शिवाजी ने की शुरुआत, तिलक ने दिलाई राष्ट्रीय पहचान, गणेश पूजा से जुड़ी ये बातें जानते हैं आप?

Ganesh puja
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अभिनय आकाश । Aug 31 2022 12:11PM

1890 के दशक में स्वतंत्रता आदंलोन के वक्त तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे बैठते थे। वे इसी सोच में रहते थे कि आखिर लोगों को कैसे जोड़ा जाए। अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने धार्मिक मार्ग चुना। जिसके बाद घरों से निकालकर गणेशोत्सव को सार्वजनिक स्थानों पर मनाया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज भी गणेशोत्सव के बढ़ते स्वरूप से घबराने लगे।

यूँ तो मूषक सवारी तेरी, सब पे है पहेरेदारी तेरी

पाप की आँधिया लाख हो, कभी ज्योती ना हारी तेरी..

किसी भी शुभ काम का आरंभ श्री गणेश को स्मरण करने से किया जाता है क्योंकि विघ्नहर्ता गणेश भाग्यविधाता कहलाते हैं। रूठे भाग्य को हो मनाना या बिगड़ा काम हो बनाना गणेश जी की आराधना विवेक, बुद्धि, बल और विद्या द्वारा भाग्य बदलने की शक्ति और बिगड़ी बनाने वाली मानी गई है। गणेश चतुर्थी की शुरुआत हो चुकी है। इस दिन पूरे देश में संहारक सिद्धिदाता गणेश जी की पूजा की जाती है। वाड्रा मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को पूजा-व्रत के नियम। ये तिथि गणेश जी का जन्मदिन है। इसलिए गणेश चतुर्थी अत्यंत दुर्लभ और सबसे शुभ दिन है। आज आपको गणेश उत्सव का वो इतिहास बताएंगे जो एजेंडाधारी पाठ्यपुस्तकों में आपको पढ़ाया नहीं गया होगा। इसके साथ ही ये भी बताऊंगा कि सफलता का वो कौन सा मंत्र है जो हमें श्री गणेश से सीखना चाहिए। 

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यही निर्मल भावना लेकर महाराष्ट्र और लगभग पूरे देश में लोग अपने गणपति बप्पा के जन्म का उत्सव मना रहे हैं। गणपति के पंडालों में लोग ऐसे एकजुट हो जाते हैं कि समाज की सभी दरारें भर जाती हैं। कहीं कोई दूरी नजर नहीं आती, कहीं कोई बंटवारा दिखाई नहीं देता। बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड में समाज को जोड़ने का छठ पूजा का जो प्रभाव है। जहां छोटे-बड़े सर्वण हो या पिछड़े, सभी जाति वर्ग के लोग एक साथ छठ माता के घाट पर सिर झुका देते हैं। केवल अपने लिए नहीं अपितु एक-दूसरे के लिए मन्नतें मांगते हैं। वहीं एकता महाराष्ट्र के गली-चौराहों पर दिखाई देती है, जब गणपति के पंडाल सजते हैं। आम लोगों के बीच गणेश चतुर्थी के उत्सव की शुरुआत सबसे पहले छत्रपति शिवाजी ने की थी। शिवाजी महाराज के बाल्यकाल में उनकी मां जीजाबाई ने पुणे के ग्रामदेवता कसबा गणपति की स्थापना की थी। तभी से यह परंपरा चली आ रही है।

पेशवा राजाओं ने गणेशोत्सव को दिया बढ़ावा

शिवाजी महाराज के बाद पेशवा राजाओं की ओर से गणेशोत्सव को आगे बढ़ाया गया। पेशवाओं के महल शनिवार वाड़ा में पुणे के लोग और पेशावओं के सेवक बेहद ही उत्साह के साथ हर साल गणेशोत्सव को मनाते थे। इस उत्सव के दौरान ब्राह्मणों को महाभोज दिया जाता था और गरीबों में मिठाईयां व पैसे बांटे जाते थे। शनिवार वाड़ा पर कीर्तन, भजन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता था। 

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लोकमान्य तिलक ने गणेशोत्सव को दिलाई राष्ट्रीय पहचान 

महाराष्ट्र में आज जिस तरह से लोग गणेश चतुर्थी मनाते हैं उसमें लोकमान्य तिलक का एक बड़ा योगदान है। कहा जाता है कि लोकमान्य तिलक ने ही गणेशोत्सव को राष्ट्रीय पहचान दिलाई। समाजशास्त्रियों के अनुसार, गणेश के इर्द-गिर्द आज के 'भव्य सार्वजनिक आयोजन' ने ब्राह्मणों और गैर-ब्राह्मणों के बीच के मतभेदों को मिटा दिया है और गजानन राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गए। पूजा को केवल धार्मिक कर्मकांड तक ही सीमित नहीं रखा गया। गणेशोत्सव को आजादी की लड़ाई, समाज को संगठित करने व आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का जरिया बनाया गया। 

घबराने लगे अंग्रेज

1890 के दशक में स्वतंत्रता आदंलोन के वक्त तिलक अक्सर चौपाटी पर समुद्र के किनारे बैठते थे। वे इसी सोच में रहते थे कि आखिर लोगों को कैसे जोड़ा जाए। अंग्रेजों के खिलाफ एकजुटता बनाने के लिए उन्होंने धार्मिक मार्ग चुना। जिसके बाद घरों से निकालकर गणेशोत्सव को सार्वजनिक स्थानों पर मनाया जाने लगा। एक समय ऐसा भी आया जब अंग्रेज भी गणेशोत्सव के  बढ़ते स्वरूप से घबराने लगे। गणेशोत्सव को लेकर रोलेट समिति की रिपोर्ट में भी चिंता जताई गई। रिपोर्ट में कहा गया था गणेशोत्सव के दौरान युवकों की टोलियां सड़कों पर घूम-घूम कर अंग्रेजी शासन विरोधी गीत गाती हैं और स्कूली बच्चे पर्चे बांटते हैं। जिसमें अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हथियार उठाने और मराठों से शिवाजी की तरह विद्रोह करने का आह्वान होता है। 

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