परमाणु युग की शुरुआत से निशाने पर रहे हैं Nuclear Scientists, US-Israel-Britain-Soviet ने सर्वाधिक वैज्ञानिक मारे

वैसे परमाणु वैज्ञानिकों को परमाणु युग की शुरुआत से ही निशाना बनाया जाता रहा है। 1944 से 2025 तक के आंकड़े यही दर्शाते हैं। एक शोध रिपोर्ट यह भी बताती है कि वैज्ञानिकों को निशाना बनाने का कोई फायदा नहीं होता।
ईरान के परमाणु कार्यक्रम और सैन्य क्षमताओं को कमजोर और खत्म करने के लिए 13 जून को शुरू किए गए इजराइल के ‘आपरेशन राइजिंग लॉयन’ में अब तक 15 परमाणु वैज्ञानिकों के मारे जाने की खबर है। मारे गये लोगों में ईरान के इस्लामिक आजाद विश्वविद्यालय के प्रमुख और सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी मोहम्मद मेहदी तेहरानची और ईरान के परमाणु ऊर्जा संगठन का नेतृत्व करने वाले परमाणु इंजीनियर फेरेयदून अब्बासी-दवानी भी शामिल थे। हम आपको बता दें कि भौतिकी और इंजीनियरिंग के ये विशेषज्ञ मोहसिन फखरीजादेह के संभावित उत्तराधिकारी थे, जिन्हें ईरान के परमाणु कार्यक्रम के वास्तुकार के रूप में माना जाता था। हम आपको याद दिला दें कि फखरीजादेह की नवंबर 2020 में एक हमले में मौत हो गई थी, जिसके लिए कई लोग इजराइल को दोषी मानते हैं।
वैसे परमाणु वैज्ञानिकों को परमाणु युग की शुरुआत से ही निशाना बनाया जाता रहा है। 1944 से 2025 तक के आंकड़े यही दर्शाते हैं। एक शोध रिपोर्ट यह भी बताती है कि वैज्ञानिकों को निशाना बनाने का कोई फायदा नहीं होता। किसी वैज्ञानिक को खत्म करने से परमाणु कार्यक्रम में देरी तो हो सकती है, लेकिन कोई कार्यक्रम पूरी तरह से खत्म होने की संभावना नहीं होती। बल्कि इससे किसी देश की परमाणु हथियार बनाने की इच्छा बढ़ भी सकती है। हम आपको बता दें कि परमाणु वैज्ञानिकों पर सबसे ज़्यादा हमले अमेरिका और इजराइल ने किए हैं। ऐसे हमलों के पीछे ब्रिटेन और सोवियत संघ का भी हाथ रहा है।
इसे भी पढ़ें: पूरी दुनिया देख रही भारत की कूटनीति का जलवा, इजरायल से जंग के बीच ईरान ने फिर खोला ऑपरेशन सिंधु के लिए अपना एयरस्पेस
एक रिपोर्ट के मुताबिक, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब मित्र राष्ट्र और सोवियत संघ नाज़ी वैज्ञानिकों को पकड़ने की होड़ में लगे थे, तभी से परमाणु वैज्ञानिकों को निशाना बनाने की शुरुआत हुई थी। इसका उद्देश्य था हिटलर की परमाणु बम बनाने की क्षमता को कमज़ोर करना और उन वैज्ञानिकों की विशेषज्ञता का इस्तेमाल अपने-अपने परमाणु कार्यक्रमों में करना। हम आपको यह भी बता दें कि मिस्र, ईरान और इराकी परमाणु कार्यक्रमों के लिए काम करने वाले वैज्ञानिक 1950 के बाद से सबसे अधिक बार निशाना बने हैं। वर्तमान इजराइली अभियान से पहले, ईरानी परमाणु कार्यक्रम में शामिल 10 वैज्ञानिक हमलों में मारे जा चुके हैं। इस तरह, परमाणु वैज्ञानिकों को निशाना बनाना केवल सैन्य रणनीति नहीं, बल्कि एक भू-राजनीतिक हथियार बन चुका है, जहाँ वैज्ञानिक प्रतिभा, राष्ट्रीय सुरक्षा और वैश्विक शक्ति संतुलन एक-दूसरे से गहराई से जुड़े हुए हैं।
