एक बार फिर भारतीय क्रिकेट के ‘संकटमोचक’ की भूमिका में गांगुली

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[email protected] । Oct 28 2019 11:06AM

आंकड़े भी बताते हैं कि वह भारत के सबसे सफल कप्तान रहे लेकिन उनकी इससे भी बड़ी उपलब्धि भारतीयों के अंदर से हार का डर निकालकर उसमें आत्मविश्वास भरना थी। वह चुनौतियों से नहीं डरते और फैसले लेने से नहीं कतराते।

नयी दिल्ली। कभी बड़े भाई की किट का उपयोग करने के लिये बायें हाथ के बल्लेबाज बने सौरव गांगुली जो ठान लेते हैं उसे हासिल करके ही मानते हैं और भारतीय क्रिकेट के ‘महाराज’ की अद्भुत क्षमता का नवीनतम उदाहरण उनका बीसीसीआई अध्यक्ष बनना है।

क्या आपने कभी गौर किया कि गांगुली दायें हाथ से गेंदबाजी करते थे और दायें हाथ से ही लिखते हैं लेकिन वह बायें हाथ के बल्लेबाज थे। इसके पीछे एक रोचक कहानी छिपी है जिससे पता चलता है कि आठ जुलाई 1972 को धनाढ्य परिवार में जन्म लेने के बावजूद उन्हें हर कदम पर विपरीत परिस्थितियों से जूझना पड़ा जिससे वह एक दमदार शख्सियत के रूप में निखरकर सामने आये। गांगुली बचपन में फुटबालर बनना चाहते थे लेकिन मां निरूपा गांगुली चाहती थी कि वह खेलों के बजाय पढ़ाई पर ध्यान दें। उनके बड़े भाई स्नेहाशीष अच्छे क्रिकेटर बन चुके थे और वह चाहते थे कि छोटा भाई भी उनके नक्शेकदम पर चले। पिता चंडीदास और भाई स्नेहाशीष की इच्छा को सम्मान देते हुए उन्हें फुटबाल की बजाय क्रिकेट अकादमी से जुड़ना पड़ा। परिस्थितियां इसके बाद भी अनुकूल नहीं रही। सौरव दायें हाथ से खेलते थे लेकिन उनके बड़े भाई स्नेहाशीष बायें हाथ के बल्लेबाज थे। उनकी किट का इस्तेमाल करने के लिये सौरव बायें हाथ से बल्लेबाजी करने लगे और फिर विश्व क्रिकेट के सर्वश्रेष्ठ वामहस्त बल्लेबाज बने। यह उनकी अदम्य इच्छशक्ति से ही संभव हो पाया। गांगुली को बचपन में ही उनके माता पिता ने ‘महाराज’ उपनाम दे दिया था वह अपने घर के महाराज थे लेकिन भारतीय क्रिकेट का ‘महाराज’ बनने के लिये भी उन्हें कड़ी परीक्षाओं से गुजरना पड़ा।

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गांगुली का अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण सहज नहीं रहा था और जब उन्होंने कप्तानी संभाली तब भारतीय क्रिकेट विषम परिस्थितियों से गुजर रहा था। अब वह ऐसे समय में बोर्ड अध्यक्ष बने हैं जबकि विश्व की सबसे धनी क्रिकेट संस्था का प्रशासन अव्यवस्थित है और उसमें ‘आपातकाल’ जैसी स्थिति है। लेकिन हर किसी को गांगुली पर विश्वास है कि वह नौ महीने के अपने कार्यकाल में ही बोर्ड को नयी दिशा देने में सफल रहेंगे। क्योंकि लोग जानते हैं कि 1992 में आस्ट्रेलियाई दौरे में ‘ड्रिंक्स’ ले जाने से मना करने वाली कथित घटना के कारण चार साल तक बाहर रहने के बाद उन्होंने ‘महाराज’ की तरह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में वापसी की और फिर 2000 में कप्तान बनकर भारतीय टीम को मैच फिक्सिंग के गर्त से सफलतापूर्वक बाहर निकाला था। गांगुली ने 1996 में इंग्लैंड दौरे में अपने पहले दो टेस्ट मैचों में शतक जड़कर जो वापसी की तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक बल्लेबाज और एक कप्तान के रूप में वह हमेशा उदाहरण बनकर सामने आये। राहुल द्रविड़ के लिये वह ‘आफ साइड के भगवान’ थे तो युवा खिलाड़ियों के लिये हमेशा साथ देने वाला संरक्षक।वह गांगुली थे जिन्होंने भारतीयों में आक्रामकता, जोश और जीत का जज्बा भरा था। वह गांगुली थे जिन्होंने भारतीयों को सिर्फ स्वेदश ही नहीं विदेशों में भी जीतना सिखाया था। वह गांगुली थे जिन्होंने युवाओं की फौज तैयार करके दिग्गज टीमों को नाकों चने चबवाये थे।

