न सुशासन, न रोजगार, सिर्फ फ्रीबीज की बौछार

JP Nadda Arvind Kejriwal
ANI
कमलेश पांडे । Jan 18 2025 3:58PM

याद दिला दें कि एक जमाने में जो राजनीतिक दल शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती दर कटौती करते चले गए कि राजकोषीय घाटा को पाटना है! और अब उन्हीं के द्वारा जब फ्रीबीज की वकालत हो रही है तो इस सियासी तिकड़म को समझना भी दिलचस्प है।

राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावों के समय मतदाताओं के लिए एक से बढ़कर एक 'फ्रीबीज' की जो बौछारें हो रही हैं, वह वोटर्स को 'रिश्वत' नहीं तो और क्या है, इसे समझना जरूरी है! वहीं, जिन राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी वायदों के अनुपालन में कोताही बरती, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई होनी चाहिए, यह भी स्पष्ट नहीं है! इसलिए वायदे करो और फिर मुकर जाओ या फिर आधे-अधूरे पूरे करो, कोई पूछने वाला नहीं है! तभी तो राजनीतिक दलों की बल्ले-बल्ले है। चूंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 का शोर मचा हुआ है, इसलिए इस फ्रीबीज की चर्चा पुनः आवश्यक है, ताकि मतदाता जागरूक हो सकें।

कहने को तो दिल्ली को छोटा हिन्दुस्तान और दिल वालों का शहर कहा जाता है, लेकिन पिछले 10-12 वर्षों में यहां जितनी राजनीतिक दिलग्गी हुई, वह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। चाहे केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी और एनडीए हो या फिर राज्य में सत्तारूढ़ आप और इंडिया गठबंधन, जिससे कभी आप जुड़ती है तो कभी 'तलाक' ले लेती है! और देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस जो अपने नेतृत्व वाले गठबंधन या फिर अपने द्वारा समर्थित गठबंधन का अपनी सुविधा के अनुसार 'गला मरोड़ने' में माहिर समझी जाती है, ने राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में राजनीतिक किंतु-परन्तु की सारी हदें पार कर चुकी हैं।

चूंकि इन राजनीतिक दलों ने खुद के लिए कोई आदर्श राजनीतिक नियम और उसके निमित्त बाध्यकारी कानून नहीं बनाकर रखे हैं, या फिर नाममात्र का बनाए हुए हैं, जिसकी व्याख्या ये लोग अपने मनमुताबिक कर लेते हैं, इसलिए इनकी सारी राजनीतिक हरकतें जायज समझी जाती हैं। वहीं, इनको तोहफा या सजा बस जीत-हार के माध्यम से जनता जनार्दन ही देती आई है। यहां भी वह मतदाता दलित-महादलित, पिछड़ा-अत्यंत पिछड़ा, सवर्ण-गरीब सवर्ण, आदिवासी-अल्पसंख्यक, महिला-पुरूष, युवा-बुजुर्ग, किसान-मजदूर, कामगार या पूंजीपति आदि इतने खानों में विभाजित है कि उनकी फूट डालो और शासन करो की नीति अक्सर सफल होती आई है। 

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शायद इसलिए जनता, सरकार और सुशासन के मुद्दे गौण पड़ जाते हैं और फ्रीबीज की चर्चा घर-घर पहुंचकर चुनावी खेल कर देती है। ऐसे में सुलगता हुआ सवाल है कि सुशासन से लेकर रोजगार के मोर्चे पर विफल हो चुकीं जनतांत्रिक सरकारों के द्वारा जिस तरह से फ्रीबीज की घोषणाएं की जा रही हैं, क्या यह देश की आर्थिक व्यवस्था यानी अर्थव्यवस्था के लिहाज से उचित है या फिर अनुचित है? यदि अनुचित है तो इससे बचने का रास्ता क्या है?

