स्वदेशी को बढ़ावा देकर बापू के नक्शेकदम पर चल रहे हैं प्रधानमंत्री मोदी

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बापू ने स्वदेशी और स्वावलंबन की ताकत को समझा था और ब्रितानी हुकूमत द्वारा बर्बाद कर दी गई भारतीय अर्थव्यवस्था को खड़ी करने एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए आज से सौ साल पहले ही स्वदेशी और स्वावलम्बन का नारा देते हुए इसे ही स्वराज्य की कुंजी माना था।

कोरोना संकट के दौर में पटरी से उतरी भारतीय अर्थव्यवस्था को सुचारू करने के लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वदेशी और स्वावलंबन का नारा देते हुए आत्मनिर्भर भारत अभियान को शुरू किया है। साथ ही 'लोकल के लिए वोकल' कह कर स्थानीय उद्यमों को बढ़ावा देने की वकालत की है। प्रधानमंत्री का यह बयान उदारीकरण के रास्ते पर बहुत आगे बढ़ चुके भारत के लिए फिर से एक बार ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था, कृषि क्षेत्र तथा लघु कुटीर उद्योगों को अवसर के रूप में तलाशने के लिए महत्वपूर्ण है।

तालाबंदी के चलती हुई आर्थिक नाकाबंदी में अर्थव्यवस्था को फिर से खोलना कठिन कार्य है। ऐसे में प्रधनमंत्री ने स्वदेशी और आत्मनिर्भरता की बात कहकर ग्रामीण भारत के सपनों के पंख लगाए हैं। आजादी की लड़ाई के दौरान बापू ने स्वदेशी और स्वावलंबन की ताकत को समझा था और ब्रितानी हुकूमत द्वारा बर्बाद कर दी गई भारतीय अर्थव्यवस्था को खड़ी करने एवं भारत में रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए आज से सौ साल पहले ही स्वदेशी और स्वावलम्बन का नारा देते हुए इसे ही स्वराज्य की कुंजी माना था।

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31 जुलाई 1921 को परेल, मुंबई में एलफिंस्टन मिल के पास पहली बार सार्वजनिक रूप से विदेशी कपड़ों की होली जलाने के बाद, गांधी ने अपने भाषण में साफ तौर पर कहा कि, "स्वदेशी के बिना स्वराज्य असंभव है। हम अपने आप को शुद्ध नहीं कर सकते जब तक कि हम खुद स्वदेशी की प्रतिज्ञा नहीं ले लेते...स्वदेशी की शुरुआत का संकेत तभी मिलेगा जब हम विदेशी कपड़ों का पूर्ण और स्थाई रूप से बहिष्कार करेंगे। मैं कपड़े जलाने के समारोह को एक धार्मिक उत्सव के तौर पर देखता हूं।"

गांधी द्वारा विदेशी कपड़ों को जलाने का मतलब भारतीय वस्त्रों एवं गांव की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों के खिलाफ विरोध को अभिव्यक्त करना नहीं था बल्कि वे भारतीयों द्वारा बुने वस्त्रों की बजाय ब्रिटिश वस्त्रों के लिए अपनी पसंद के जरिए भारतीयों द्वारा श्रम के विनाश में स्वीकृति के पाप से मुक्ति पाने की एक प्रक्रिया थी। गांधी की स्वदेशी मानसिकता की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था।

ब्रिटिश सरकार के सांख्यिकी आंकड़े बताते हैं कि गांधी के स्वदेशी आंदोलन के कारण ब्रिटिश उपनिवेशवाद के लंबे समय के इतिहास में ब्रिटिश साम्राज्य को सबसे बड़ा नुकसान हुआ। ब्रिटिश इंडिया में यूनाइटेड किंगडम का कुल निर्यात 90.6 मिलियन पाउंड से घटकर 52.9 मिलीयन पाउंड हो गया। यह बदलाव 1924 से लेकर 1930 तक यानी 6 वर्षों में हुआ। भारत में ब्रिटिश कपास के सामान का निर्यात उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में बहुत ऊंचाइयों पर था जिसमें 1929 में 14 फ़ीसदी की गिरावट आई और बहिष्कार के वर्ष 1930 में 42.4 फ़ीसदी की गिरावट आई। अक्टूबर 1930 से अप्रैल 1931 के बीच विदेशी कपड़ों का बहिष्कार अपने चरम पर था, इस दौरान मैनचेस्टर मिलों के भारतीय निर्यात में 84 फ़ीसदी की गिरावट आई। नतीजा दिसंबर 1930 में लंकाशायर में बेरोजगारी की दर 47.4 में फ़ीसदी की वृद्धि हुई। छह लाख मिल श्रमिकों में लगभग आधे श्रमिकों की नौकरी चली गई। ब्रिटिश साम्राज्य ने पहली बार अपने आपको असहाय महसूस किया।

