देवशयनी एकादशी का महत्व, कथा और पर्व से जुड़ी पौराणिक मान्यताएँ

Devshayani Ekadashi
शुभा दुबे । Jul 1 2020 12:50PM

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। देवशयनी एकादशी के रूप भी देश में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग देखने को मिलते हैं। महाराष्ट्र में इस दिन भगवान विट्ठल की पूजा की जाती है।

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। भारत में कई जगह इस तिथि को 'पद्मनाभा' भी कहते हैं और इस एकादशी को शयनी एकादशी, महा-एकादशी, प्रथमा एकादशी, पद्मा एकादशी और देवोपदी एकादशी भी कहा जाता है। माना जाता है कि सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री हरि विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है। इस दौरान किसी प्रकार के शुभ कार्य जैसे विवाह आदि नहीं किये जाते। धार्मिक दृष्टि से यह चार मास भगवान विष्णु का निद्रा काल माना जाता है। माना जाता है कि इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल के समस्त तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं लेकिन इस बार कोरोना काल में सभी तरह के बड़े धार्मिक कार्यक्रमों के आयोजन पर रोक है।

हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखता है। देवशयनी एकादशी के रूप भी देश में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग देखने को मिलते हैं। महाराष्ट्र में इस दिन भगवान विट्ठल की पूजा की जाती है।

इसे भी पढ़ें: निर्जला एकादशी का महत्व, व्रत के नियम और पूजा विधान

भगवान के शयन से जुड़ी मान्यता

मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि को शंखासुर दैत्य मारा गया था इसलिए उसी दिन से आरम्भ करके भगवान चार मास तक क्षीर समुद्र में शयन करते हैं और कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान हरि ने वामन रूप में दैत्य बलि के यज्ञ में तीन पग दान के रूप में मांगे। भगवान ने पहले पग में संपूर्ण पृथ्वी, आकाश और सभी दिशाओं को ढक लिया। अगले पग में सम्पूर्ण स्वर्ग लोक ले लिया। तीसरे पग में बलि ने अपने आप को समर्पित करते हुए सिर पर पग रखने को कहा। इस प्रकार के दान से भगवान ने प्रसन्न होकर उसे पाताल लोक का अधिपति बना दिया और वर मांगने को कहा। बलि ने वर मांगते हुए कहा कि भगवान आप मेरे महल में नित्य रहें। बलि के इस वर से लक्ष्मी जी सोच में पड़ गयीं और उन्होंने बलि को भाई बना लिया और भगवान को वचन से मुक्त करने का अनुरोध किया। कहा जाता है कि इसी दिन से भगवान विष्णु जी द्वारा वर का पालन करते हुए तीनों देवता 4-4 माह सुतल में निवास करते हैं। भगवान विष्णु देवशयनी एकादशी से देवउठनी एकादशी तक, भगवान शिव महाशिवरात्रि तक और भगवान ब्रह्मा जी शिवरात्रि से देवशयनी एकादशी तक निवास करते हैं।

भगवान श्रीविष्णु को प्रसन्न करने का बहुत अच्छा समय 

इस दिन उपवास करके श्री हरि विष्णु की सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका षोडशोपचार सहित पूजन करके पीताम्बर आदि से विभूषित कर सफेद चादर से ढके गद्दे तकिये वाले पलंग पर उसे शयन कराना चाहिए। श्रद्धालुओं को चाहिए कि इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करें। मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रु नाश आदि के लिए कड़वे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें।

देवशयनी एकादशी कथा 

एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया कि सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। राजा इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इससे चारों ओर त्राहि त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा व्रत आदि सबमें कमी हो गई। दुखी राजा सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसका दण्ड पूरी प्रजा को मिल रहा है। फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का उपाय खोजने के लिए राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहां वह ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें प्रणाम कर सारी बातें बताईं। उन्होंने ऋषिवर से समस्याओं के समाधान का तरीका पूछा तो ऋषि बोले− राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी भयंकर दण्ड मिलता है।

इसे भी पढ़ें: क्या है गंगा दशहरा पर्व का महत्व, पूजन विधि और व्रत कथा

ऋषि अंगिरा ने कहा कि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी। राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का पूरी निष्ठा के साथ व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और अकाल दूर हुआ तथा राज्य में समृद्धि और शांति लौटी इसी के साथ ही धार्मिक कार्य भी पूर्व की भांति आरम्भ हो गये।

-शुभा दुबे

We're now on WhatsApp. Click to join.
All the updates here:

अन्य न्यूज़