राज्य सरकारें मजदूरों को दो वक्त की रोटी नहीं दे सकीं इसलिए हो रहा पलायन

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शिव त्रिपाठी । May 13 2020 8:12AM

सर्वाधिक दुर्दशा देश के असंगठित क्षेत्र के उन करोड़ों मजदूरों को झेलनी पड़ी है व पड़ रही है जो खासकर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक आदि राज्यों में वर्षों से रोजी रोटी कमाकर अपने व अपने परिवारजनों का पेट पाल रहे थे।

कोरोना महामारी के चलते सर्वाधिक दुगर्ति देश के असंगठित क्षेत्र के करोड़ों मजदूरों की हुई है। मजदूरों को खून के आंसू पिलाने की सर्वाधिक जिम्मेदार वे राज्य सरकारें रही है जो अपने यहां के ऐसे मजदूरों को लॉकडाउन के समय में न तो उन्हें उनके बकाये वेतन का भुगतान करा सकीं और न ही उन मकान मालिकों पर दबाव बनाकर उनके मकान खाली कराने से बचा सकीं। न ही उनकी जरूरत के अनुसार उन्हें खाना पानी मुहैया करा सकीं।

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ऐसे जिन राज्यों में मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया और मजदूर एक-एक पाई के साथ दो जून की रोटी के लिये लाचार हो गये और अंतत: उन्हें अपने वतन लौटने के लिये सैंकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करनी पड़ी। वतन पहुंचने के पहले ही कितनों की जानें चली गईं, इनका हिसाब इन राज्यों को ही चुकाना होगा। अधिसंख्य मजदूरों की यह कसम हम नमक रोटी खा लेंगे अब वापस नहीं जायेंगे, भविष्य की वो चेतावनी है जो अनेक राज्यों की कमर तोड़ सकती है।

कोरोना संकट के चलते सर्वाधिक दुर्दशा देश के असंगठित क्षेत्र के उन करोड़ों मजदूरों को झेलनी पड़ी है व पड़ रही है जो खासकर दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक आदि राज्यों में वर्षों से रोजी रोटी कमाकर अपने व अपने परिवारजनों का पेट पाल रहे थे। आज यदि लाखों मजदूरों को अपने वतन खासकर बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, राजस्थान को वापस लौटने को विवश होना पड़ा तो नि:संदेह इसके लिये सर्वाधिक जिम्मेदार वे राज्य सरकारें ही हैं जहां वे कार्यरत थे। 

आज यदि हजारों मजदूर सैंकड़ों किलोमीटर पैदल अथवा साईकिल से चलकर अपने वतन पहुंच रहे हैं तो यह किसकी जिम्मेदारी है? यदि पुलिस की लाठी की डर से रेलवे ट्रैक से यात्रा करने वालों में 16 मजदूरों की रेल पटरियों पर माल गाड़ी की चपेट में आ जाने से मौत हो जाती है तो इसके लिये कौन जिम्मेदार है? यदि सड़कों पर ही गर्भवती महिलाओं का प्रसव हो जा रहा है तो इसके लिये किसे जिम्मेदार ठहराया जायेगा? 

अब तक जितने भी मजदूर पैदल साइकिल, ठेला रिक्शा अथवा ऑटो आदि से घर लौट रहे हैं उनमें से अधिसंख्य का यही आरोप है कि उन्हें लॉकडाउन के बाद मालिकों ने बकाये का पूरा पैसा नहीं दिया और कह दिया उनके पास काम नहीं है कल से काम पर मत आना। एक महीना बीत जाने पर किराया न दे पाने के चलते मकान मालिकों ने उनसे मकान खाली करा लिया। महीने भर में जब घर में रखा राशन पानी खत्म हो गया तो खाने के लाले पड़ गये। कुछ दिनों तक इधर उधर से खाने पीने को मिलता रहा पर बाद में वो भी बंद हो गया। ऐसे हालत में इनके पास अपने वतन लौटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा। जो राज्य सरकारें कभी केन्द्र पर अथवा कभी बेबस मजदूरों पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ रही हैं यदि इन सरकारों ने केन्द्र की सलाह पर बेसहारा मजदूरों के खाने-पीने का, उन्हें अपने मकान में बने रहने की पुख्ता व्यवस्था कर दी होती तो भला कौन होगा जो भूखे पेट छोटे-छोटे बच्चों, गर्भवती पत्नी के साथ सैंकड़ों किलोमीटर की यात्रा पैदल करेगा।

