कर्ज माफ़ी किसानों की असल समस्या का समाधान नहीं
एक मोटा-मोटी बात सामने आती है कि कर्ज माफ़ी योजना की तहत कुछ किसान एक बार तो ऋण मुक्त हो जाते हैं, मगर अगले सीजन की फसल के लिए उनके सामने वही समस्या मुँह खोले खड़ी मिलती है।
जब उत्तर प्रदेश में भाजपा ने प्रचंड जीत हासिल की तो सबकी जुबान पर एक ही बात थी कि चुनाव प्रचार के दौरान किया गया किसानों की क़र्ज़ माफ़ी का वादा अब भाजपा के गले की हड्डी बनेगा। मगर योगी सरकार ने किसानों के बड़े हिस्से का कर्ज माफ करने का ऐलान कर ना केवल अपना वादा पूरा किया, बल्कि सभी के सराहना के पात्र भी बन गए।
तमाम अख़बार और न्यूज चैनल योगी सरकार के इस फैसले की ख़बरों से भरे पड़े थे। इसी के साथ तमाम राज्यों से भी इसी तर्ज पर कर्ज माफ़ी की सुगबुगाहट भी नज़र आने लगी है। इससे इतर एक और वाकये का ज़िक्र करें तो, अभी कर्ज माफ़ी की ख़बरों का दौर चल ही रहा था कि ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री मैलकम टर्नबुल का भारत के दौरे पर आना हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऑस्ट्रेलियाई पीएम को मेट्रो से अक्षरधाम दर्शन कराने की खबर और योगी आदित्यनाथ द्वारा यूपी के किसानों की कर्ज माफ़ी की खबर मीडिया में सुर्खियां बटोर ही रही थी कि दिल्ली में प्रधानमंत्री कार्यालय के सामने तमिलनाडु के कुछ किसानों द्वारा नग्न होकर प्रदर्शन किया जाना राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बन गया।
एक बार फिर देश-दुनिया की ख़बरों में किसानों के चर्चे होने लगे और यूपी में किसानों की कर्ज माफ़ी की दीर्घकालिक प्रसांगिकता पर प्रश्नचिह्न उठने लगे। इससे पहले भी रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा इस कर्ज माफ़ी पर नाराजगी जताने की खबर आ ही चुकी थी। यहाँ मेरे कहने का यह तात्पर्य कतई नहीं है कि किसानों को राहत नहीं पहुंचाई जानी चाहिए, किन्तु बड़ा सवाल यह है कि क्या वाकई इन रास्तों से हम उन्हें राहत पहुंचा सकते हैं?
ना जाने कितने दशकों से हम सुनते आ रहे हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। मगर साल दर साल यहाँ किसानों की हालत बद से बदतर होती गयी। आत्महत्या करते-करते किसान अब निर्वस्त्र प्रदर्शन करने लग गए हैं। किसानों के नाम ले-ले कर सरकारें बनीं और सत्ता का भोग करके चली भी गयीं, लेकिन किसान हमेशा ही उपेक्षित रहे। सच कहा जाए तो इस समस्या के समग्र हल की तरफ किसी ने ध्यान देने की जरूरत ही नहीं समझी। सत्ता पर खतरे मंडराए तो क़र्ज़ माफ़ी का लॉलीपॉप दे कर, सब्सिडी की चॉक्लेट देकर इसे टाल दिया गया। लेकिन क्या किसानों की असल समस्या चंद रुपयों की है?
