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संकष्टी चतुर्थी व्रत से प्राप्त होती है शिक्षा, सेहत और सम्मान
- प्रज्ञा पाण्डेय
- जनवरी 2, 2021 12:15
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संकष्टी चतुर्थी का अवसर बहुत खास होता है। इसलिए इस दिन जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ पीले वस्त्र पहनें। इसके बाद चौकी साफ आसन बिछाएं और उस पर गंगाजल का छिड़कें। अब चौकी पर भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र विराजित करें। गणेश जी को फूल माला चढ़ाएं।
आज संकष्टी चतुर्थी है, हिन्दू धर्म में इस व्रत को बहुत शुभ माना जाता है। इस दिन भक्त व्रत रखकर गणेश जी की पूजा करते हैं। यह व्रत पौष मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को पड़ता है इसलिए इसे संकष्टी चतुर्थी नाम दिया गया है। इस दिन गणेश जी की पूजा करने से जीवन में आने वाले संकट दूर होते हैं तो आइए हम आपको संकष्टी व्रत का महत्व तथा पूजा की विधि के बारे में बताते हैं।
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संकष्टी चतुर्थी व्रत के बारे में जानकारी
हिन्दू धर्म में संकष्टी चतुर्थी का अर्थ संकट को दूर करने वाली चतुर्थी माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, पौष मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को संकष्टी चतुर्थी व्रत रखा जाता है। संकष्टी चतुर्थी की खास बात यह है कि यह पूजा सुबह और शाम दोनों समय में की जाती है। जहां सुबह व्रत का संकल्प लिया जाता है, वहीं शाम को आरती की जाती है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पूजा करने से संकट से मुक्ति मिलती है। गणेश चतुर्थी का व्रत भगवान गणेशजी को समर्पित है तथा यह व्रत हर महीने की चतुर्थी तिथि को रखा जाता है। इस बार यह संकष्टी चतुर्थी व्रत इस बार 2 जनवरी 2021 दिन शनिवार को रखा जाएगा।
संकष्टी चतुर्थी का महत्व
हिन्दू धर्म में संकष्टी चतुर्थी का विशेष महत्व होता है। यह दिन भगवान गणेश जी को समर्पित होता है। गणेश जी को देवताओं में प्रथम देव का दर्जा है। इसलिए हिन्दू धर्म में कोई भी शुभ कार्य करने से पहले गणेश जी का स्मरण किया जाता है। गणेश जी की उपासना करने से शिक्षा, धन, सेहत और मान सम्मान प्राप्त होता है। शास्त्रों के अनुसार, इस दिन जो लोग सच्चे मन से व्रत रखते हैं तथा भगवान गणेश की पूरे विधि-विधान से उपासना करते हैं उसके ऊपर प्रभु की कृपा बरसती है। पंडितों का मानना है कि इस संकष्टी चतुर्थी का व्रत रखने वाले जातक को गणेश भगवान सभी मुसीबतों से बाहर निकालते हैं तथा मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। संकष्टी चतुर्थी व्रत रखने से विवाद संबंधी दोष भी दूर होते हैं।
संकष्टी चतुर्थी के दिन ऐसे करें पूजा
संकष्टी चतुर्थी का अवसर बहुत खास होता है। इसलिए इस दिन जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ पीले वस्त्र पहनें। इसके बाद चौकी साफ आसन बिछाएं और उस पर गंगाजल का छिड़कें। अब चौकी पर भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र विराजित करें। गणेश जी को फूल माला चढ़ाएं।
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अब दीपक, अगरबत्ती और धूपबत्ती जलाएं। उसके बाद गणेश चालीसा पढ़ें तथा गणेश मंत्रों का जाप करें। भगवान गणेश की आरती करें। शाम को चंद्रमा को अर्घ्य देकर व्रत को पूरा करें।
संकष्टी चतुर्थी का शुभ मुहूर्त
संकष्टी चतुर्थी के दिन पूजा का शुभ मुहूर्त प्रात: 5 बजकर 25 मिनट से 6 बजकर 20 मिनट तक रहेगा। इसके बाद शाम को पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 5 बजकर 36 मिनट से शाम 6 बजकर 58 मिनट तक है। राहु-केतु से मुक्ति हेतु संकष्टी चतुर्थी का व्रत करें।
