Gyan Ganga: कामदेव के सारे बाण हुए निष्फल, नारद की अचल समाधि के आगे झुका प्रेम का देवता

कामदेव का हृदय काँप उठा। वह स्मरण करने लगा, जब एक बार उसने महादेव की समाधि भंग करने का दुस्साहस किया था, और भस्म होकर केवल नाममात्र रह गया था। वही भय आज पुनः उसके रोम रोम में व्याप्त हो गया — “अरे! कहीं यह मुनि भी वही न करें? इनकी समाधि में भी तो वही अग्नि छिपी है, जो भस्म कर डालती है।”
नारद मुनि की अखण्ड समाधि अब मानो उस पर्वतराज हिमालय की भाँति अचल हो गई थी। न पवन का कंपन, न चित्त का चलन — सब कुछ एकाग्र, सब कुछ ब्रह्ममय। उस दिव्य समाधि को भंग करना ही अब कामदेव का परम लक्ष्य था। उसने अपने समस्त पुष्पबाणों की टोकरी खाली कर दी। मल्लिका, मधु, चम्पा, शतदल— सभी बाणों के रूप में निकले, और मुनिवर के तप को लक्ष्य बनाकर चले। किंतु आश्चर्य!
वह समाधि तो अचल ही रही— जैसे सागर में गिरा बिंदु लय हो जाए, वैसे ही वे बाण उस ब्रह्मशांत वायु में विलीन हो गए।
कामदेव का हृदय काँप उठा। वह स्मरण करने लगा, जब एक बार उसने महादेव की समाधि भंग करने का दुस्साहस किया था, और भस्म होकर केवल नाममात्र रह गया था। वही भय आज पुनः उसके रोम रोम में व्याप्त हो गया — “अरे! कहीं यह मुनि भी वही न करें? इनकी समाधि में भी तो वही अग्नि छिपी है, जो भस्म कर डालती है।”
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यह सोचते ही कामदेव के शरीर में कंपन छा गया, और भय से उसका सारा तेज क्षीण हो गया।
‘काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी,
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तोसू,
बड़ रखवार रमापति जासू।’
कामदेव जान गया कि जहाँ स्वयं लक्ष्मीपति श्रीहरि रक्षक हैं, वहाँ उसकी कला का क्या प्रभाव!
जैसे गज की पीठ पर बैठी मक्खी यह माने कि वह उसे दबा देगी — परंतु गज को क्या अनुभूति! वैसा ही कुछ हुआ। नारद मुनि की समाधि पर कामदेव का प्रभाव उतना ही था, जितना महासागर पर तरु-पत्र की छाया।
अब कामदेव को अपने विनाश का भय घेरने लगा —
“अब निश्चित मरण सामने है। यह मुनि जब समाधि से उठेंगे, तो मुझे भस्म कर देंगे। एक ही मार्ग शेष है — इनकी चरण शरण।” ऐसा विचारकर वह अपने समस्त गणों सहित वहाँ आया, और नारद मुनि के चरणों में गिर पड़ा। थरथराते हुए बोला — “हे मुनिवर! मैं अपराधी हूँ, मुझे क्षमा दीजिए। मोह ने मुझे भ्रमित किया।”
उधर नारद मुनि की समाधि का समय पूर्ण हुआ। उन्होंने नेत्र खोले, तो देखा — कामदेव और उसके गण चरणों में पड़े हैं, दया की याचना कर रहे हैं। उनका मुख मुस्कराया, और करुणा से कहा- “वत्स! तुम्हें भय करने की आवश्यकता नहीं। मुझे तुमसे कोई क्रोध नहीं।”
‘भयउ न नारद मन कछु रोषा,
कहि प्रिय बचन काम परितोषा।
नाइ चरन सिरु आयसु पाई,
गयउ मदन तब सहित सहाई।’
कामदेव ने सुना, और वह मुनि की इस असीम क्षमा से विस्मित हो गया। उसने सिर झुकाकर कहा — “धन्य हैं आप! आप तो स्वयं महायोगी, परम ब्रह्मनिष्ठ हैं।
हे मुनिवर! जब मैंने शिव की समाधि भंग की थी, तो उन्होंने मुझे भस्म कर दिया था। किंतु आपने तो मुझे तिरस्कार तक नहीं दिया। इससे स्पष्ट है कि आपने क्रोध को जीत लिया है।
आपने यह भी कहा कि आपको इन्द्र के स्वर्ग की कोई इच्छा नहीं, तो आपने लोभ को भी जीत लिया।
और जब मैंने अपने समस्त कामबाण चलाए, तब भी आपका चित्त विचलित नहीं हुआ — अर्थात आपने काम को भी जीत लिया।
हे मुनि श्रेष्ठ! जो तीनों दोषों — क्रोध, लोभ, और काम — को जीत ले, वह त्रिलोक में अद्वितीय है। यहाँ तक कि स्वयं शंकर भी आपके समकक्ष नहीं ठहरते।”
कामदेव की वाणी मानो पुष्पवृष्टि बनकर नारद मुनि के श्रवणों में पड़ने लगी।
वह तो चला गया, पर उसके वचन पीछे रह गए — मधुर, मोहक, और मर्म को स्पर्श करते हुए।
नारद मुनि के भीतर कहीं एक सूक्ष्म तरंग उठी— “क्या सचमुच मैं इतना महान योगी हूँ? क्या वास्तव में मैंने वह कर दिखाया, जो स्वयं महादेव न कर सके?”
धीरे-धीरे वह तरंग गर्व की लहर बन उठी — “वह महादेव तो क्रोधवश कामदेव को भस्म कर बैठे, पर मैंने तो उसे क्षमा दी। मेरा संयम, मेरा योग उनसे भी ऊँचा हुआ। वाह! अब समझा, क्यों सब मुझे नारायण का प्रिय कहते हैं।”
कामदेव की प्रशंसा के बाण, जो पहले मधुर लगे थे, अब अहंकार के विष में परिवर्तित हो चुके थे। वह विष मुनि के अंतर्मन में उतरने लगा — धीरे, पर गहरा। वाणी अब मौन थी, पर हृदय में गर्व का नाद गूँज उठा — “हम महादेव को योग का अर्थ सिखा सकते हैं! हमसे बढ़कर कौन?”
और ऐसे ही गर्व की इस पहली रेखा ने उनके जीवन में एक नए अध्याय का द्वार खोल दिया — जिसका परिणाम समस्त लोकों को चकित करने वाला होने वाला था।
क्रमशः
- सुखी भारती
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