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यह भी कम पीड़ा दायी नही है कि अब तक जो मजदूर श्रमिक स्पेशल ट्रेन से वापस अपने घरों को लौट रहे हैं उनमें से लगभग सभी का यही आरोप है कि उनसे रेल टिकट के अलावा अतिरिक्त पैसे भी वसूल किये गये। शनिवार को गुजरात से कानपुर सेण्ट्रल पहुंचे श्रमिकों के अनुसार जिन टाइल्स कम्पनियों में वे काम करते थे उन्हीं कम्पनियों ने उन सभी के टिकट कराये थे। छ: सौ रुपये की टिकट के अलावा तीन सौ रुपये खाने के बताकर कुल नौ सौ रुपये लिये गये थे। उन्होंने यह भी बताया कि लगभग 1300 किलोमीटर की यात्रा में रास्ते में उन्हें कुछ भी खाने पीने को नहीं दिया गया। ऐसे ही महाराष्ट्र, पंजाब व अन्य राज्यों से भी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, झारखण्ड जाने वाले श्रमिकों ने भी बताया कि उनसे भी टिकट के पैसे वसूले गये थे।

अब जब मजदूरों ने मुफ्त रेल टिकट की कलई खोल कर रख दी तो केन्द्र व राज्य सरकारें एक दूसरे पर आरोप लगाने लगीं। हद तो यह है कि सारी सच्चाई सामने आने के बावजूद अभी भी श्रमिक ट्रेन से यात्रा करने वाले मजदूरों से टिकट के पैसे वसूले जा रहे हैं। सवाल यह भी है कि जब केन्द्र सरकार की ओर से स्पष्ट कहा जा रहा है कि राज्य सरकारें किसी भी श्रमिक को पैदल यात्रा न करने दें उनके लिये रेलवे रोजाना सौ विशेष ट्रेन चलायेगा तो फिर राज्य सरकारें श्रमिकों को क्यों नहीं रोक पा रही हैं? और यह भी कि केन्द्र सरकार इस बात का प्रचार बड़े पैमाने पर क्यों नहीं करती कि किसी भी श्रमिक को रेल किराया नहीं देना है और यदि वसूला जायेगा तो उसकी जांच करा कर कड़ी कार्रवाई की जायेगी।

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किसी को नहीं भूलना चाहिये कि देश में यदि कुल श्रमिकों की संख्या 4.65 करोड़ है तो उनमें असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या 4 करोड़ 15 लाख से भी अधिक है। यानी इन्हीं मजदूरों के चलते ही कारखानों में उत्पादन होता है। इन्हीं के चलते ही निर्माण कार्य होते हैं। इन्हीं के योगदान से पंजाब की खेती संभव हो पाती है और इन्हीं के छोटे-छोटे कामों से लोगों की मदद होती है। जिस तरह खून के आंसू पीकर मजदूर अपने वतन वापस लौट रहे हैं और वे साफ-साफ कह रहे हैं कि वे नमक रोटी खा लेंगे पर वापस नहीं जायेंगे तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भविष्य में क्या गुल खिलने वाला है। यह भी कि जिस तरह अपने लोगों की दुदर्शा से व्यथित उत्तर प्रदेश जैसी राज्य सरकारों ने अपने राज्यों में ही उन्हें रोजगार उपलब्ध कराने के हर संभव प्रयास करने शुरू कर दिये हैं उनसे भी उन राज्यों को आज ही सचेत हो जाना चाहिये। यदि अब भी उन्होंने अपने यहां बचे खुचे श्रमिकों को रोकने का ईमानदारी से प्रयास न किया तो उनके यहां कारखाने कैसे चलेंगे इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। जब तक प्रवासी श्रमिक लौटेंगे भी तब तक तो न जाने कितने उद्योगों का अस्तित्व ही दांव पर लग चुका होगा। 

मत बनो सुक्खी लाला

कोरोना संकट में हर तरफ से मजदूरों के शोषण की खबरों ने अपने जमाने की मशहूर फिल्म मदर इण्डिया के सुक्खी लाला की याद दिला दी जो बेबश परिवारों को कर्ज देकर वसूली के नाम पर उनका जीवन भर शोषण करता रहता था। संकट में फंसे जिन मजदूरों को उनके मालिकों द्वारा अग्रिम वेतन दिये जाने की वजाय उन्होंने बकाया वेतन देने से भी मना कर उन्हें भूखों मरने पर छोड़ दिया। जिन मजदूरों की मकान मालिकों द्वारा मदद की जानी चाहिये थी उन्हीं मकान मालिकों ने उन्हें सड़क पर ला दिया। आज के इन आधुनिक सुक्खी लालाओं को शायद ही ऊपर वाला माफ करे।

-शिव त्रिपाठी

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