अगर आप राहु-केतु जैसे ग्रहों से परेशान हैं तो गणेश जी की पूजा करने से राहु-केतु से यह दोष दूर हो जाता है। पंडितों के अनुसार राहु तथा केतु को प्रसन्न करने हेतु इस दिन भगवान गणेश जी को दूर्वा घास अर्पित करनी चाहिए। ऐसी पूजा से इन दोनों ग्रहों की अशुभता में कम होती है।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- प्रज्ञा पाण्डेय
- फरवरी 27, 2021 12:24
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हिन्दू धर्म में मान्यता प्रचलित है कि माघ पूर्णिमा के दिन पवित्र नदियों में स्नान तथा दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए माघ पूर्णिमा के दिन काशी, प्रयागराज और हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थानों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है।
आज माघ पूर्णिमा है। माघ महीने की पूर्णिमा तिथि का हिन्दू धर्म में खास महत्व है। इस दिन पवित्र स्नान तथा दान से पुण्य फल की प्राप्ति होती है तो आइए हम आपको माघ पूर्णिमा के महत्व तथा पूजा विधि के बारे में बताते हैं।
जानें माघ पूर्णिमा के बारे में
ऐसी मान्यता है कि माघी पूर्णिमा या माघ पूर्णिमा के दिन चन्द्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ उदित होता है। हिन्दू मान्यतानुसार पूर्णिमा तिथि को बेहद शुभ माना जाता है। इस वर्ष पूर्णिमा तिथि 27 फरवरी 2021 (शनिवार) को है। इस दिन दान पुण्य और स्नान करने का विशेष महत्व होता है। पंडितों के अनुसार माघ पूर्णिमा के दिन पूजा-पाठ व दान करने से जीवन में सुख, शांति और खुशहाली आती है।
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माघ पूर्णिमा के दिन नदियों में स्नान का है खास महत्व
हिन्दू धर्म में मान्यता प्रचलित है कि माघ पूर्णिमा के दिन पवित्र नदियों में स्नान तथा दान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए माघ पूर्णिमा के दिन काशी, प्रयागराज और हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थानों में स्नान करने का विशेष महत्व बताया गया है। पंडितों का मानना है कि माघ पूर्णिमा पर स्नान करने वाले लोगों पर भगवान विष्णु विशेष रूप से प्रसन्न होते हैं और उन्हें सुख सौभाग्य प्राप्त होता है।
माघ पूर्णिमा से जुड़ी व्रत कथा
माघ पूर्णिमा से सम्बन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार, कांतिका नगर में धनेश्वर नाम का ब्राह्मण निवास करता था। वह अपना जीवन दान पर व्यतीत करता था। ब्राह्मण और उसकी पत्नी नि:संतान थे। एक दिन उसकी पत्नी नगर में भिक्षा मांगने गई, लेकिन सभी ने उसे बांझ कहकर भिक्षा देने से इनकार कर दिया। तब किसी ने उससे 16 दिन तक मां काली की पूजा करने को कहा, उसके कहे अनुसार ब्राह्मण दंपत्ति ने ऐसे ही पूजा की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर 16 दिन बाद मां काली प्रकट हुई। मां काली ने ब्राह्मण की पत्नी को गर्भवती होने का वरदान दिया और कहा, कि अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रत्येक पूर्णिमा को तुम दीपक जलाओ। इस प्रकार प्रत्येक पूर्णिमा के दिन तक दीपक बढ़ाती जाना जब तक कम से कम 32 दीपक न हो जाएं।
ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को पूजा के लिए पेड़ से आम का कच्चा फल तोड़कर दिया। उसकी पत्नी ने पूजा की और फलस्वरूप वह गर्भवती हो गयी। प्रत्येक पूर्णिमा को वह मां काली की आज्ञानुसार अनुसार दीपक जलाती रही। मां काली की कृपा से उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया, जिसका नाम देवदास रखा। देवदास जब बड़ा हुआ तो उसे अपने मामा के साथ पढ़ने के लिए काशी भेजा गया। काशी में उन दोनों के साथ एक दुर्घटना घटी जिसके कारण धोखे से देवदास का विवाह हो गया। देवदास ने कहा कि वह अल्पायु है परंतु फिर भी जबरन उसका विवाह करवा दिया गया। कुछ समय बाद काल उसके प्राण लेने आया लेकिन ब्राह्मण दंपत्ति ने पूर्णिमा का व्रत रखा था, इसलिए काल उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाया। तभी से कहा जाता है कि पूर्णिमा के दिन व्रत करने से संकट से मुक्ति मिलती है और सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
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माघ पूर्णिमा का महत्व
हिन्दू धर्म में माघ महीना बहुत पवित्र माना जाता है लेकिन पद्मपुराण में कहा गया है कि माघ पूर्णिमा के दिन स्वयं भगवान विष्णु (Lord Vishnu) गंगाजल में निवास करते हैं। इसलिए ऐसी मान्यता है कि इस दिन गंगा जल के स्पर्श मात्र से समस्त पापों का नाश हो जाता है। इस दिन नदियों में स्नान करने से सुख-सौभाग्य, संतान सुख, धन-वैभव के साथ ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसके अलावा इस दिन दान करने से व्यक्ति के जीवन में आने वाली सभी बाधाएं दूर हो जाती हैं।
माघ पूर्णिमा के दिन करें इनका दान
माघ पूर्णिमा के दिन स्नान के साथ ही दान का भी विशेष महत्व है। इसलिए स्नान के बाद गरीबों और जरूरतमंदों को कंबल, गुड़ और तिल का दान करना चाहिए. इससे सभी तरह की आर्थिक समस्याएं दूर होती हैं। इसके अलावा आप जरूरतमंदों को वस्त्र, घी, लड्डू, अनाज आदि भी दान कर सकते हैं।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- प्रज्ञा पाण्डेय
- फरवरी 24, 2021 12:16
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प्रदोष व्रत त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। इस बार 24 फरवरी 2021 (बुधवार) को माघ महीने के शुक्ल पक्ष का प्रदोष व्रत मनाया जा रहा है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना की जाती है।
आज बुध प्रदोष व्रत है। बुधवार के दिन प्रदोष व्रत होने के कारण इसे बुध प्रदोष व्रत कहा जाता है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव की पूजा का विधान है तो आइए हम आपको बुध प्रदोष व्रत के विधि तथा महत्व के बारे में बताते हैं।
जानें माघ शुक्ल प्रदोष व्रत के बारे में
प्रदोष व्रत त्रयोदशी तिथि को किया जाता है। इस बार 24 फरवरी 2021 (बुधवार) को माघ महीने के शुक्ल पक्ष का प्रदोष व्रत मनाया जा रहा है। प्रदोष व्रत में भगवान शिव और माता पार्वती की पूजा-अर्चना की जाती है। साथ ही प्रदोष काल में ही प्रदोष व्रत की पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि प्रदोष के दिन भगवान शिव और माता पार्वती की एक साथ पूजा करने से कई जन्मों के पाप धुल जाते हैं और मन पवित्र हो जाता है।
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सभी इच्छाओं को पूरा करता है प्रदोष व्रत
प्रदोष व्रत में शिव जी की आराधना होती है। ऐसे जो भी व्यक्ति सुख-सुविधाएं चाहते है या धन अर्जन की इच्छा रखते हैं, उनके लिए इस व्रत को करने की परंपरा है। जिस शुक्रवार को प्रदोष पड़े उस दिन इसे करना चाहिए। दीर्घायु की कामना से भी इस व्रत को किया जाता है। धार्मिक शास्त्रों की मानें तो जिस त्रयोदशी को रविवार पड़े उस दिन इस व्रत को आरंभ करना चाहिए। संतान की प्राप्ति के लिए शनि त्रयोदशी का व्रत करें। साथ ही कर्ज से मुक्ति हेतु सोम प्रदोष का व्रत करें।
बुध प्रदोष व्रत में ऐसे करें पूजा