अक्सर देखने को मिलता है कि अगर कोई देश किसी दूसरे देश को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकना चाहता है, तो उसके लिए कई तरीके मौजूद हैं। वैज्ञानिकों को निशाना बनाने के साथ-साथ प्रतिबंध, कूटनीति, साइबर हमले और सैन्य बल का भी इस्तेमाल किया जाता है। वैज्ञानिकों को निशाना बनाए जाने से किसी देश की महत्वपूर्ण वैज्ञानिक विशेषज्ञता खत्म हो सकती है और लागत बढ़ सकती है जिससे परमाणु हथियार बनाने में मुश्किलें बढ़ सकती हैं। वैज्ञानिकों को निशाना बनाने के समर्थकों का तर्क है कि ऐसा करने से किसी देश के प्रयास कमजोर हो सकते हैं और उसे परमाणु विकास जारी रखने से रोका जा सकता है। इसलिए वैज्ञानिकों को निशाना बनाने वाले देशों का मानना है कि ऐसा करना किसी विरोधी के परमाणु कार्यक्रम को कमजोर करने का एक प्रभावी तरीका है।
इसके अलावा, कई देश पहले से ही गुप्त रूप से व्यक्तिगत तौर पर वैज्ञानिकों को निशाना बनाते रहे हैं। लेकिन हाल ही में कई वैज्ञानिकों पर खुलेआम हमला हुआ और इजराइल ने जिम्मेदारी लेते हुए हमलों का उद्देश्य भी बताया। वैज्ञानिकों के खिलाफ इस तरह के हमले ऐतिहासिक रूप से कम तकनीकी और कम लागत वाले होते हैं। इसमें बंदूकधारियों, कार बम या दुर्घटनाओं के जरिए वैज्ञानिकों की हत्या की जाती है या उन्हें घायल कर दिया जाता है। हम आपको याद दिला दें कि सबसे हालिया हमलों में जान गंवाने वाले अब्बासी तेहरान में 2010 में हुए कार बम विस्फोट में बच गए थे। हालांकि, फखरीजादेह की हत्या समेत कुछ अपवाद भी हैं, जिसमें रिमोट से संचालित मशीन गन को तस्करी करके ईरान पहुंचाया गया था।
हम आपको याद दिला दें कि 1980 में, इजराइल की खुफिया सेवा मोसाद ने इराकी परमाणु परियोजना में शामिल यूरोपीय लोगों के लिए चेतावनी देते हुए इतालवी इंजीनियर मारियो फियोरेली के घर और उनकी कंपनी एसएनआईए टेकइंट पर बमबारी की थी। वहीं ईरान को परमाणु हथियार हासिल करने से रोकना, अलग-अलग समय में इजराइली प्रधानमंत्रियों का रणनीतिक लक्ष्य रहा है। ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम क्यों आगे बढ़ाया यह सवाल तेहरान से पूछा जा रहा है मगर परिस्थितियां बता रही हैं कि यह उसकी मजबूरी बन गयी थी। दरअसल इजराइल ईरान के छद्म संगठनों हमास और हिजबुल्लाह के नेतृत्व और बुनियादी ढांचे को व्यवस्थित रूप से कमजोर कर चुका था। बाद में इजराइल ने ईरान के आसपास तथा प्रमुख परमाणु प्रतिष्ठानों के निकट हवाई सुरक्षा प्रणाली को नष्ट कर दिया। सीरिया में असद शासन के पतन के कारण ईरान को अपना एक और पुराना सहयोगी खोना पड़ा। इन सभी घटनाक्रमों ने ईरान को काफी कमजोर कर दिया, जिससे बाहरी हमलों का सामना करने में मुश्किलें आईं। अपने छद्म संगठनों और पारंपरिक सैन्य क्षमता के कमजोर हो जाने के बाद ईरान के नेताओं ने सोचा होगा कि अपनी संवर्धन क्षमता बढ़ाना ही आगे बढ़ने के लिए सबसे अच्छा विकल्प होगा।
बताया जाता है कि इजराइल के हालिया हमले से पहले के महीनों में, ईरान ने अपनी परमाणु उत्पादन क्षमता का विस्तार करते हुए यूरेनियम संवर्धन 60 प्रतिशत से आगे बढ़ा दिया, जो हथियार बनाने के लिए जरूरी स्तर से थोड़ा कम था। हाल ही में, अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के ‘बोर्ड ऑफ गवर्नर्स’ ने पाया था कि ईरान परमाणु अप्रसार दायित्वों का पालन नहीं कर रहा। जवाब में, ईरान ने घोषणा की थी कि वह उन्नत सेंट्रीफ्यूज तकनीक और एक तीसरा संवर्धन संयंत्र स्थापित करके अपनी संवर्धन क्षमता को और बढ़ा रहा है। यह सब देख इजराइल को अपने अस्तित्व पर खतरा महसूस हुआ और उसने हमलों की शुरुआत से ही ईरान के परमाणु संयंत्रों और परमाणु वैज्ञानिकों को निशाने पर रखा। बहरहाल, वैज्ञानिकों को निशाना बनाना परमाणु प्रसार को रोकने का एक प्रभावी साधन है या नहीं, यह सवाल परमाणु युग की शुरुआत से ही उठता रहा है और आगे भी उठता रहेगा।
अन्य न्यूज़