात् जैसे ही उसने रविदास द्वारा दी गई मुद्रा यह कहते हुए गंगा में अर्पित करने का प्रयास किया कि गंगा मैया रविदास की यह भेंट स्वीकार करो, तभी जल में से स्वयं गंगा मैया ने अपना हाथ निकालकर ब्राह्मण से वह मुद्रा ले ली और मुद्रा के बदले ब्राह्मण को एक सोने का कंगन देते हुए वह कंगन रविदास को देने का कहा। सोने का रत्न जडि़त अत्यंत सुंदर कंगन देखकर ब्राह्मण के मन में लालच आ गया और उसने विचार किया कि घर पहुंचकर वह यह कंगन अपनी पत्नी को देगा, जिसे पाकर वह बेहद खुश हो जाएगी। पत्नी ने जब वह कंगन देखा तो उसने सुझाव दिया कि क्यों न रत्न जडि़त यह कंगन राजा को भेंट कर दिया, जिसके बदले वे प्रसन्न होकर हमें मालामाल कर देंगे। पत्नी की बात सुनकर ब्राह्मण राजदरबार पहुंचा और कंगन राजा को भेंट किया तो राजा ने ढ़ेर सारी मुद्राएं देकर उसकी झोली भर दी। राजा ने प्रेमपूर्वक वह कंगन अपनी महारानी के हाथ में पहनाया तो महारानी इतना सुंदर कंगन पाकर इतनी खुश हुई कि उसने राजा से दूसरे हाथ के लिए भी वैसे ही कंगन की मांग की।

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राजा ने अगले ही दिन ब्राह्मण को दरबार बुलाया और उसे वैसा ही एक और कंगन लाने का आदेश देते हुए कहा कि अगर उसने तीन दिन में कंगन लाकर नहीं दिया तो वह दंड का पात्र बनेगा। राजाज्ञा सुनकर बेचारे ब्राह्मण के होश उड़ गए। वह गहरी सोच में डूब गया कि आखिर दूसरा कंगन वो कहां से लाएगा? उसे जब और कोई रास्ता नहीं सूझा तो उसने निश्चय किया कि वह संत रविदास के पास जाकर उन्हें सारे वाकये की जानकारी देगा कि कैसे गंगा मैया ने स्वयं यह कंगन उसे उन्हें देने के लिए दिया था, जो उसने लोभवश अपने पास रख लिया। अंततः यही सोचकर वह रविदास जी की कुटिया में जा पहुंचा। रविदास उस समय प्रभु का स्मरण कर रहे थे। ब्राह्मण ने जब उन्हें सारे वृत्तांत की विस्तृत जानकारी दी तो रविदास जी ने उनसे नाराज हुए बगैर कहा कि तुमने मन के लालच के कारण कंगन अपने पास रख लिया, इसका पछतावा मत करो। रही बात राजा को देने के लिए दूसरे कंगन की तो तुम उसकी चिंता भी मत करो, गंगा मैया तुम्हारे मान-सम्मान की रक्षा करेंगी। यह कहते हुए उन्होंने अपनी वह कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए पानी से भरा पात्र) उठाई, जिसमें पानी भरा हुआ था और जैसे ही गंगा मैया का आव्हान करते हुए अपनी कठौती से जल छिड़का, गंगा मैया वहां प्रकट हुई और रविदास जी के आग्रह पर उन्होंने रत्न जडि़त एक और कंगन उस ब्राह्मण को दे दिया। इस प्रकार खुश होकर ब्राह्मण राजा को कंगन भेंट करने चला गया और रविदास जी ने उसे अपने बड़प्पन का जरा भी अहसास नहीं होने दिया। ऐसे थे महान संत रविदास जी, जिनकी आज हम जयंती मना रहे हैं।

योगेश कुमार गोयल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं तथा तीस वर्षों से साहित्य एवं पत्रकारिता में सक्रिय हैं)

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