विश्वप्रसिद्ध है तमिलनाडु के मंदिरों की कलात्मकता

[email protected] । Oct 21 2016 1:06PM

तमिलनाडु के सुप्रसिद्ध मंदिरों में मदुरै का मीनाक्षी, रामेश्वरम् का रामेश्वरम् मंदिर, तंजौर का वृहदीश्वर, तिरुच्चिरापल्ली का श्रीरंगम्, चिदम्बरम् का नटराज तथा कांचीपुरम् का एकांवरनाथ मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं।

प्राचीन काल में हमारे देश में स्थापत्य कला की तीन प्रमुख शैलियां विद्यमान थीं− उत्तर भारत की नागर शैली, उत्तर−दक्षिण की बेसर शैली तथा दक्षिण भारत की द्रविड़ शैली। इनमें मूर्तिकला, शिल्प, सुंदरता आदि की दृष्टि से द्रविड़ शैली अत्यन्त मनमोहक, कलात्मक एवं प्रेरक है। इसका अधिकाधिक विकास तमिल प्रदेश के अनेक मंदिरों के निर्माण में छठी शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी के बीच पल्लव, चोल, पांड्य, विजयनगर और नायक राजाओं के शासनकाल में हुआ।

तमिलनाडु के सुप्रसिद्ध मंदिरों में मदुरै का मीनाक्षी, रामेश्वरम् का रामेश्वरम् मंदिर, तंजौर का वृहदीश्वर, तिरुच्चिरापल्ली का श्रीरंगम्, चिदम्बरम् का नटराज तथा कांचीपुरम् का एकांवरनाथ मंदिर आदि उल्लेखनीय हैं। ये पावन स्थान न केवल भारत में बल्कि अपने अप्रतिम शिल्प वैभव के कारण सारे संसार में विख्यात हो चुके हैं। इन मंदिरों में देवताओं की मूर्तियां आज भी रत्नों से सुशोभित हैं और परंपरा को जीवित रखे हुए हैं।

मीनाक्षी मंदिर- दक्षिण भारत में मदुरै का वही महत्व है जो उत्तर भारत में 'मथुरा' का है। यहां का मीनाक्षी मंदिर अपनी भव्यता के लिए जगतप्रसिद्ध है। मदुरै किसी समय पांड्य राजाओं की राजधानी रही है और मीनाक्षी इस वंश की राजकन्या थी जिसने अपनी भक्ति के प्रभाव से शिवजी को वरण किया था। मीनाक्षी मंदिर बस्ती के मध्य में बना हुआ है। इसके एक भाग में मीनाक्षी देवी का मंदिर है और दूसरे भाग में सुन्देश्वरम् (शिवजी) का। सत्रहवीं शताब्दी में इस मंदिर के विस्तार में नायकवंशी राजा तिरुमलै ने बड़ा योगदान दिया था।

मीनाक्षी मंदिर का सबसे मुख्य आकर्षण इसके ऊँचे−ऊँचे गोपुरों में है जो आकाश को छूते से प्रतीत होते हैं। ये गिनती में चार हैं, जिनका कण−कण उन्नत तथा आकर्षक शिल्प से ओत−प्रोत हैं। इन पर निर्मित सैकड़ों रंगीन देवमूर्तियों के अद्भुत कला कौशल को देखकर दर्शक कुछ पल तक मंत्रमुग्ध सा खड़ा इनकी ओर निहारता रहता है। यहां पर एक से एक भव्य मूर्ति शोभायमान है। द्रविड़ शैली की सर्वोत्तम मूर्तिकला को यदि देखना है तो मदुरै में जाकर मीनाक्षी मंदिर के इन गोपुरों को देखिये जिनके कारण ऐसा सुंदर मंदिर सारे देश में और कहीं नहीं।

मीनाक्षी मंदिर का भीतरी भाग कम कलात्मक नहीं। भित्तियों पर की गई नक्काशी व पच्चीकारी तथा स्थल−स्थल पर बनीं मूर्तियां अपनी−अपनी कथा कह रही हैं। यहां पर एक छोटा−सा तालाब भी बना हुआ है। मदुरै का विष्णु मंदिर भी इसी शैली पर बनाया गया है, जिसमें विष्णु संबंधी अनेक रंगीन मूर्तियां दर्शनीय हैं। इसके साथ ही, यहां का तिरुमलै पैलेस भी देखने योग्य है जिसके स्वर्गाविलास एवं रंगाविलास मुगलकालीन के दीवान−ए−खास व दीवान−ए−आमकी याद दिलाते हैं।