इस दिन सबसे पहले प्रदोष व्रत करने के लिए आपको सुबह जल्दी चाहिए। उसके बाद स्नान के पश्चात स्वच्छ वस्त्र पहनें और भगवान शिव का ध्यान करें। इसके बाद भगवान शिव का अभिषेक करना करें। पंचामृत और पंचमेवा का भगवान को भोग लगाएं उसके बाद व्रत का संकल्प लें। शाम में भगवान शिव की पूजा से पहले स्नान अवश्य करें तथा प्रदोष काल में शिव जी की आराधना प्रारम्भ करें।
जानें बुध प्रदोष व्रत की पौराणिक कथा
हिन्दू धर्म में बुद्ध प्रदोष व्रत के विषय में एक कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार एक पति अपनी पत्नी को लेने उसके मायके गया। ससुराल में घर के लोग बुधवार के दिन दामाद और बेटी को विदा न करने की आग्रह करने लगे। लेकिन पति अपने ससुराल वाली की बात पर ध्यान नहीं दिया और उसी दिन अपनी पत्नी को साथ लेकर अपने घर को चल दिया। रास्ते में दोनों पति-पत्नी जाने लगे तभी पत्नी को प्यास लगी तो पति ने कहा मैं पानी की व्यवस्था करके आता हूं। वह पानी लेने जंगल में चला गया। पति के लौटने पर उसने देखा कि पत्नी किसी और के साथ हंस रही है और दूसरे के लोटे से पानी पी रही है। यह देखकर वह काफी क्रोधित हो गया। तब उसने सामने जाकर देखा तो वहां पत्नी जिसके साथ बात कर रही थी वे कोई और नहीं बल्कि उसी का हमशक्ल था। पत्नी भी दोनों में सही कौन है इसकी पहचान नहीं कर पा रही थी ऐसे में पति ने भगवान शिव से प्रार्थना किया और कहा कि पत्नी के मायके पक्ष की बात न मान कर उसने बड़ी भूल की है। यदि वह सकुशल घर पहुंच जाएगा तो नियमपूर्वक बुधवार त्रियोदशी को प्रदोष का व्रत करेगा। ऐसा करते ही भगवान शिव की कृपा से दूसरा हमशक्ल गायब हो गया। उसी दिन से दोनों पति-पत्नी बुध प्रदोष का व्रत करने लगे।
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बुध प्रदोष व्रत में इन गलतियों से बचें
बुध प्रदोष व्रत विशेष प्रकार का व्रत है इसलिए इसमें किसी भी प्रकार की गलती से बचें। पंडितों का मानना है कि इस दिन साफ-सफाई का विशेष ख्याल रखें। इस दिन नहाना नहीं भूलें। काले वस्त्र न पहनें और व्रत रखें। क्रोध पर नियंत्रण रखें और ब्रह्मचर्य का पालन करें। साथ ही मांस-मदिरा का सेवन न कर केवल शाकाहार भोजन ग्रहण करें।
बुध प्रदोष व्रत का महत्व
हिन्दू धर्म में प्रदोष व्रत का खास महत्व होता है। हमारे शास्त्रों में वर्णन किया है कि इस दिन भगवान शिव की पूजा करने से घर में सुख-शांति आती है। संतान की इच्छा रखने वाली स्त्रियों के लिए यह व्रत फायदेमंद होता है। अच्छे वर की कामना से कुंवारी कन्याएं इस व्रत को करती हैं।
- प्रज्ञा पाण्डेय
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- सुखी भारती
- फरवरी 16, 2021 11:42
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माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें।
पीले−पीले फूलों से सजी हुई धरती की गेंद, बड़े−छोटे पेड़ों पर फूट रही नईं कोपलें, जीव जंतुओं के मुख पर नई ऋतु की आमद की खुशी, ठंडी एवं शुष्क हवाओं के जाने का समय। यह सब निशानियां हैं एक सुहावनी एवं महमोहक ऋतु के आगमन की। जिसे बसंत ऋतु कहा जाता है। भारत में मुख्यतः छह ऋतुएं मानी गईं हैं एवं प्रत्येक ऋतु दो महीनों की अवधि की होती है। महान कवि कालीदास जी ने 'ऋतु संहार' ग्रंथ में सभी ऋतुओं की विशेषताओं पर प्रकाश डाला है। भगवान श्री कृष्ण जी भी गीता के अंदर कहते हैं−
मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।
अर्थात् मैं महीनों में मार्गशीर्ष−अगहन हूँ। और ऋतुओं में ऋतुराज बसंत हूँ।
यह ऋतुराज या बसंत का मौसम इस माह भी अंगड़ाई लेकर झूम उठा है। इसकी शुरुआत माघ शुक्ल पंचमी के दिन होती है। बसंत पंचमी को 'श्री पंचमी' कह कर भी संबोधित किया जाता है। इसका भाव है कि इस पर्व में भारतीय ऋषियों का ओजस्वी तत्व अवश्य निहित होगा। आए जानते हैं कि वास्तव में वह ओजस्वी तत्व आखिर है क्या?
