दीनदयाल उपाध्याय के बारे में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के क्या थे विचार, जानिए

deendayal upadhyaya

पं दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को उनके नाना चुन्नीलाल के घर राजस्थान के धनिया गांव में हुआ था। उनका पैतृक गांव उत्तर प्रदेश में मथुरा जिले का नंगला चंद्रभान है। पंडित जी के पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय ब्रज मथुरा में जलेसर रेलवे मार्ग पर एक स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे।

कहा जाता है कुछ लोग महान पैदा होते हैं, कुछ लोग महानता अर्जित करते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ऐसे महापुरुष हैं जिन्होंने महानता अर्जित की थी। एकात्म मानववाद और अंत्योदय के जिस रास्ते पर चलकर आज केंद्र सरकार देश के हर वर्ग के सपने को साकार कर आत्मनिर्भर भारत की ओर कदम बढ़ा रही है। उसके प्रणेता पं दीनदयाल उपाध्याय ही हैं। एक ऐसे युगदृष्ट जिनके बोए गए विचारों और सिद्धांतों के बीज ने राष्ट्र पुनर्निर्माण के लिए जन-जन को आलोकित किया। समाज की अंतिम सीढ़ी पर जो बैठा हुआ है दलित हो पीड़ित हो शोषित हो, वंचित हो, गांव हो, गरीब हो, किसान हो…. सबसे पहले उसका उदय होना चाहिए। राष्ट्र को सशक्त और स्वावलंबी बनाने के लिए समाज को अंतिम सीढ़ी पर यह जो लोग हैं उनका सामाजिक, आर्थिक विकास करना होगा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का यही विचार अंत्योदय के मूल का जनक है। जिसके आधार पर चलकर सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सब का प्रयास के मूल मंत्र का उदय हुआ है।

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पं दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितंबर 1916 को उनके नाना चुन्नीलाल के घर राजस्थान के धनिया गांव में हुआ था। उनका पैतृक गांव उत्तर प्रदेश में मथुरा जिले का नंगला चंद्रभान है। पंडित जी के पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय ब्रज मथुरा में जलेसर रेलवे मार्ग पर एक स्टेशन पर स्टेशन मास्टर थे। पं दीनदयाल उपाध्याय का बचपन असहनीय परेशानियों के बीच बीता। दीनदयाल जी जब 3 साल के थे तभी उनके सिर से पिता का साया उठ गया। 7 वर्ष की छोटी सी आयु में मां रामप्यारी का भी निधन हो गया। जिंदगी की जिस अवस्था में मां-पिता के प्रेम की बहुत जरूरत होती है, उसी अवस्था में पंडित जी पिता के आश्रय और मां की ममता से वंचित हो गए थे। पंडित जी होनहार थे, बुद्धि से तेज थे, उन्होंने कल्याण हाई स्कूल सीकर से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। उन्हें अजमेर बोर्ड और स्कूल दोनों की तरफ से एक एक स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। 2 वर्ष बाद बिरला कॉलेज पिलानी से हायर सेकेंडरी परीक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए इस। बार भी उन्हें दो स्वर्ण पदक मिले। 1939 में उन्होंने सनातन धर्म कॉलेज कानपुर से गणित विषय से बीए की परीक्षा प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण की। यहीं उनकी भेंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं से हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ताओं के तपस्वी जीवन से प्रभावित होकर उनके मन में भी देश सेवा करने का विचार आया। पंडित जी ने आगरा के सेंट जॉन्स कॉलेज में एमए के लिए दाखिला लिया लेकिन किन्हीं कारणों से उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इस दौरान उन्होंने तय कर लिया था कि वह नौकरी नहीं करेंगे। उन्होंने राष्ट्रीय जागृति युवाओं एवं राष्ट्रीय एकता के लिए कटिबद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्य के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। 1951 तक वे संघ में विभिन्न पदों पर रहकर समाज चेतना का कार्य करते रहे।

1951 में वे जब जनसंघ की स्थापना हुई तब से उन्होंने अपनी सेवाएं जनसंघ को अर्पित कर दी। डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी उनकी संगठन क्षमता से इतने अधिक प्रभावित हुए कि कानपुर अधिवेशन के बाद उनके मुंह से यही उद्गार निकले कि मेरे पास 2 दीनदयाल होते तो मैं भारत का राजनीतिक रूप बदल देता। दुर्भाग्य से 1953 में डां मुखर्जी की मृत्यु हो गई। मुखर्जी की मौत के बाद भारत का राजनीतिक स्वरूप बदलने की जिम्मेदारी पंडित दीनदयाल के कंधों पर आ गई। उन्होंने इस कार्य को इतने चुपचाप और विशेष ढंग से पूरा किया कि जब 1967 के आम चुनाव के परिणाम सामने आने लगे तो देश आश्चर्यचकित रह गया। वोट प्रतिशत के लिहाज से जनसंघ राजनीति राजनीतिक दलों में दूसरे क्रमांक पर पहुंच गया। यद्यपि दीनदयाल जी महान नेता बन गए परंतु अति साधारण ढंग से ही रहते थे। वह अपने अपने कपड़े स्वयं ही साफ करते थे। विदेशी के बारे में शोर नहीं मचाते थे परंतु वे कभी भी विदेशी वस्तु नहीं खरीदते थे।

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स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता का उपयोग राष्ट्रभक्ति की अलग जगाने के लिए किया। ऐसे नेताओं की कतार में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम भी शामिल है। पंडित दीनदयाल राजनीति में सक्रिय होने के साथ साहित्य से भी जुड़े थे। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लिए विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। उनके बौद्धिक सामर्थ को समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी है। उन्होंने एक बैठक में लगातार 16 घंटे बैठकर लघु उपन्यास चंद्रगुप्त मौर्य लिख डाला था। दीनदयाल जी ने लखनऊ में राष्ट्रधर्म प्रकाशन की स्थापना की और राष्ट्रवादी विचारों को प्रसारित करने के लिए मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की। बाद में उन्होंने पांचजन्य और स्वदेश की शुरुआत भी की थी। वे उच्च कोटि के पत्रकार थे।

11 फरवरी 1968 को मुगलसराय रेलवे यार्ड में उनका शव मिलने से सारे देश में शोक की लहर दौड़ गई थी। उनकी इस तरह हुई हत्या को कई लोगों ने भारत के सबसे बुरे कांडों में से एक माना। पंडित दीनदयाल जी की रहस्यमई स्थिति में हुई मौत की गुत्थी आज तक नहीं सुलझ सकी है। पं दीनदयाल उपाध्याय भारत में लोकतंत्र के उन पुरोधा में से एक हैं, जिन्होंने उसके उदार और भारतीय स्वरूप को गढा है। उन्होंने राजनीति में सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य को लेकर प्रवेश नहीं किया था। सादगी से जीवन जीने वाले इस महापुरुष में राजनीतिज्ञ, संगठन शिल्पी, कुशल वक्ता, सामाजिक चिंतक, अर्थ चिंतक, शिक्षाविद, लेखक और पत्रकार सहित कई प्रतिभाएं समाहित थी। ऐसे प्रतिभाएं एक कम ही लोगों में होती है। पं दीनदयाल उपाध्याय के राजनीतिक व्यक्तित्व को सब सब भली प्रकार जानते हैं। उन्होंने जनसंघ कुशल नेतृत्व किया, उसके लिए सिद्धांत गढ़े और राजनीति में शुचिता की नई लकीर खींची।

- हेमेन्द्र क्षीरसागर 

लेखक, पत्रकार व विचारक

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