रामेश्वरम् मंदिर- मीनाक्षी मंदिर के बाद तमिलनाडु का सबसे बड़ा आकर्षण रामेश्वरम् का रामेश्वर मंदिर है जो टापू में बना हुआ है। रामेश्वरम् की गणना हमारे देश के चारों धामों में की जाती है। यहां पहुँचने के लिए मण्डपम् से पामवन के बीच बने करीब ढाई कि.मी. लंबे एकमात्र रेल पुल से होकर आना पड़ता है। यहां से गुजरते समय मदमाते सागर का एक ऐसा विस्मयकारी दृश्य देखने को मिलता है, जो अन्यत्र दुर्लभ है।

रामेश्वर मंदिर अपने आप में एक विशाल दुर्ग सा है, जिसके चारों ओर बने ऊँचे−ऊँचे गोपुर यात्रियों को सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं। इस मंदिर में एक हजार खम्भों वाला एक विशाल प्रांगण है, जिस पर की गई नक्काशी और पच्चीकारी बेजोड़ है। कहते हैं कि यहां पर श्री राम ने लंकाधीश रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए शिव जी की शक्तिपूजा की थी। इस मंदिर में स्नान आदि के लिए बाइस कुएं बने हुए हैं जिनका जल समुद्र के निकट होने पर भी मीठा है। पर्यटकों की सुविधा के लिए मंदिर के पूर्वी गोपुर के सामने समुद्र तट के निकट ही एक उत्तम सा जलपान गृह बनाया गया है। यह जगह मदुरै से 150 किलोमीटर और श्री लंका से 75 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

वृहदीश्वर मंदिर- मदुरै की तरह तंजौर भी तमिलनाडु का एक प्रमुख नगर है जो रामेश्वरम् से चेन्नई जाने वाले मार्ग पर स्थित है। यहाँ का साठ मीटर ऊँचा वृहदीश्वर नामक शिव मंदिर भारत का सबसे बड़ा शिव मंदिर माना जाता है। इसमें चोलवंशी नरेश राजराजा चोल ने ग्यारहवीं शती के आरम्भ में बनवाया था। इसके मुख्य आकर्षणों में नंदी की विशाल मूर्ति तथा गर्भगृह में प्रतिष्ठित चमकीले काले पत्थर का लगभग चार मीटर ऊँची शिवलिंग, दोनों ही बड़े प्रभावशाली लगते हैं। यहां का सरस्वती महल नामक पुस्तकालय बहुत मशहूर है। जिसमें असंख्य अनुपलब्ध पांडुलिपियों का भंडार है। इस क्षेत्र के अन्य दर्शनीय कलात्मक मंदिरों में मुन्नारगुड़ी का राजगोपाल स्वामी मंदिर और तिरुवारूर का त्यागराज स्वामी मंदिर भी उल्लेखनीय हैं।

श्री रंगम् मंदिर- तंजौर के वृहदीश्वर मंदिर की भांति तिरुच्चिरापल्ली का श्री रंगम् मंदिर भी हमारे देश का विशाल वैष्णव मंदिर है। यह मंदिर तिरुच्चिरापल्ली नगरी के निकट कावेरी नदी की दो धाराओं के मध्य एक छोटे से टापू में स्थित है जिसके कारण इस कस्बे का नाम 'श्री रंगम्' पड़ गया है। इस मंदिर में भगवान श्री रंगनाथ जी विराजमान हैं। इस संबंध में यहां एक दंतकथा बड़ी मशहूर है कि लंका पर विजयोपरांत अयोध्या लौटते समय श्री रामचंद्र जी ने यह मूर्ति विभीषण के कहने पर उसे पूजा के लिए दे दी थी, किंतु गणेश जी की युक्ति से इस मूर्ति को श्री रंगम् में छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस मंदिर के निकट ही जुंबकेश्वर महादेश का शिव मंदिर है, जिसकी अनूठी कला और पच्चीकारी दर्शकों के मन को मोह लेती है। इसके अतिरिक्त तिरुच्चिरापल्ली नगर में बना मातृ भूतेश्वर मंदिर भी यहां का एक देखने लायक मंदिर है, जिसका निर्माण नायकवंशी रानी मंगम्मा ने करवाया था।