अगर ऐसा है तो फिर आज तक जिन राज्यों में किसानों के कर्ज माफ़ हुए हैं वो आज अच्छे हालत में होने चाहिए... लेकिन ऐसा नहीं है! क्या यूपी में किसानों की कर्ज माफ़ी से अगले कुछ सालों में उनकी हालत बदल जाएगी? हम सभी इस प्रश्न का उत्तर जानते हैं और यह यकीनन 'नहीं' ही है। सच तो यह है कि किसी को खेती-किसानी में कितने भी पैसे आप दे दें, पर इस बात की संभावना नहीं है कि उन पैसों का उपयोग करने के बावजूद वह व्यक्ति खेती किसानी से कुछ लाभ कमा सकेगा। हां, इस बात की उम्मीद अवश्य है कि वह उन पैसों को खेती में डुबो जरूर देगा।
अपने अनुभव की बात करूँ तो मेरे ससुर आर्मी से रिटायर हैं और उनके पास ठीक ठाक पेंशन आती है। गाँव में मेरे घर पर ट्रैक्टर, ट्यूबवेल-इंजिन से लेकर दूसरी तमाम आधुनिक सुविधाएं हैं, जिन्हें खेती के लिहाज से आवश्यक माना जाता है। पर आप यकीन करें कि लगभग 15 बीघे की खेती करने के बावजूद साल भर बाद बैलेंस शीट 'निल' ही रहती है। उसी खेती में उनकी पेंशन का पैसा भी जाता है। यदि वह किसी दूसरी जगह सर्विस करते तो महीने में अतिरिक्त आय आती। पर चूंकि, गाँव की इज्जत और प्रतिष्ठा है तो उन जैसे करोड़ों किसान उसमें पिस रहे हैं। ज़रा सोचिये, जिनके पास अतिरिक्त आय है, सुविधाएं हैं उन तक के लिए खेती सामान्य रूप से नुक्सान का सौदा बन चुकी है तो जिनके पास सुविधाएं नहीं हैं, उनकी क्या हालत होती होगी?
आखिर ऐसा क्यों होता है? समस्या गंभीर है और इसकी तह में जाना समय की मांग है। टेक्नोलॉजी, मार्केटिंग दूसरे व्यवसाय द्वारा प्रतिस्पर्धा इत्यादि तमाम कारण हैं, जिससे हमारा किसान और उसका व्यवसाय लगातार पीछे होता जा रहा है और हमारे राजनीतिक प्रशासन की यह बड़ी असफलता है कि कोई भी इस बड़ी समस्या के समग्र हल को देखने की जहमत नहीं उठा रहा है।
अब कुछ आंकड़ों पर गौर करें तो, बीजेपीनीत योगी सरकार ने 2017 में उत्तर प्रदेश के 86 लाख किसानों के 30 हजार 729 करोड़ रुपये की कर्ज माफ़ी का फैसला कर सबका ध्यान खींचा है। मगर इससे पहले 2008 में यूपीए सरकार ने 4 करोड़ 80 लाख किसानों का 70,000 करोड़ का कर्ज माफ़ किया था, जिसमें महाराष्ट्र के किसानों का कर्ज भी माफ़ हुआ था। हालाँकि, अभी जब मौजूदा समय में बीजेपी के देवेंद्र फडनवीस मुख्यमंत्री हैं तो एक बार फिर से किसानों की कर्ज माफ़ी के नारे बुलंद होने लगे हैं। अखिलेश सरकार ने सत्ता में आने के कुछ दिनों बाद किसानों का लगभग 1650 करोड़ रुपए का कर्ज़ माफ कर दिया था। आंध्र प्रदेश की तेलुगुदेशम पार्टी की सरकार ने सत्ता में आते ही किसानों को दिए गए 54 हज़ार करोड़ रुपए की कर्ज माफी का ऐलान किया था। पंजाब में नवनिर्वाचित सीएम 'अमरिंदर' भी पंजाब के किसानों को कर्ज माफ़ी का आश्वासन दे चुके हैं।
अगर हम कर्ज माफ़ी के सन्दर्भ में महाराष्ट्र की बात करें तो वहां किसानों की आत्महत्या और परेशानी को देखते हुए क़र्ज़ माफ़ किये गए मगर इसका नतीजा बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं निकला। हाँ शुरू शुरू में महाराष्ट्र में कर्जमाफी के बाद कुछ दिन किसानों की खुदकुशी के मामले कम जरूर हुए, लेकिन फिर वह तेजी से बढ़ने भी लगे। ऐसे ही कुछ हालात कर्नाटक में भी बने। वहां भी किसान कर्ज माफ़ी के बाद किसानों की आत्महत्या के मामलों में कमी नहीं आयी।
प्रश्न उठता ही है कि क्यों असफल है कर्ज माफ़ी?
अनेक प्रदेशों में भारी भरकम कर्ज माफ़ी होने के बाद भी किसान कर्जदार क्यों है?