देखा जाए तो कबीलाई युग से लोकतांत्रिक सरकार तक मनुष्य की पहली जरूरत शांति और सुरक्षा है, ताकि वह मेहनत करते हुए अपना जीवन निर्वाह कर सके और इस देश-दुनिया को बेहतर बनाने में अपने हिस्से का योगदान दे सके। हालांकि, ऐसे सुशासन की गारंटी न तो तब मिली थी और न अब मिली हुई है। शासक-प्रशासक बेहतर हो तो क्षणिक सुख-शांति संभव है, अन्यथा जलालत ही मानवीय सच है।

याद दिला दें कि एक जमाने में जो राजनीतिक दल शिक्षा और स्वास्थ्य के बजट में कटौती दर कटौती करते चले गए कि राजकोषीय घाटा को पाटना है! और अब उन्हीं के द्वारा जब फ्रीबीज की वकालत हो रही है तो इस सियासी तिकड़म को समझना भी दिलचस्प है। चाहे संसदीय चुनाव हो या विधान मंडलीय चुनाव, या फिर स्थानीय चुनाव, होने तो 5 साल में ही हैं। इसलिए जैसे तैसे चुनावी वायदे करके सरकार बना लो, इसी घुड़दौड़ में सभी राजनीतिक दल जूटे हुए हैं।

अब लोगों की दिलचस्पी न तो आजादी के तराने सुनने में है, न ही हिंदुत्व की माला जपने में। समाजवाद से लेकर वामपंथ तक अपने ही राजनीतिक हमाम में नंगे हो चुके हैं। ऐसे में कांग्रेस विरोधी 'सम्पूर्ण क्रांति' की सफलता-विफलता के लगभग चार दशक बाद हुई दूसरी कांग्रेस विरोधी 'अन्ना हजारे क्रांति' की सफलता से उपजी आम आदमी पार्टी ने जो फ्रीबीज की सियासी लत लगाई और दिल्ली से पंजाब तक कांग्रेस-भाजपा का सफाया कर दी, उससे दोनों पार्टियों ने शुरुआती आलोचनाओं के बाद आप के सियासी एजेंडे  को ही अपनाने में सफलता पाई। हिमाचल प्रदेश से कर्नाटक तक कांग्रेस की विजय और हरियाणा से उड़ीसा तक भाजपा की जीत इसी बात की साक्षी है। 

यही वजह है कि भाजपा नीत एनडीए, आप नीत संभावित तीसरा मोर्चा और कांग्रेस नीत इंडिया गठबंधन ने दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में एक-दूसरे को मात देने के लिए अपने-अपने फ्रीबीज के सियासी घोड़े खोल रखे हैं। वह भी तब, जब करदाताओं की ओर से इसकी खुलेआम आलोचना हो रही है। वहीं, आपने देखा-सुना होगा कि केंद्र सरकार की अटपटी नीतियों पर सर्वोच्च न्यायालय तक ने टिप्पणी की, कि आखिर 80 करोड़ लोगों को आप कबतक मुफ्त या फिर कम कीमत पर अनाज देंगे। ऐसे में उन्हें आप रोजगार क्यों नहीं दे देते! कोर्ट की यह टिप्पणी जायज है और प्रशासन यदि चाहे तो उसके लिए यह मुश्किल भी नहीं है।

वहीं, आम आदमी पार्टी ने अनुमन्य यूनिट तक फ्री बिजली, फ्री पानी, फ्री और किफायती शिक्षा व स्वास्थ्य, महिलाओं के लिए फ्री बस यात्रा, लक्षित वर्गों को अलग-अलग नगद आर्थिक मदद आदि जैसी जो चुनावी-प्रशासनिक रवायतें शुरू की है, और अब उन्हीं की देखा-देखी कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों में भी इस नीतिगत मुद्दे पर आपाधापी मची हुई है, यह नीति एक नए आर्थिक और अर्थव्यवस्था के संकट को जन्म दे सकती है। इसलिए इसको हतोत्साहित करने के लिए मतदाताओं को ही आगे आना होगा, अन्यथा यह नीति भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए आर्थिक कैंसर साबित होंगे। डॉलर के मुकाबले गिरते रुपये भी तो इसी बात की चुगली करते हैं।