नटराज मंदिर- तमिलनाडु के प्राचीन मंदिरों में चिदम्बरम् के नटराज मंदिर का अपना अलग महत्व है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें शिवलिंग के स्थान पर नटराज की मूर्ति विराजमान है। यहां की नृत्य मुद्रा में कांसे की शिव मूर्ति अन्यत्र दुर्लभ है। इसका निर्माण छठी शताब्दी में पल्लव नरेश सिंह वर्मन ने करवाया था जिसके उपरांत चोल पांड्य तथा विजयनगर के राजाओं ने इसके विकास में योगदान दिया। यह सारा मंदिर बत्तीस एकड़ भूमि के क्षेत्र में फैला हुआ है। पांच तत्वों के आधार पर पांच लिंगों की कल्पना की गई है जिसमें गमन लिंग चिदम्बरम् इस मंदिर में स्थापित है। यहां की नृत्यशाला और कनक सभा मंडप शिल्प के सुंदर नमूने हैं। गोपुरों पर भरतनाट्यम की एक सौ आठ मुद्राओं में निर्मित नटराज की मूर्तियां दर्शनीय हैं। इस मंदिर में एक बड़ा सा तालाब भी बना हुआ है।

इस संबंध में यहां पर एक कथा बड़ी प्रचलित है। कहा जाता है कि पहले पहल यहां पर एक घना जंगल था। इस जंगल में कई ऋषि−मुनि तप करते थे, उन्हें अपने तप पर घमण्ड हो गया था। उनके घमण्ड को चूर करने के लिए एक बार शिव कैलाश से यहां आए। शिव का मुकाबला करने के लिए सभी ऋषि−मुनियों ने मिलकर एक चीता, एक सर्प और बौने दैत्य को भेजा। लेकिन शिव ने उन सबको मौत के मुंह में सुला दिया। चीते की खाल को शिव ने अपने शरीर पर लपेट लिया और बौने दैत्य को अपने पांवों के नीचे कुचलकर ताण्डव नृत्य किया। उस समय की शिव की वह मुद्रा आज सारे संसार में 'नटराज' के रूप में जानी जाती है। इसलिए चिदम्बरम् को भरतनाट्यम की जन्मभूमि भी कहा जाता है। धार्मिक महत्व के साथ−साथ नृत्यकला की दृष्टि से भी यह मंदिर बेजोड़ है।

एकांबरनाथ मंदिर- प्राचीन काल में जिन सात पुरियों को मोक्षदायिनी माना गया है, उनमें कांची अर्थात् कांचीपुरम् एक है। इस नगरी का नाम किसी समय कांचपुर (कनकपुरी) भी था जो कालान्तर में कांचीपुरम् हो गया। यहां का एकांबरनाथ मंदिर तमिलनाडु का एक विख्यात मंदिर है जिसका निर्माण सोलहवीं शताब्दी में विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय ने करवाया था। इसका गोपुर दस मंजिला है जिसकी ऊँचाई सत्तावन मीटर है। यहां का शिल्प द्रविड़ शैली का एक बेहतरीन नमूना है। इस मंदिर में पृथ्वीलिंग स्थापित है, कांचीपुरम् के अन्य दर्शनीय मंदिरों में कैलाशनाथ, वैकुण्ठनाथ, पेरुमाल, विश्वेश्वर, वरदराज स्वामी, चंद्रप्रभा आदि उल्लेखनीय हैं। वरदराज मंदिर में चट्टान को काट कर जंजीर का जो रूप दिया गया है, देखते ही बनता है। यह नगरी चेन्नई से 71 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और कई शताब्दियों तक पल्लवकालीन राजधानी के रूप में गौरवशाली रही है। हमारे देश के पांचवें शंकराचार्य भी यहीं रहते हैं जो कांची कामा कोडि शंकराचार्य के नाम से जाने जाते हैं।


- डॉ. अनामिका प्रकाश श्रीवास्तव

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