प्रश्न पर जोर डालें तो एक मोटा-मोटी बात सामने आती है कि कर्ज माफ़ी योजना की तहत कुछ किसान एक बार तो ऋण मुक्त हो जाते हैं, मगर अगले सीजन की फसल के लिए उनके सामने वही समस्या मुँह खोले खड़ी मिलती है। मसलन महंगे बीज, खाद, उर्वरक और कीटनाशकों, सिंचाई के संसाधनों के बढ़ते खर्चे के चलते किसान फिर कर्ज के मकड़ जाल में फंस जाता है। चूंकि, एक बार जिनका कर्ज माफ़ हो गया है उन्हें कर्ज देने में बैंक भी आनाकानी करते हैं और ऐसे में किसानों के सामने साहूकारों से ज्यादा ब्याज दर पर कर्ज लेने के सिवाय कोई रास्ता नहीं बचता। इसके अतिरिक्त, फसलों का उचित दाम न मिलना और खेती के सारे संसाधनों मसलन बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कटाई, बुआई, सिंचाई के लिए मशीनों और बाजार पर निर्भरता वो वजहें हैं, जिससे बिना कर्ज के खेती करना करोड़ों किसानों के लिए संभव ही नहीं है।
भारत का बैंकिंग सिस्टम किसी भी कीमत पर किसानों की कर्ज माफ़ी जैसे योजना का समर्थन नहीं करता है। बैंकर्स का कहना हैं कि कर्जमाफी से लोन ना चुकाने की आदत को बढ़ावा मिलता है, बल्कि फाइनेंशियल सेक्टर की हालत भी खराब होती है। यदि ऐसे ही होता रहा तो लोग बैंकों से लोन लेकर पांच साल बाद होने वाले चुनाव की प्रतीक्षा करने लगेंगे। ऐसे में बैंकर्स कई सुझाव भी देते हैं मसलन हर तरह के कृषि कर्ज़ का अनिवार्य बीमा कर दिया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में कर्ज माफी जैसी परिस्थिति उत्पन्न ना हो। अधिकांश बैंक अपनी तरफ से स्कीमें भी चलाते हैं जिसके तहत शॉर्ट टर्म लोन को लॉन्ग टर्म लोन में बदल दिया जाता है जिससे किसानों को कर्ज चुकाने में दिक्कत ना हो। वहीं बैंकिंग सेक्टर के लोग ये भी मानते हैं कि फाइनेंशियल सपोर्ट इस तरह का दिया जाना चाहिए, जिससे किसानों की उत्पादकता बढ़े। पर सकारात्मक बातों और उत्पादकता जैसे दीर्घकालिक उपायों पर ध्यान कौन दे? यक्ष प्रश्न यही है।
अब तक जितनी भी सरकारें बनी हैं उनके लिए किसान सिर्फ और सिर्फ एक नारे की तरह रहा है, जिसे चुनाव के दौरान इस्तेमाल किया जाता रहा है। कृषि और किसान सरकार की प्राथमिकता में कभी रहा ही नहीं है, इसलिए आज तक कर्जमाफी जैसे शॉर्टकट से काम चलाया जा रहा है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि आज भी भारत की 50 प्रतिशत के आसपास की आबादी की आजीविका कृषि पर आधारित है और हमारे यहाँ बेरोजगारी का आलम क्या है ये किसी से छुपा नहीं है। अब ऐसे में सवाल ये उठता है कि कृषि के डेवलपमेंट के सन्दर्भ में विचार क्यों नहीं किया जाता? किसानों की गैर कृषि आय बढ़ाने, दूध उत्पादन, मुर्गी-मछली पालन या फिर कृषि आधारित लघु उद्योगों के बढ़ावे के बारे में कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया जाता है? अमेरिका जैसे देशों में उन्नत खेती की तर्ज पर यहाँ योजनाएं क्यों पेश नहीं की जातीं? हमारे देश में जहाँ इसरो जैसे संस्थान 104 सेटेलाईट एक साथ अंतरिक्ष में स्थापित कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित कर सकते हैं, तो क्या ऐसे वैज्ञानिक लगातार फेल होती जा रही कृषि व्यवस्था के सन्दर्भ में रिसर्च नहीं कर सकते? यदि नहीं, तो किसानों को खुलकर बताया जाना चाहिए कि वह खेती छोड़ दें और किसी दूसरे क्षेत्र की तैयारी करें। हालांकि, हल है और निराशा की कोई ठोस वजह नहीं है, बशर्ते ध्यान दिया जाए तो!