अगर हम इस रहस्य से पर्दा उठाना चाहते हैं तो हमें बसंत पंचमी के एक अन्य नाम पर भी चर्चा करनी पड़ेगी। जिसे 'विद्या जयंती' कहा जाता है। जोकि विद्या देवी 'सरस्वती' के जन्म अथवा प्रकाट्य का दिवस है।
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कहते हैं कि जब इस सृष्टि का आरंभ हुआ तो ब्रह्मा जी ने अदभुत् सृजन कार्य किया। परंतु इसके बावजूद भी वे अपने सृजन से संतुष्ट नहीं थे। इसका कारण था कि उनके द्वारा बनाई गई संपूर्ण सृष्टि निःशब्द थी। सब ओर बस एक सन्नाटा व मौन था। ऐसे में श्री ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु जी से आज्ञा प्राप्त कर एक दैवी शक्ति का सृजन किया− जिन्हें आज हम देवी सरस्वती जी के रूप में जानते हैं। यह दैवी शक्ति श्री ब्रह्मा जी के मुख से प्रकट होने के कारण 'वाग देवी' भी कहलाईं।
वागदेवी माँ सरस्वती जी वीणा−वादिनी हैं। उनके प्रकट होते ही संपूर्ण सृष्टि संगीतमय हो गई। इस सृष्टि के कण−कण से मधुर ध्वनियां झंकृत हो उठीं, जल धराएँ कल−कल मधुर निनाद से गुनगुनाने लगीं। पवन की चाल अद्भुत सरसराहट से गुंजायमान होकर बहने लगी। सृष्टि के हर जीव के कंठ में वाणी अंगड़ाई लेने लगी। जड़−चेतनमय जगत जो अब तक निःशब्द था वो शब्दमय बन गया। सरस्वती नाम में निहितार्थ भी तो यहीं हैं−सरस़+मुतुप् अर्थात जो रसमय प्रवाह से युक्त है, सरस है, प्रवाह अथवा गतिमान है। संगीत व शब्दमय वाणी को प्रवाहमान करने वाली विद्या एवं ज्ञान को भी प्रवाहित कर देती हैं।
माँ सरस्वती का चतुर्भुज स्वरूप हमारे सामने उनके अलौलिक व दिव्य अति दिव्य रूप को दर्शाता है। माँ के चारों हाथों में सुशोभित 'चार अलंकार' माता शारदा की विद्या दात्री महिमा को उजागर करते हैं। ये अलंकार हैं− वीणा, पुस्तक, अक्षमाला एवं वर्द मुद्रा। ये चारों अलंकार प्रत्यक्ष तौर पर विद्या के ही साधन हैं। वीणा संगीत विद्या की प्रतीक है। पुस्तक 'साहित्यिक या शास्त्रीय विद्या' की द्योतक है। अक्षमाला 'अक्षरों या वर्णों की श्रृखंलाबद्ध लड़ी है।
इस अक्षमाला की अद्भुतता पर ऋषियों ने एक सम्पूर्ण उपनिषद् की रचना की है। यह है−अक्षमालिकोपनिषद्'। उपनिषद् के आरम्भ में प्रजापति, 'भगवान कार्तिकेय' से प्रश्न करते हैं−सा किं लक्षण'−अक्षमाला का लक्षण क्या है? 'का प्रतिष्ठा'...किं फलं चेति'−अक्षमाला की क्या प्रतिष्ठा है? क्या फल है?