यद्यपि आजादी के बाद गांधी के राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने गांधी के आर्थिक विचारों के विरुद्ध औद्योगीकरण का रास्ता चुना और आगे चलकर नब्बे के दशक के बाद उदारीकरण के रथ पर सवार हो गए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि अतीत में नीति-निर्माताओं ने कभी भी स्वदेशी प्रतिभा, संसाधनों और ज्ञान पर भरोसा नहीं किया। बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र में विदेशी पूंजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर जोर दिया। अब जबकि प्रधानमंत्री मोदी ने स्थानीय के लिए मुखर होने की बात कही है, इसके जरिए हम भारत को दुनिया के सामने एक मजबूत मॉडल बना सकते हैं। अपने दैनिक उपयोग में स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग को बढ़ावा देकर हम एक बार फिर 1930 जैसी स्थिति पैदा कर सकते हैं क्योंकि दुनिया का सबसे बड़ा मध्यम वर्ग और उतना ही बड़ा उपभोक्ता बाजार हमारे पास उपलब्ध है। लघु उद्योग, लघु व्यवसाय, कारीगर, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग सहित ग्रामीण उद्योग और रोजगार पर समावेशी विकास के साथ समावेशी विकास के उद्देश्य से अन्य गैर-कृषि गतिविधियों पर ध्यान देकर स्वदेशी उद्योगों के कायाकल्प के जरिए स्वावलंबन हासिल किया जा सकता है।

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यह उन स्थानीय उद्योगों को पुनर्जीवित करने का समय है जिनकी वैश्वीकरण के युग में अनदेखी कर दी गई। यह उन आर्थिक नीतियों की शुरूआत करने का भी समय है जो कल्याण, स्थायी आय, रोजगार सृजन में मदद करती हैं और भारत जैसे देश में जहां मानव श्रम की अधिकता है उसके अनुरूप नागरिकों में भरोसा पैदा किया जा सकता है।

इस समय देश में सात सौ से अधिक एमएसएमई क्लस्टर हैं। इन समूहों का औद्योगिक विकास समृद्ध इतिहास रहा है। चीन से अनुचित प्रतिस्पर्धा और अनुचित आयात नीतियों के कारण इनमें से कई औद्योगिक समूहों ने अपना नुकसान किया। उन्हें हर तरह से समर्थन और मजबूत करना होगा ताकि वे न केवल रोजगार के अवसर पैदा करें बल्कि सबसे किफायती लागत में उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों का उत्पादन करें।

यह वक्त संकल्प का है। हम बिना किसी दबाव के निरंतर अपनी अर्थनीति, कूटनीति और प्रौद्योगिकी नीति को आगे बढ़ाएं। दुनियाभर के देश चीन पर निर्भरता को समाप्त कर स्वावलंबन की तरफ बढ़ने का प्रयत्न कर रहे हैं। इस महामारी के चलते अमेरिका और चीन में तनाव बढ़ने के भी संकेत हैं। ऐसे में हमें अपनी तटस्थता को बनाये रखते हुए देश हित में बिना किसी दबाव के स्वदेशी को बढ़ावा देने वाली नीति पर बढ़ना होगा। स्वतंत्र अर्थनीति और कूटनीति के माध्यम से स्वदेशी, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करना होगा। सामर्थ्य, उद्यमशीलता, वैज्ञानिक उन्नति और कौशल के आधार पर भारत विश्व का मैन्युफैक्चरिंग हब तो बनेगा ही, हमारे युवाओं को रोजगार भी मिलेगा और साथ ही भारतीय कृषि भी लाभकारी सिद्ध हो पाएगी।

-सुरेंद्रसिंह शेखावत

(बीकानेर, राजस्थान)

(लेखक गांधी विचार के अध्येता हैं।)

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