आपने देखा-सुना होगा कि सरकार ने उद्योगपतियों के इतने के कर्जे माफ कर दिए, या फिर इतनी की सब्सिडी इन-इन धंधों/पेशों में दी जा रहीं हैं। इसी तरह से सरकार ने किसानों के इतने के कर्जे माफ कर दिए और इन-इन चीजों पर इतनी सब्सिडी दे रही है। इसी तरह से समाज के विभिन्न वर्गों को भी लुभाने के लिए सरकार कुछ न कुछ देकर दानी-दाता बनी हुई है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार सबको सुशासन क्यों नहीं दे रही है? सड़कों पर इंसान सुरक्षित क्यों नहीं है? चाहे खेती हो या कारोबार, चोरी और लूट की बढ़ती फितरत से उद्यमी व मेहनतकश वर्ग परेशान है। वहीं, डिजिटल धोखाधड़ी और प्रशासनिक तिकड़मों का तो कहना ही क्या है? बेहतर पुलिसिंग आज भी यक्ष प्रश्न है।

वहीं, राष्ट्रीय प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार और उसके पूंजीपति मित्रों का बढ़ता कब्जा, भूमि और मौद्रिक संसाधनों के असमान बंटवारे की नीति, समान मताधिकार से इतर विभिन्न कानूनी असमानताएं समाज और व्यवस्था को निरंतर खोखला करती जा रही हैं। इससे पूंजीपतियों की जमात, उनके शागिर्द, प्रशासनिक हुक्मरान और उसकी पूरी चेन, निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की फौज और उनके करीबी लोग तो हर तरीके से मस्त हैं, लेकिन आमलोगों की फटेहाली पर तरस खाना स्वभाविक है। जिनके पास कुछ पूंजी-पगहा, मकान-दुकान या खेती योग्य जमीन या फिर छोटी-मोटी निजी या सरकारी नौकरी है, वह तो किसी तरह गुजर-बसर कर लेते हैं, लेकिन जो न शिक्षित हैं, न संसाधनों से लैस, उनकी बेचारगी देखते ही बनती है।

ऐसे में सबको समान शिक्षा और योग्यता के मुताबिक रोजगार देने की सरकारी नीति आखिर कब आकार लेगी, ज्वलंत प्रश्न है। वहीं, न तो सबके लिए जनस्वास्थ्य सुनिश्चित है और न ही सुविधाजनक परिवहन। गरीबी हटाओ और रोटी-कपड़ा-मकान का नारा भी टांय-टांय फिस्स हो चुका है। सबको शिक्षा-स्वास्थ्य-सम्मान की सामाजिक न्याय वाली बात भी पूंजीपतियों के एजेंडे की दासी बन चुकी है।

यह सब इसलिए कि भले ही सरकार अपने नागरिकों के लिए विभिन्न राष्ट्रीय समानताओं की बात करती है, लेकिन असमान कानूनों को गढ़कर वह ही सबसे ज्यादा सामाजिक विभेद भी पैदा कर रही है।

सवाल है कि उसका लोकतंत्र आखिर पूंजीपतियों का संरक्षक क्यों बना बैठा है। क्या फ्रीबीज का लॉलीपॉप थमाकर पूंजीपति सभी राष्ट्रीय संसाधनों पर काबिज हो जाएंगे, फिर उसके बाद लोगों को बाबाजी का ठुल्लू थमा देंगे, यही उनकी योजना है। यदि यही न्यू वर्ल्ड आर्डर है या फिर ग्लोबल पैटर्न तो फिर समाज के प्रबुद्ध वर्ग को सावधान हो जाना चाहिए। क्योंकि दलितों और पिछड़ों के लोकलुभावन वोटिंग पैटर्न के चक्कर में सबसे ज्यादा समाज का माध्यम वर्ग ही पिसेगा, यही नई त्रासदी है।

- कमलेश पांडेय

वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)
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