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इन सब प्रश्नों के उत्तर स्वरूप भगवान कार्तिकेय बताते हैं कि अक्षमाला के एक−एक अक्ष (मनके) या वर्ण में दैवीय गुण समाहित हैं। एक−एक वर्ण दिव्य गुणों से प्रपन्न है। उदारणतः−
ओमङ्कार मृत्युञ्जय सर्वव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रतितिष्ठ।
अर्थात् हे 'अ'−कार! आप मृत्यु को जीतने वाले हैं, सर्वव्यापी हैं। आप माला के इस प्रथम अक्ष (मनके) में स्थित हो जाओ।
ओमाङ्काराकर्षणात्मक सर्वगत द्वितीयेऽक्षे प्रतितिष्ठ।
अर्थात् हे 'आ−कार' तुम आकर्षण शक्ति से ओतप्रोत हो और सर्वत्र संव्याप्त हो। तुम माला के दूसरे अक्ष में स्थित हो जाओ।
ओमाङ्कार सर्ववश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रतितिष्ठा।
अर्थात् हे 'ए−कार! तुम सभी को वश में करने वाले तथा शुद्ध सत्त्व वाले हो। तुम माला के ग्यारहवें अक्ष में प्रतिष्ठित हो जाओ। इस प्रकार अक्षमालिकोपनिषद् में प्रत्येक वर्ण में समाई दिव्यता को उजागर किया गया है। आगे भगवान कार्तिकेय यहाँ तक कहते हैं कि पृथ्वी, अंतरिक्ष व स्वर्ग आदि के देवगण (दैवी शक्तियाँ) सभी इस अक्षमाला में समाहित हैं−
ये देवाः पृथ्विीपदस्तेभ्यो...अन्तरिक्षसदस्तेभ्य...
दिविषदस्तेभ्यो...नमो भगवन्तोऽनुमदन्तु
अर्थात् जो देवगण पृथ्वी में, अंतरिक्ष में और स्वर्ग में निवास कर रहे हैं वे सभी मेरी इस अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों।
इससे आगे के मंत्रों में कार्तिकेय जी ने कहा कि समस्त विद्याओं और कलाओं की स्रोत यह अक्षमाला ही है−ये मंत्र य विद्यास्तेभ्यो नमस्ताभ्य...अर्थात् इस लोक में जो सारे मंत्र और सारी विद्याएँ एवं कलाएँ विद्यमान हैं उन सभी को कोटिश−कोटिश नमन है। इनकी शक्तियाँ मेरी अक्षमाला में प्रतिष्ठित हों।
माँ सरस्वती का वरद मुद्रा में उठा हुआ चौथा हाथ इस दिव्य गुणों वाली विद्या का ही द्योतक एवं आशीष देता है।
एक भारतीय होने के नाते हमें गर्व होना चाहिए कि भारतीय संस्कृति में विद्या और विद्या की देवी का स्वरूप कितना सकारात्मक, कितना शुद्ध एवं दिव्य दर्शाया गया है। लेकिन आज के परिवेश में पढ़े लिखे वर्ग को देखिए। इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि पढ़ाई ने उन्हें अहंकारी बना दिया है। अकड़बाज एवं तानाशाह बना कर रख दिया है। जिनकी नाक की नोक पर गुस्सा हर समय आसन जमाए बैठा रहता है। भौहें तनी और दिमाग गर्म रहता है। यह पढ़ा लिखा वर्ग तर्कों के बाणों का तुनीर भर अपनी पीठ पर लादे रखता है। इनकी वाणी में ज्वालाएँ भरी हुईं हैं जो किसी को भी झुलसाने की क्षमता से ओतप्रोत हैं। स्वार्थमय और आत्मप्रशंसा का मद उन्हें आठों पहर ही मदहोश रखता है।
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जरा सोचिए! क्या माँ शारदा का वरद हस्त इतना विकृत परिणाम दे सकता है? विद्वजनों का चिंतन कहता है कि यह विद्या नहीं अपितु मात्र कोरी शिक्षा है। आज केवल उन्हें कागज़ पर उकेर कर वर्णों को रटाया जाता है। वे उन्हें अक्षमाला के मनकों का साक्षात्कार नहीं करवा रहे। हमारे शास्त्रों का कथन है− 'विद्या ददाति विनयं' विद्या मानव को विनयशील बनाती है। प्लेटो ने भी कहा Knowledge is Virtue ज्ञान एक महान सद्गुण है। इसलिए विद्वता के साथ सद्वृत्तियों को भी जरूर धारण करें।
हम देखते हैं कि माँ शारदा के रूप सज्जा में बहुधा श्वेत रंग ही दृष्टिगोचर होता है। वेद का कथन है−
या कुन्देन्दु तुषार हार ध्वला या शुभ्रवस्त्रावृता...