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आंकड़े भी बताते हैं कि वह भारत के सबसे सफल कप्तान रहे लेकिन उनकी इससे भी बड़ी उपलब्धि भारतीयों के अंदर से हार का डर निकालकर उसमें आत्मविश्वास भरना थी। वह चुनौतियों से नहीं डरते और फैसले लेने से नहीं कतराते। अपने इन गुणों के कारण ही उन्होंने कभी सचिन तेंदुलकर के साथ मिलकर एकदिवसीय क्रिकेट की सबसे सफल जोड़ी बनायी और जब वीरेंद्र सहवाग का बल्ला धूमधड़ाका करने लगा तो शीर्ष क्रम में उनके लिये अपनी जगह खाली कर दी। ऐसा साहसिक फैसला गांगुली जैसा कप्तान ही कर सकता था जिनके लिये व्यक्तिगत उपलब्धि की बजाय टीम अधिक महत्वपूर्ण थी। महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली ने यह गुण गांगुली से ही सीखा और इसी के दम पर वे देश के सबसे सफल कप्तान बने। अपने क्रिकेट करियर में 113 टेस्ट मैचों में 7212 रन और 311 वनडे में 11363 रन बनाने वाले गांगुली को कप्तानी में पांच साल का समय मिला लेकिन बीसीसीआई अध्यक्ष के रूप में उन्हें केवल नौ महीने का समय मिलेगा और इसमें उन्हें न सिर्फ उसके पूरे ढांचे को ढर्रे पर लाना होगा बल्कि अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट समिति से भी पार पाना होगा जिससे कुछ मसलों विशेषकर भविष्य के दौरा कार्यक्रम (एफटीपी) को लेकर उनकी ठन सकती है। गांगुली को खेल प्रशासन का अच्छा अनुभव है। वह बंगाल क्रिकेट संघ के सचिव और अध्यक्ष रह चुके हैं तथा खेल और खिलाड़ियों की जरूरतों को समझते हैं। प्रशासक के रूप में उनका अनुभव उन्हें दुनिया के सबसे दमदार बोर्ड के प्रमुख के रूप में मदद करेगा। वह बोर्ड की कार्यप्रणाली से अच्छी तरह से अवगत हैं तथा इसकी तकनीकी समिति और क्रिकेट सलाहकार समिति के सदस्य रह चुके हैं। अगले नौ महीनों में अंतरराष्ट्रीय मंच के अलावा गांगुली को भारत में बड़े टूर्नामेंटों के आयोजन के लिये करों में छूट, घरेलू ढांचे में सुधार, घरेलू क्रिकेटरों को मिलने वाली धनराशि तथा हितों के टकराव जैसे गंभीर मसलों से जूझना होगा लेकिन एक क्रिकेटर के रूप में वह पहले भी ऐसी परिस्थितियों का सामना करते रहे हैं और जानते हैं कि इनसे कैसे निबटना है। इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि नौ महीने बाद जब ‘विश्राम की अवधि’ के नियम के कारण गांगुली अध्यक्ष का पद छोड़ेंगे तो बीसीसीआई नया स्वरूप हासिल कर लेगा और भारतीय क्रिकेट नयी दिशा पर आगे बढ़ चुका होगा।

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