चूंकि, हमारे यहाँ किसान ज्यादातर गेहूं और चावल उगाते हैं जो रोजमर्रा में प्रयोग होने वाले खाद्य पदार्थ हैं और जिनकी कीमत में कोई खास वृद्धि नहीं होती है। ऐसे में मिट्टी की क्वालिटी और मौसम की अनुरूपता के हिसाब से खेती का ज्ञान न होना भी एक बड़ी समस्या है। विश्व बाजार में जहाँ ऑर्गेनिक चीजों की धूम है, वहीं हमारे यहाँ किसानों को उचित माहौल, सुविधा और प्रोत्साहन की जरूरत है। ऑर्गेनिक खेती जैसे तुलसी, एलोवेरा वगैरह की देश-सहित विदेशों में भी भारी मांग है जिसके लिए सरकार को किसानों को जागरूक करने के साथ ही उनके लिए उचित मार्केट की भी व्यवस्था करने की आवश्यकता है।
मार्केट की बात की जाये तो आप देखेंगे की कैसे 1 रूपये से भी कम लागत के आलू को मार्केटिंग, पैकेजिंग के कमाल से 10 रूपये के चिप्स के पैकेट के रूप में बेचा जाता है। यही नहीं 5 रूपये के भुट्टे को 300 रुपए का पॉपकार्न बना कर आसानी से हाथों-हाथ बेचा जाता है। 8 से 10 रूपये किलो बिकने वाले टमाटर का जब टोमेटो सॉस बनता है तो उसकी कीमत 150 रूपये हो जाती है। उपरोक्त जितनी भी चीजें गिनाई गयी हैं वो सारी चीजें किसान ही पैदा करते और उगाते हैं, कोई कंपनी पैदा नहीं करती, लेकिन इनके मुनाफे में किसान की कोई हिस्सेदारी नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो किसानों का यह शोषण है, जिससे निपटने में सरकार उनकी मदद नहीं करना चाहती। किसान टमाटर, आलू, मक्का, गेहूं, दाल, चना की खेती तो करते हैं, लेकिन जब फसल तैयार होती है तो बेबस और लाचार हो कर इन फसलों को औने पौने दामों में बेचने को मजबूर हो जाते हैं और इसी का फायदा उठा कर बिना मेहनत के बड़े-बड़े व्यवसायी लाभ कमाते हैं क्योंकि किसानों की कनेक्टिविटी मार्केट से नहीं है। अर्थात उनके लिए कोई व्यावहारिक रूप से बाजार की व्यवस्था नहीं है। इस विषय में भी सरकार को गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। सरकार अगर खुद हस्तक्षेप नहीं कर सकती तो ऐसे को-ऑपरेटिव संस्थाओं का गठन करने में मदद कर सकती है जो किसानों के लिए काम करे। जैसे गुजरात का उदाहरण ले सकते हैं। वहां को-ऑपरेटिव संस्थाएं सारे गांव का दूध इकट्ठा कर लोगों की मदद से दूध का कारोबार करती हैं। इसका प्रयास सामजिक संस्थाओं को भी करना चाहिए, किन्तु संस्थाएं तो लूट खसोट और राजनीति में लगी रहती हैं। इनसे फुर्सत मिले तब तो कोई किसानों की फ़िक्र करे।
जब तक ऐसी छोटी छोटी, मगर शोध की चीजों को नजरअंदाज किया जायेगा तब तक भारत के विकास की बात करना बेमानी है। पिछली सरकारों से किसी को कोई बड़ी उम्मीद नहीं थी, मगर मौजूदा मोदी सरकार से दीर्घकालिक उपायों के सन्दर्भ में लोग बड़ी आस लगाए बैठे हैं। खुद प्रधानमंत्री भी कहते हैं कि उनकी सरकार किसानों और गरीबों की सरकार है, लेकिन क्या यह वाकई है?
देखते रहिये आप भी, हम भी और देख रहे हैं बदहाल और नग्न किसान भी!
- विंध्यवासिनी सिंह
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