भाव माता सरस्वती शीतल चन्द्रमा की किरणों से गिरती हुईं ओस की बूंदों के श्वेत हार से सुसज्जित हैं। शुभ्र वस्त्रों से आवृत हैं। वीणा धरिणी माँ वर मुद्रा में अति धवल कमल आसन पर विराजित हैं। ऐसी देवी माता हमारी बुद्धि की जड़ता का भी हनन करें। हम जानते हैं कि श्वेत रंग उजाले की ओर इंगित करता है। पवित्रता एवं शुद्धता का पर्याय है। शुभ और श्री का द्योतक है। माता शारदा का वाहन हंस भी दूध के समान अति धवल है। जोकि नीर−क्षीर विवेक को दर्शाता है। इसलिए बसंत पंचमी पर्व को माँ सरस्वती के प्राक्टय दिवस के रूप में मनाने से तात्पर्य है कि हमारे जीवन में संपूर्ण सुविद्या का प्रकटीकरण हो जाए।
बसंत पंचमी के बाद ऋतुराज बसंत का मनमोहक मौसम शुरू होता है। खेतों में गेहूँ की बालियाँ लहलहा उठती हैं। सरसों के पीले फूल धरती माँ को पीली साड़ी पहने किसी सुंदर स्त्री के समान अलंकृत कर देते हैं। आमों पर बौर और कोयल का मीठा संगीत हमें एक अलौकिक आनंद से सराबोर कर देता है।
बसंत के मौसम में ठंड की ठिठुरन नहीं रहती। और न ही गर्मी का ताप हमें जलाता है। बयार शीतल एवं सुहावनी हो जाती है। जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सौम्यता धारण कर लेते हैं। मौसम अपने पावन रूप में प्रकट हो जाता है।
बसंत के दिन विद्या की देवी प्रकट होती हैं और उनके प्रकट होते ही प्रकृति ने अपनी उग्रता छोड़ दी। अगर हम गहराई से देखेंगे तो इसमें मानव समाज के लिए बहुत ही प्रेरणादायक संदेश छुपा हुआ है कि जब हमारे भीतर विद्या जागृत हो जाएगी तो हमें विनयशील बन जाना चाहिए। यही विद्या का रहस्य है। विद्या केवल मस्तिष्क को ही नहीं जगाती अपितु हमारी चेतना को भी परिवर्तित करती है। ऋग्वेद का कथन है−
प्रणो: देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनांमणित्रयवतु:।
अर्थात् माँ सरस्वती परम चेतना हैं जो हमारी बुद्धि प्रज्ञा एवं मनोवृत्तियों को सद्मार्ग की ओर प्रेरित करती हैं। अगर हम ऊँची डिग्रियां प्राप्त कर भी विनयशील नहीं बने तो समझ लेना हमने सच्ची शिक्षा हासिल नहीं की। और न ही हमारे जीवन में माँ शारदा का प्रकटीकरण हुआ और न ही ऋतुराज बसंत का।
-सुखी भारती
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